जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना
पूरा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो
जाएगा, उस दिन देश पूरे तौर पर केवल 'इंडिया' रह जाएगा। हो
सकता है, समय ज़्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक
स्वाधीन राष्ट्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी
टक्कर होना निश्चित है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह
किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन
जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय
के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में आपत्ति
है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक ज़रूर
पहुँचाएँगे।
लार्ड मैकाले का मानना था कि
जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा,
भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं
होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेज़ी
भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा
सकता है।
अंग्रेज़ी जानने वालों को
नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के
परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेज़ी परस्त
काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए
कि अंग्रेज़ी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व
जाता रहेगा और देश को अंग्रेज़ी की ही शैली में शासित करने की
योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी।
यह ऐसे अंग्रेज़ीपरस्त
काँग्रेसी नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेज़ी को जितना
बढ़ावा परतंत्रता के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना
अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 50 वर्षों में मिल गया
और आज भी निरंतर जारी है।
जबकि गांधी जी का सपना था कि
अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के
विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत
की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का
नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेज़ीपरस्त
काँग्रेसी से अंग्रेज़ी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे,
लेकिन अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद
अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता
के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे
बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्यों कि हिंदी कई
शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।
भाषा के सवाल को लेकर लार्ड
मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेज़ी भाषा
के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नदृष्टा थे स्वाधीनता
के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया।
स्वाधीनता संग्राम में सारे देश के नागरिकों को एक साथ आंदोलित
कर दिखाने का काम गांधी जी ने भाषा के माध्यम से ही पूरा किया
और अहिंसा के सिद्धांत से ब्रिटिश शासन के पाँव उखाड़ दिए।
पूरे विश्व में एक भी ऐसा
राष्ट्र नहीं है, जहाँ विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया
हो, सिवाय भारतवर्ष के। हज़ारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक
परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी
बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं
है। अंग्रेज़ी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी
प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे
देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक
और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन है। यह कितनी
बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे
एक गहरे कोहरे में ढँक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे
मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं।
राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे
सदा-सदा के लिए बंद कर दिए हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण
फूटती दिखाई नहीं पड़ती।
सारी प्रादेशिक भाषाएँ भी
अपने-अपने क्षेत्रों में बहुत तेज़ी से पिछड़ती जा रही हैं।
अंग्रेज़ी के लिए शासन की भाषा के मामले में अंतर्विरोध भी तभी
पूरी तरह उजागर होंगे, जब यह प्रादेशिक भाषाओं की संस्कृतियों
के लिए भी ख़तरनाक सिद्ध होंगी। प्रादेशिक भाषाओं की भी
वास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी ही है, लेकिन देश के
अंग्रेज़ीपरस्तों ने कुछ ऐसा वातावरण निर्मित करने में सफलता
प्राप्त कर ली है जैसे भारतवर्ष की समस्त प्रादेशिक भाषाओं को
केवल और केवल हिंदी से ख़तरा हो।
सुप्रसिद्ध विचारक हॉवेल का
कहना है कि किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझाने की कसौटी
केवल एक है और वह यह कि उस देश और समाज की भाषा से सरोकार क्या
है। जबकि भारतवर्ष में भाषा या भाषाओं के सवालों को निहायत
फालतू करार दिया जा चुका है। लगता है भारत वर्ष की सारी
राजनीतिक पार्टियाँ इस बात पर एकमत हैं कि हिंदी को
राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया जाए और देश में शासन की मुख्य
भाषा केवल और केवल अंग्रेज़ी को ही रहना चाहिए।
भाषा के मामले में भारतवर्ष
को छोड़कर किसी भी स्वाधीन राष्ट्र का रुख ऐसा नहीं है। अगर
इंग्लैंड का कोई प्रधानमंत्री अपने देशवासियों को हिंदी में
संबोधित करे, तो स्थिति क्या बनेगी? भारतवर्ष भी एक स्वाधीन
राष्ट्र तभी बन पाएगा जब अंग्रेज़ीपरस्त राजनेताओं से मुक्ति
मिलेगी। इससे पहले विदेशी भाषा से मुक्ति पाना संभव नहीं है।
(पांचजन्य से साभार) |