हिंदी के अतीत और अनागत की
चर्चा करते समय हम प्रायः ही हिंदी के वर्तमान की उपेक्षा-सी
कर जाते हैं विदेशों में सुख-सुविधा पूर्वक रहते हुए हमारा
स्वभाव बन गया है कि हमें हर वस्तु बनी बनाई मिल जाए हमें
स्वयं कोई परिश्रम नहीं करना पड़े हम अपनी त्रुटियों को कभी तो
आने वाली पीढ़ी के सर थोप देते हैं तो कभी एक अरब से अधिक
समस्याओं से जूझने वाले अपने मातृ-पितृ देश की सरकार पर डाल
देते हैं
हिंदी के प्रचार एवं प्रसार
कार्य में भारत सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों डॉलर व्यय करती रही है अब तक के सारे ही छै सम्मेलनों में भारत सरकार ने करोड़ों डॉलर
व्यय किए हैं, तब ही ये विश्व हिंदी सम्मेलन सफल हो सके किंतु
इस नई शताब्दी में समय नहीं है कि हम परछिद्रान्वेषण एवं
अन्यों की टीका-टिप्पणी करने में अधिक समय नष्ट कर सकें समय आ
गया है कि हम प्रवासी भारतीय सरकार की बैसाखी पकड़कर चलने तथा
आलोचना करने के स्थान पर उसकी वरद छत्र-छाया में स्वावलंबी
बनकर प्राण-प्रण से हिंदी का प्रचार एवं प्रसार करें हमें समय
की पुकार सुनकर जागरूक हो जाना चाहिए और हिंदी के वर्तमान को
सुधार कर सुरक्षित स्वर्णिम भविष्य की नींव डालना चाहिए हमें
इन देशों की स्वतः चरमराती हुई जाति-पाति, प्रांत तथा प्रांतीय
मातृभाषा की सीमाओं से बाहर निकलकर भारतीय संस्कृति की
संवाहिका भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को समुचित स्थान एवं
सम्मान देना चाहिए प्रस्तुत लेख में मैं इसी ओर संकेत कर रहा
हूँ कि आज हमें हिंदी की अस्मिता बचाने के लिए एकजुट होकर
निम्न-लिखित तथ्यों पर अविलंब ध्यान देना चाहिए:
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प्रत्येक भारतीय (भारत-जात अथवा भारत-वंशी कोई भी व्यक्ति)
अथवा हिंदी प्रेमी को प्रस्तुत क्षण से ही अपने परिवारों तथा
हिंदी भाषी इष्ट-मित्रों के साथ हिंदी में ही वार्तालाप करना
आरंभ कर देना चाहिए विशेषतया हम अपनी अग्रिम पीढ़ी को हिंदी
की धरोहर देना न भूलें बाह्य प्रभाव के कारण कुछ बच्चे अथवा
युवक हिंदी को अपनाने में आनाकानी भी करें तो ज्येष्ठ
व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे समयानुसार साम-दाम-दंड-भेद
अथवा किसी उत्तम एवं श्लाघ्य नीति से अपने इस उद्देश्य को
प्राप्त करने का पूर्ण प्रयास करें कभी न कभी सफलता अवश्य
मिलेगी।
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हम जब कभी किसी अन्य
भारतीय से कहीं मिलें, तब हमें अवसर एवं परिस्थितियों अनुसार
यथा संभव हिंदी में ही वार्तालाप का शुभारंभ करना चाहिए फीजी, मॉरिशस एवं सूरीनाम के प्रवासी भारतीय तो निःसंकोच
धाराप्रवाह हिंदी बोलते ही हैं, अब त्रिनिडाड एवं गयाना के
प्रवासी भारतीय भी थोड़ी-थोड़ी हिंदी बोलने लगे हैं इसके
अतिरिक्त उनसे हिंदी में वार्तालाप आरंभ करने से उन्हें
हिंदी सीखने की प्रेरणा मिलेगी त्रिनिडाड में अब पर्याप्त
संख्या में लोग कुछ शब्द हिंदी में समझने और बोलने योग्य हो
गए हैं।
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चाहे वह सामान्य पत्र हो
या विद्युत डाक पत्र (ईमेल) हो, हमें हिंदी-विद व्यक्तियों
के साथ सदैव हिंदी में ही पत्र-व्यवहार करना चाहिए।
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हमें हिंदी पुस्तकों तथा
पत्र-पत्रिकाओं को यथाशक्ति क्रय करके पढ़ना चाहिए स्थानीय
हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त भारत तथा अन्य देशों में
प्रकाशित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं को भी यथाशक्ति संरक्षण तथा
प्रोत्साहन देना चाहिए खेद का विषय है कि आज भारत जैसे देश
में उच्च स्तरीय हिंदी पत्रिकाओं का अभाव हो गया है।
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हमें सामयिक अराजनैतिक
आंदोलन चलाकर स्थानीय सरकारों से अभ्यर्थना करना चाहिए कि
हिंदी उन देशों तथा राज्यों के पाठ्य-क्रम में सम्मिलित की
जाए यदि संभव हो तो राजनैतिक दबाव भी डालें।
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हमें व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से मैत्री आंदोलन चलाकर
प्रयास करना चाहिए कि संबंधित देशों में स्थानीय
जन-पुस्तकालयों में हर अवस्था वाले व्यक्ति के लिए हिंदी की सर्वस्तरीय एवं सर्वविषयी पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएँ कनाडा
जैसे देश में जहाँ जन-पुस्तकालयों में हिंदी-भाषीय पुस्तकें
उपलब्ध हैं, हिंदी प्रेमी व्यक्ति स्वयं तथा अहिंदी भाषी
व्यक्तियों द्वारा उन पुस्तकों को अधिक से अधिक पढ़ने के लिए
उधार लें और समय पर वापस कर दें ऐसा करने से हिंदी पुस्तकों
की लोकप्रियता सिद्ध और समृद्ध होगी तथा हिंदी का प्रचार एवं
प्रसार होगा।
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बालकों तथा अहिंदी भाषियों
के लिए प्रारंभिक हिंदी पाठ्य पुस्तकें अनुभवी एवं सुशिक्षित
हिंदी-शिक्षकों द्वारा स्थानीय पृष्ठभूमि पर लिखी जाना चाहिए इससे बालकों को हिंदी पढ़ने में अपेक्षाकृत अधिक सरलता होती
है इस दिशा में सूरीनाम में बाबू महातम सिंह तथा त्रिनिडाड,
कनाडा एवं अमेरिका में भारतीय विद्या संस्थान ने स्तुत्य कार्य
किया है।
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प्रत्येक भारतीय को अपने निजी कार्यालय तथा बैंक आदि में
यथासंभव अपने हस्ताक्षर हिंदी में ही करना चाहिए हस्ताक्षर
अभियान चलाकर अहिंदी भाषियों को भी इस ओर प्रेरित करना चाहिए।
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हिंदी शिक्षण-शिविरों का
आयोजन कर भारतीय वेश-भूषा, भोजन तथा भजन आदि को प्रयोगात्मक
प्रोत्साहन दें, नित्य के उपयोग की वस्तुओं के हिंदी
संज्ञाओं के प्रयोग का अभ्यास कराएँ अंत्याक्षरी, हिंदी
वाचन, भाषण, श्रुतलेख, काव्य, निबंध लेखन आदि की
प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की जानी चाहिए।
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प्रत्येक देश में हिंदी
भाषा-भाषियों, कवि एवं लेखकों की समितियाँ अथवा संस्थाएँ बनाकर
साहित्यकारों को सृजन की प्रेरणा देकर कविता-कहानी-निबंध आदि
की गोष्ठियों, प्रतियोगिताओं तथा राष्ट्रीय एवं सुविधानुसार
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन करना चाहिए इन्हीं
संस्थाओं को निजी रूप में हिंदी के पठन-पाठन की व्यवस्था कर
हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी करना चाहिए हिंदी
पाठशालाओं में अपने बच्चों को अधिक से अधिक संख्या में भेजें इसी प्रकार जब हिंदी राजकीय पाठ्यक्रम में उपलब्ध हो तो अपने
बच्चों को हिंदी विषय ग्रहण करने की सबल प्रेरणा और प्रोत्साहन
प्रदान करें।
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हिंदी तथा स्थानीय राष्ट्रभाषा के संबल से द्विभाषी
पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था करना चाहिए, परंतु हिंदी
पढ़ाते समय रोमन लिपि से अधिक से अधिक बचना चाहिए साथ ही अधिक
से अधिक हिंदी का ही प्रयोग करना चाहिए।
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पूजा-पाठ, धार्मिक तथा
सांस्कृतिक अवसरों पर अधिक से अधिक हिंदी का प्रयोग करना
चाहिए।
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हमें अपनी संतति, भवनों,
दूकानों तथा यदि संभव हो तो व्यापारों का नाम भी हिंदी में ही
रखना चाहिए अपने नाम की पट्टिका एवं दूकान के नाम-पट्ट हिंदी
एवं स्थानीय भाषा में बनवाना चाहिए अपनी दूकानों अथवा
व्यापारिक संस्थानों में कर्मचारियों की नियुक्ति करते समय
हिंदी ज्ञान को भी वरीयता प्रदान करें।
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भारत अथवा हिंदी भाषी देशों से यथासंभव हिंदी में ही
पत्र-व्यवहार करना चाहिए।
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हिंदी बोलने वाले बच्चों
तथा व्यक्तियों को अवहेलना की दृष्टि से न देखकर सम्मान की
दृष्टि से देखना चाहिए।
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यथासंभव घर-घर,
ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में हनुमान चालीसा, सुंदर कांड, दुर्गा
चालीसा, रामायण, उपनिषद तथा वेदादि के अखंड पाठ एवं यज्ञ की
व्यवस्था करना चाहिए।
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हर संस्था यह प्रयास करे
कि उसके अधिकारी हिंदी-भाषी हों।
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उन्हीं पंडितों को
अधिकार-पत्र (लाइसेंस) तथा सम्मान मिलना चाहिए जो हिंदी-विद
तथा हिंदी भाषी भी हों साथ ही हिंदी एवं संस्कृत को
देवनागरी लिपि में ही लिखने-पढ़ने में सिद्धहस्त हों।
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हमें हिंदी प्रदूषण को
अविलंब रोकना चाहिए किसी भी उर्दू, अँग्रेज़ी अथवा अन्य
भाषीय शब्द को केवल नागरी लिपि में लिख भर देने से ही वह
हिंदी शब्द नहीं बन जाता साहित्यकारों का कर्तव्य है कि
प्रयोग अथवा आधुनिकता के नाम पर अन्य भाषीय शब्दों का प्रयोग
करने पर विराम लगा दें और अन्य भाषीय शब्दों का तभी प्रयोग
करें जब उसका स्थानापन्न शब्द हिंदी में उपलब्ध न हो यह
सत्य है कि हमें अन्य भाषीय प्रचलित शब्दों को अपनाने में
उदार नीति का पालन करना चाहिए, परंतु साथ ही प्रत्येक
साहित्यकार का यह कर्तव्य भी है कि वह हिंदी की नित्य लुप्त
होती जा रही शब्दावली को भी वापस लाकर हिंदी को पुन: समृद्ध
करे संस्कृत के अतिरिक्त हिंदी संसार की सर्वाधिक संपन्न
भाषा है, इसे दिवालिया न बनाया जाए।
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यह सत्य है कि हमें आंग्ल
भाषा के अनुवादित शब्दों का यथोचित प्रयोग करना चाहिए, परंतु
ध्यान रहे कि व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का अनुवाद नहीं किया
जाता किसी भी देश, नगर, स्थान तथा व्यक्ति आदि के नाम का
हिंदीकरण नहीं किया जाना चाहिए हम जिस देश में रहते हैं,
हमें उस देश के प्रति भी विश्वस्त रहते हुए वहाँ के उच्चारण
आदि का ध्यान रखना चाहिए।
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हम प्रवासी भारतीयों का
कर्तव्य है कि हम हिंदी में सोचें, हिंदी में बोलें तथा
हिंदी में ही कार्य करें तभी इसका पुनरुद्धार हो सकता है।
सर्वविदित तथ्य है कि हिंदी
जोड़ने वाली भाषा है, तोड़ने वाली नहीं हिंदी चरित्र निर्माण
की भाषा है, भक्ति एवं भारतीय संस्कृति की सच्ची संवाहिका एवं
संप्रेषिका भाषा है केवल हिंदी ही समस्त भारतीय अथवा अप्रवासी
भारतीयों की संपर्क की भाषा हो सकती है यही समय है, जब हम
जागरूक रहें और हिंदी के रूप में अपनी अस्मिता की रक्षा करें,
इसे मन से प्यार करें, दुलार देकर, दैनिक प्रयोग में लाकर अंत
में मैं कहना चाहता हूँ:
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भाषा ही हर पीढ़ी की नायक होती है
भाषा ही हर संस्कृति की वाहक होती है
हिंदी किसी विशेष वर्ग की नहीं धरोहर हिंदी भाषा धर्म-जाति से
सदैव ऊपर
हम हिंदी भाषी हैं, हिंदी की संतति है हम हिंदी की, हिंदी हम
सबकी संपत्ति है
विदेश में हिंदी ही हम सबकी त्राता है हिंदी सत्य अर्थ में हम
सबकी माता है
हिंदी का विकास, हम सबका ही विकास है हिंदी देती है, देगी नित
नव प्रकाश है
भरकर जीवन में नैतिक बल, विकास, आशा देती है आनंद सदा अपनी ही
भाषा
अपने-अपने हृदय-चक्षुओं को अब खोलें आओ, हम सब मिलकर हिंदी की
जय बोलें
(शताब्दी के स्वर काव्य
संग्रह से) |
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