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विश्व हिंदी
दिवस के
अवसर पर विशेष
चार सप्ताह
का हिंदी पाठ
-डॉ.गेनादी श्लोम्पेर
मैंने
तीन देशों, अर्थात् उज़बेकिस्तान, रूस और इज़राइल, के
छात्रों को हिंदी सिखाई। और हर जगह मैंने छात्रों में
हिंदी के प्रति गहरी रुचि पाई। भारत को चमत्कारों का देश
माना जाता रहा है। शायद छात्र मुझसे यह आशा रखते हैं कि
मैं उन्हें हिंदी के सहारे इस देश के भेद खोलूँगा। और उनकी
यह आशा निराधार नहीं है। हिंदी वास्तव में एक ऐसा माध्यम
है जिसको लेकर एक अद्वितीय संस्कृति समझना संभव हो जाता
है।
मुझे अपने छात्रों की रुचि के कारण हिंदी सिखाना कितना सरल
हो जाता है! पाठों में मैं स्वयं को एक ऐसा काश्तकार महसूस
करता हूँ जिसको बहुत उपजाऊ ज़मीन मिली है, जिसपर फ़सल
उगाने के लिये बस इस बात का ध्यान रखना होता है कि ज़मीन न
बिगाड़ूँ, तो फ़सल ख़ुद उगेगी। मेरी ज़मीन भारत से मोहित
छात्र हैं। उनके लिये भारत वास्तुकला
के अद्भुत स्मारकों, प्राचीन
मंदिरों, चकित कर देनेवाले प्राकृतिक दृश्यों तथा मिलनसार
और प्रतिभाशाली लोगों का देश है।
मैं छात्रों में हिंदी भाषा के प्रति रुचि बनाए रखने की
कोशिशें करता हूँ। इसके लिये मैं फ़िल्मों, नाटकों और
गानों का प्रयोग करता हूँ। गानों की तो न पूछिये। इज़राइल
में आपको शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो हिंदी गाने
नापसंद करता हो। मेरे विद्यार्थी हर दूसरे पाठ में कोई न
कोई नया गाना सीख लेते हैं और यदि पाठ के दौरान गाने के
लिये समय नहीं बचता तो बहुत निराश हो जाते हैं। संगीत के
आनंद के अलावा गानों से बड़ा लाभ होता है – विद्यार्थी
तनिक भी प्रयत्न किये बिना शब्द भंडार बढ़ाते हैं और सही
उच्चारण का अभ्यास पाते हैं।
लेकिन हिंदी भाषियों के अभाव में छात्रों को बात करने का
अभ्यास केवल हिंदी की क्लासों में मिलता है, और यह
स्पष्टतः पर्याप्त नहीं है। बोलने के अभ्यासों को मैं बड़ा
महत्व देता हूँ। इसलिये मैंने अपने छात्रों को लेकर भारत
में एक महीना गुज़ारने का निर्णय लिया था ताकि वे बात करने
के अभ्यस्त हों और व्यवहारिक तौर पर अपनी उस जानकारी का
प्रयोग कर सकें जिसे
विश्वविद्यालय की चारदीवारी में धारण किया था।
वैसे तो हम विदेशियों
के लिये भारत की यात्रा सदा एक अनूठा अनुभव होती है जिसका
चमत्कारिक असर हमेशा के लिये दिलो-दिमाग में अंकित बना
रहता है। लेकिन मेरे छात्रों को भारत यात्रा का अनुभव एकाध
बार हो चुका है। इस लिये उनको नए देश के प्राकृतिक दृश्यों
या जातीय विविधता से आश्चर्यचकित कराना मेरा उद्देश्य नहीं
था। मैं उन्हें एकदम नए भारत का अनुभव प्रदान करना चाहता
था, एक ऐसे देश का अनुभव जिससे वे आज तक परिचित नहीं थे।
उन्होंने भारत में अनेक मनोहर स्थान देखे हैं। लेकिन हमारी
साझी यात्रा में उन्हें देश का भीतरी सौंदर्य देखना नसीब
हुआ।
पहले वे हिंदी भाषा सीखे बिना ही भारत में घूमते थे,
अधिकतर विदेशी पर्यटकों की तरह स्थानीय लोगों की बातें
समझे बिना, मूक दर्शक बनकर परिस्थितियों का अवलोकन करते
थे। और उनके मन में देश का जो चित्र उभर कर आता था, उसका
सच्चाई से दूर का रिश्ता था।
मेरे कुछ विद्यार्थी दो साल से, तो कुछ तीन साल से हिंदी
पढ़ने के बाद गूँगे-बहरे न होकर भारतीयों के साथ संवाद के
लिये तैयार हो गये। इसलिये मैंने हमारी यात्रा का आयोजन इस
प्रकार किया कि विद्यार्थी भारतीय लोगों से जी भरकर बातें
कर सकें और वह भी अच्छी मानक हिंदी में। ऐसी हिंदी कहाँ पर
सुनने को मिलती है? स्पष्ट है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी
विभागों में।
इस विचार से मैंने ई-पत्र द्वारा भारत के विभिन्न
विश्वविद्यालयों में कार्यरत अपने कुछ सहकर्मियों से
संपर्क स्थापित करके उन्हें अपने कार्यक्रम के बारे में
सूचित किया। उन्होंने उत्तेजित होकर मेरा प्रोत्साहन किया
और मेरी यथासंभव सहायता करने का वादा किया। पत्राचार
द्वारा हमने यात्रा का कार्यक्रम बनाया। इस कार्यक्रम के
अंतर्गत मेरे छात्रों को हिंदी विभागों के अध्यापकों तथा
शिक्षार्थियों के साथ कई भेंटें करनी थीं। पहले औपचारिक
रूप में और फिर अपने हमवयस्कों
के साथ निजी मुलाकातों के रूप में।
मेरे भारतीय बंधुओं ने हमारे प्रतिनिधि-मंडल के लिये
विश्वविद्यालयों के अतिथिगृहों में ठहरने का प्रबंध करवाया
जिसके कारण वहाँ के विद्यार्थियों से अनौपचारिक वातावरण
में मिलने तथा विभिन्न विषयों पर बातें करने का स्वरण मौका
मिला। अध्यापकगण तथा
छात्रगण सहित भेंटों के दौरान मेरे छात्रों ने कई बार अपनी
हिंदी की जानकारी का प्रदर्शन किया। उन्होंने इज़राइली
जीवन के विभिन्न पहलुओं पर व्याख्यान दिये और हिंदी गानों
का एक विशेष कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया।
हमारी भारत यात्रा
दिल्ली में शुरू हुई थी और चंडीगढ़, वाराणसी, वर्धा और
हैदराबाद से होकर मुंबई में समाप्त हुई। यह कहना ज़रूरी है
कि इस यात्रा के दौरान हम हिंदी के कई अग्रणी विद्वानों,
हिंदी साहित्य के इतिहासकारों तथा भाषाविदों से मिले जो
हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये महत्वपूर्ण कार्य निभा रहे
हैं। उनमें सर्वप्रथम हैं चंडीगढ़ के प्रोफ़ेसर सत्यपाल
सहगल, वाराणसी के प्रोफ़ेसर सदानंद शाही, हैदराबाद के
प्रोफ़ेसर सर्राजू, वर्धा के प्रोफ़ेसर सूरज पालीवाल और
प्रोफ़ेसर उमाशंकर उपाध्याय। वर्धा विश्वविद्यालय के
कुलपति श्री विभूति नारायण राय और प्रति कुलपति प्रोफ़ेसर
अरविंदाक्षन तथा दिल्ली के प्रोफ़ेसर कुमारस्वामी ने भी
हमारी यात्रा को सफल बनाने में बड़ा योगदान दिया।
हिंदी भाषा सीखने की
दृष्टि से यह यात्रा अमूल्य रही है। मेरे छात्रों ने हिंदी
भाषा और साहित्य के विकास पर तथा भारत के इतिहास पर अनेक
व्याख्यान सुने। लेकिन वे विशेषकर आम लोगों के साथ अपनी उन
मुलाकातों से प्रभावित हुए जो यात्रा के दौरान बसों,
रेलगाड़ियों, दुकानों में, सड़कों पर हुईं। यह जानकर कि हम
हिंदी बोलते हैं लोगों के चेहरों पर मुस्कान फैल जाती थी
और अपनेपन का वातावरण बन जाता था। और जहाँ भी हम गए, चाहे
वह पंजाब, उत्तर-प्रदेश, महाराष्ट्र या आंध्र-प्रदेश था,
हर जगह केवल हिंदी में बात करने से हमारा काम बन जाता था।
हमें किसी और भाषा की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। इस तरह मेरे
छात्रों को आधुनिक भारत में हिंदी के फैलाव और महत्व का
प्रमाण मिला।
यात्रा के चार सप्ताह। सिर्फ़ चार सप्ताह। लेकिन इस लघु
समय के अंदर मेरे छात्रों की चेतना में भारत की जो तस्वीर
थी वह कितनी बदल गई! उन्होंने इस देश के बारे में ढेर सारी
नई बातें जान लीं। पहले वे भारत में दूसरे विदेशी पर्यटकों
की तरह घूमते थे। हिंदी सीखने से उन्हें भारत की आत्मा तक
पहुँचने का रास्ता मिला। जैसे अचानक काले-सफ़ेद मूक
चलचित्र ने रंग और स्वर पकड़ लिये हैं।
१४ जनवरी
२०१३ |