मन के वन की सौंधी लौ
- अंतरा करवड़े
खूब ऊँची इमारत के महँगे कोने में
सजी उस कृत्रिम दीपमाला को देखते हुए रह रहकर ख्याल आ रहा था, यहाँ इस प्रकाश के
वैभव को देखने कौन आएगा? लेकिन पारिवारिक स्थितियों के चलते घरौंदे में अकेला रह
गया किशोर, उस प्रकाश के साक्ष्य में दीपावली के त्योहार के समक्ष खड़ा हो सका था।
यही कहानी उस घर में अनगढ़ हाथों से बनाई गई रांगोली, एकत्र किए गए मीठे नमकीन स्वाद
और चंद मिट्टी के दीपक कह रहे थे।
किसी की मोहर लगने की कोई इच्छा मन में न रखकर एक सामूहिक आनंद में शामिल होने वाला
मन, बिना किसी प्रयत्न के त्योहारी हो जाता है। किसी बीज की तरह ही कर्तव्य निर्वहन
करते हुए, जिसे जंगल के बीच अंकुरित होने पर भी, अपने पौधे की हरितीमा, पुष्प के
सौन्दर्य और फल के मिठास के लिए पात्र खोजने का कार्य करने का कोई तनाव नही होता।
वह तो बस उत्कृष्ट पोषण ग्रहण कर अपनी रंगीन व स्वादभरी अभिव्यक्ति दे देता है।
दीपावली में इस ताल पर आ पाना हमारा लक्ष्य हो सकता है? अपनी खुशी के लिए प्रज्वलित
की गई ज्योति, अपनों से स्नेह के लिए परोसे गए व्यंजन, त्योहार के उजास को बढ़ाते
शुभ वस्त्र और आत्मिक आनंद के लिए की गई आराधना। हम सभी के मन में एक चकाचौंध भरा
शहर बसता है साथ ही एक अनगढ़, औघड़ सा वन भी। मन के शहर में प्रचलन होता है कि कोई तो
देखे, स्वाद ले, प्रभावित हो जाए, तारीफ करे और हमारी त्योहार की तैयारी सार्थक हो
जाए। और सत्य यह है, कि इस प्रमाण पत्र की आस में बहुत से दीप सही प्रकाश दे ही नही
पाते, मन खिल ही नही पाते और पर्व बीत जाते हैं। खूब मन लगाकर घर, तन, मन की तैयारी
की जाती है, अपेक्षित प्रतिसाद न मिलने पर त्योहार के बाद का दिन रीता सा लगता है।
यह बार बार होने पर उत्साह के पर कटने लगते हैं और स्वाद फीका होने लगता है। जेबें
भरी हैं, तिजोरियाँ भी, बस मन कृपण हो चला है। तुलना का ग्रहण लगाकर हम एक प्राणपण
से उजियारा फैलाते दीप की क्षमता को हर लेते हैं, पारंपरिक स्वाद को परहेज की बलि
चढ़ाकर प्रतिबंधित कर देते हैं।
प्रकाश से आपकी झोली भरने आए पर्व के समक्ष अपना आंचल फैलाना हम भूल चुके हैं।
हमारे मन का शहर तो हमें इसकी अनुमति तक नही देता। हमें सही मानव तो बनाता है हमारे
मन में बसा हुआ वन! यह बिना किसी तुलना या अपेक्षा के आपको प्रसन्न होने के लिए
स्वतंत्र कर देता है। हम अपने लिए दीपक जलाते हैं, अपने आनंद के लिए स्वादेन्द्रिय
को तृप्त करते हैं, त्योहार के आनंद को मन से अनुभूत करने के लिए नवपरिधान धारण
करते हैं और कृतार्थ होते हैं।
हम शायद त्योहार मनाना भूलने लगे हैं। परंपराओं में कृत्रिम चमक का जामा अब अवरोध
बन रहा है आत्मा और आनंद के मध्य। किसी वन में जाने पर जैसे स्वच्छंद होने लगता है
मन! बिनासायास मिलती मिश्रित सुगंध और प्रकृति के अपने कथन को समझने में निखरती
हमारी अपनी समझ हमें परिपक्व कर देती है। बिना मानवीय दखल के अपने दम पर खड़े वृक्ष
के पास भी हमें बताने को कितना कुछ होता है, यदि हम जानना चाहे। कुछ वैसे ही,
प्राकृतिक परिवर्तन की दहलीज पर खड़े प्रकाश पर्व का भी एक आत्मालाप है, उसे सुनने
का नाम ही त्योहार है, मन में धारण करने का नाम ही उत्साह है और उसका साथ देकर एक
नवीन कलेवर में प्रवेश कर जाना ही उसकी सार्थकता है।
चमकीले लेबलों से सजी और कैमरे के कोणों से दिखाई देती कृत्रिम त्योहारी चमक से
दीपावली को एक संक्रमण हो जाता है। और इसके प्रभाव में आते हुए हम सभी पर्व की
आत्मा को परे रखकर उसके शारीरिक प्रतिमानों के प्रति सजग होने लगते हैं। दिखावे के
बाद मिलते रीतेपन का दुख भी खोलकर दिखा नही पाते। इन्ही बेसुरे क्षणों के बाद
बेस्वाद होने लगता है साल दर साल एक सौंधा सा चलन। और हम कहते हैं कि हम अपनी
परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं।
कोई देखे इसलिए नही, हमें प्रकाश चाहिए इसलिए दीप जलाएँ, किसी को प्रभावित करने के
लिए नहीं लेकिन हमें पसंद है इसलिए परंपराएँ निभाएँ, किसी की तारीफ सुनने के लिए
नही लेकिन स्वयं को शीतकाल के लिए तैयार करने और त्योहार को मनाने के लिए पकवान,
मिठाई खाएँ खिलाएँ, अच्छा लगता है मन को, इसलिए नवीन परिधान धारण करें। यह ठहरने का
समय है, मुड़कर देखने, चिंतन करने और दीपक जलाकर मन की धूल को झाड़ देने का त्योहार
है। इस समय याद आती है एक परिवार की परंपरा, जिसमें सभी को दीपावली पर, परिवार को
लेकर मन का कहने की मीठी रीत थी। प्यारे शब्द मिलते, तो नयनों में चमकती दीपमालाएँ
ही पर्व के उत्साह को दुगुना कर देती थी।
अपने अपने आनंद के लिए भी हम परिभाषाओं में गढ़े, किसी और पर अवलंबित कृतित्व के
आधार पर मिलते सुख के प्रयत्नों पर आश्रित हो जाते हैं। अगर हम कुछ खास दिनों में
ही खुश रहने के गणित से परे रहने को लेकर सोचें तो? क्या होगा अगर हम खुशी और दर्द
की हमारी परिभाषा, कुछ अच्छा महसूस करने की बाधाओं को हटा दें? वास्तव में अच्छा
महसूस करने के लिए किसी व्यक्ति, त्यौहार, व्यवसाय या कार्यक्रम का होना आवश्यक
नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि आप भीतर से पूर्ण हों। एक पर्व वास्तव में हमें क्या
आनंद देता है? जब आप किसी से मिलते हैं तो अच्छा महसूस करने का क्या मतलब है? बेशक,
हमारे व्यक्तित्व का एक हिस्सा पूर्ण होता है, आनंदित होता है, हम भी अपने
प्रियजनों के जीवन की धुन पर लय पकड़ लेते हैं और जिंदगी आगे बढ़ जाती है। एक
त्योहार मन जाता है।
"मैं नदी के लिए, साफ आसमान के लिए, इन काले बादलों के लिए गाऊँगा, उन्हें अच्छा
महसूस कराने के लिए! और खुशी की इन लहरों को योंही, गुमनाम छोड़ दूँगा। फिर कुछ समय
के लिए कोई उन लहरों को संभाल लेगा, और वह क्षण उसका होगा, पर्व न होने पर भी उसे
आनंद देने वाला!" यह अमूर्त ख़ुशी की परिभाषा है। यह मन की खुशी का संगीत है और एक
लिहाज़ से यह निस्वार्थ आनंद का ही एक रूप है जो हमसे ही शुरु होता है। किसी
त्योहार पर, मन के इस वन में यदि हम भी आनंद सेवा करें तो?
अनजान से बच्चों के समूह के साथ स्नेहपूर्वक घुलना-मिलना, पक्षियों को खाना खिलाना,
किसी दादी-नानी के स्मार्टफोन के संघर्ष के दौरान सहज कर देना। ये सारे उपहार कभी
चमकीली पन्नियों में लपेटकर नही देने पड़ते। ऐसा करने से वस्तुतः हमें किसी को बता
पाने के लिहाज से तो कुछ भी नहीं मिलता, परन्तु मन की यही खुराक हमें समय-समय पर
मुस्कान के मौके देती जाती है। सब कुछ पास होने के बाद भी आज मन में सोचने का, याद
रखने का और रिश्ते निभाने के दौरान की गर्मजोशी को लाने का आलस भरने लगा है। एक
विस्तार चाहिए, पर्व के प्रतीकों को देखने की नवीन दृष्टि चाहिए।
तुलना, अपेक्षा, नकल और दिखावे से परे मन के वन में एक सौंधे दीपक का प्रकाश चाहिए।
बटोरने के स्थान पर बांटने के संस्कार निभाने हैं हमें! निष्कांचन हो जाने पर जो
’सब कुछ’ मिल जाने का भाव होता है, उसे पाने की होड़ चाहिए। निश्छलता, मासूमियत,
पारदर्शिता और दीप्त नयन... इस दीपावली के ये ही शृंगार हैं! पटाखों के बीच भी मन
की शांति देने वाला, अपनों के साथ का तेल जीवन के दीप में भरने वाला त्योहार अपनी
शुभ ज्योति लेकर आ रहा है, बस आत्मा की बाती को भिगोकर रखिये!
शुभ दीपावली!!
१ नवंबर २०२३ |