युनिवर्सिटी प्रेस, मैकमिलन
आदि समेत अंग्रेज़ी के भारतीय प्रकाशक।
भारतीय भाषाओं के लिए
केवल एक हॉल था। दिल्ली में, जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास
अंग्रेज़ी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिंदी की एक भी
नहीं। हक़ीक़त तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी
पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इंडिया समूह के
समाचारपत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज़्यादा होने
के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेज़ी अख़बारों के मुकाबले
अत्यंत कम हैं।
इन तथ्यों के उल्लेख का एक
विशेष कारण है।
हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में
से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी
समझते हैं। कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत
दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो
प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी
प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी
भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य
भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम
मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार
दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है।
इंग्लैंड में मुझसे अक्सर
संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है तुम क्यों भारतीयों
को अंग्रेज़ी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय
विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय
भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा
रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क
भाषा के रूप में अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है, गोया यह कोई
शाश्वत सत्य हो। इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह
है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्यों कि
मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा
नहीं रह सकती।
आइए शुरू से विचार करते हैं।
सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण
करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ
की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन
देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेज़ी का
संभवतः सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेज़ी वालों में कुलीनता या
विशिष्टता का दंभ।
कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना
पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे
भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर
देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई
गुना ज़्यादा है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत
ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य
की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी
बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त
नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी
पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ
जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।
चलो इस बात पर भी विचार कर
लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की
बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए?
नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप
से राजनैतिक कारणों से भी),
दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा
संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की
इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत,
अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन
भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों
की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।
संपर्क भाषा का प्रश्न
निश्चित रूप से अत्यंत जटिल है। यदि हिंदी के लंबरदारों ने यह
आभास नहीं दिया होता कि वे सारे देश पर हिंदी थोपना चाहते हैं
तो समस्या सुलझ गई होती। अभी भी देर नहीं हुई है। हिंदी को अभी
भी अपने सहज रूप में ही बढ़ाने की ज़रूरत है और साथ ही
प्रांतीय भाषाओं को भी, जिससे कि यह भ्रम न फैले कि अंग्रेज़ी
साम्राज्यवाद की जगह हिंदी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है।
यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिंदी के
प्रति तथाकथित कुलीनों की नफ़रत है। आप बंगाली, तमिल या
गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं पर हिंदी पर नहीं। क्यों कि
कुलीनों की प्यारी अंग्रेज़ी को सबसे ज़्यादा खतरा हिंदी से
है। भारत में अंग्रेज़ी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें
इतनी ताक़त मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते।
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