मृत्यु और कर्तव्य
- प्रदीप कुमार सिंह पाल
जीवन में दो बातें स्मरण रखना
सबसे महत्वपूर्ण हैं-
‘एक मृत्यु और दूसरा कर्तव्य’! पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पंचतत्वों से इस
शरीर की रचना हुई है। शरीर को नित्य पौष्टिक भोजन देकर तथा पंचतत्वों में संतुलन
रखकर हम उसे लम्बी आयु तक हष्ट-पुष्ट तथा निरोग रखते है। इस मानव शरीर की सर्वोच्च
मूल आवश्यकताएँ प्रकृति के द्वारा पूरी होती रहें इसलिए प्रकृति के संपर्क में रहना
होगा तथा उसकी रक्षा करनी होगी। शरीर के तार प्रकृति से जुड़े हुए हैं। शरीर को
जीवनीय शक्ति और पोषण प्रकृति से उपलब्ध होता है। मृत्यु की घटना के कारण जीवनीय
शक्ति के शरीर में प्रवेश करने का द्वार बन्द हो जाता है, फिर शरीर प्रकृति से किसी
भी प्रकार का पोषण लेने में असमर्थ हो जाता है। इस कारण से मनुष्य मृत्यु को
प्राप्त होता है। जब भी किसी अर्थी को मनुष्य देखता है तो एक क्षण के लिए ही सही,
मनुष्य के मन में यह महसूस होता है कि उसके जीवन का भी एक दिन यही अंत होगा। इसी
कारण मनुष्य के शरीर का अंत होने पर अर्थी सजाई जाती है। अर्थी का मतलब ही है, जो
जीवन के अर्थ को बतलाए।
जीवन बस यों ही जी लेने के लिए नहीं है। जीवन एक कर्तव्य है, जीवन एक अन्वेषण है,
जीवन एक खोज है। जीवन एक संकल्प है। जीवन भर व्यक्ति इसी सोच-विचार में उलझा रहता
है कि उसका परिवार है, उसकी पत्नी व बच्चे हैं। इनके लिए धन जुटाने और सुख-
सुविधाओं के सरंजाम जुटाने के लिए वह हर कार्य करने को तैयार रहता है, जिससे अधिक
से अधिक धन व वैभव का अर्जन हो सके। अपने स्वार्थ के लिए व्यक्ति दूसरों को भी
नुकसान पहुँचाने के लिए तैयार रहता है। जबकि हर व्यक्ति का मन रूपी दर्पण हमारे
भले-बुरे सारे कर्मों को देखता और दिखाता है। इस उजले दर्पण में प्राणी धूल न जमने
पाये। मन की कदर भुलाने वाला हीरा जन्म गवाये। जब व्यक्ति अर्थी पर पहुँचता है। उस
समय व्यक्ति को जीवन का अर्थ समझ में आता हैं, लेकिन इस समय पश्चात्ताप के अलावा
कुछ और नहीं बचता है। सब कुछ मिट्टी में मिल चुका होता है।
जब व्यक्ति की अर्थी उठाई जाती है, उस समय उसकी विचारवान बुद्धि मृत व्यक्ति से कहती
है- ‘देखो! यही तुम्हारे इस जीवन की, शरीर की वास्तविकता है। तुम्हें खुद सहारे की
जरूरत है, तुम झूठा अहंकार करते रहे कि तुम लोगों को आश्रय दे रहे हो। जिन लोगों के
लिए तुम दिन-रात, धन-वैभव जुटाने में लगे रहे, आज वे ही संगी-साथी तुम्हें वीराने
में ले जाकर अग्नि में समर्पित कर देंगे।’ जीवन का मात्र यही अर्थ है। इसलिए अर्थी
को जीवन का अर्थ बताने वाला कहा गया है। अंत में सभी की यही गति होनी है। मनुष्य का
जन्म इस महान उद्देश्य के लिए हुआ है कि वह लोक कल्याण के कार्यों द्वारा अपने जीवन
को सार्थक कर सके, और सार्थकता तभी हासिल की जा सकती है, जब मनुष्य अपने जीवन के
परम अर्थ को समझ सके। जो व्यक्ति इस अर्थ को समय रहते नहीं समझता, उसे अर्थी पर जाकर
ही जीवन का अर्थ ज्ञात होता है।
जिन्हें मृत्यु याद रहती है, वे व्यक्ति अपना पूरा ध्यान कर्तव्यों के पालन में
लगाते हैं और परमार्थी जीवन जीते हैं, क्योंकि कर्तव्यपालन हमें कभी भी स्वार्थी व
आसक्त नहीं बनाता, बल्कि नित्य-निरंतर हमारे जीवन को लोक कल्याणकारी बनाता है।
कर्तव्यपालन करने वाला व्यक्ति संसार से उसी तरह निर्लिप्त रहता है, जिस तरह कीचड़
में खिला हुआ कमल कीचड़ से निर्लिप्त रहता है। कर्तव्यपालन करने से ही व्यक्ति को
वास्तव में मनुष्य जीवन की गरिमा का बोध होता है। यह बात पूर्णतः अटल सत्य है कि हर
व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है, लेकिन इस संसार में रहकर इस बात का सरलता से भान
नहीं होता कि जो शरीर आज जीवित है, सुख-भोग कर रहा है, उसकी मृत्यु भी हो जाएगी।
इसी कारण यक्ष के द्वारा युधिष्ठिर से यह प्रश्न पूछने पर कि ‘‘इस संसार का परम
आश्चर्य क्या है?’ युधिष्ठिर ने जवाब दिया- ‘मृत्यु।’ इस संसार में नित्य लोग मरते
हैं, लेकिन फिर भी कोई जीवित व्यक्ति यह स्वीकार नहीं कर पाता कि एक दिन उसकी भी
मृत्यु हो जाएगी। मृत्यु का आगमन अघोषित है। इसलिए प्रत्येक दिन अपने कर्मों का
लेखा-जोखा कर लेना चाहिए। कोई नहीं जानता कि किस क्षण में उसकी मृत्यु की घटना छुपी
है। जब जन्म शुभ है तो मृत्यु कैसे अशुभ हो सकती है। महापुरूष मृत्यु के बाद भी
अच्छे कर्मों तथा अच्छे प्रेरणादायी विचारों के रूप में युगों-युगों तक जीवित रहते
हैं।
मृत्यु की इस वास्तविकता से अपरिचित होने के कारण ही मनुष्य इस संसार में तरह-तरह
के कुकर्म करता है और अपने पापकर्मों को बढ़ाता जाता है। इन पापकर्मों की परत इतनी
मोटी होकर उसके मानवीय गुणों के प्रकाश को कैद कर लेती है, उसे उसी प्रकार ढक देती
है, जैसे सूर्य के तेज प्रकाश को बादलों की परतें ढक कर धरती तक नहीं आने देतीं।
कर्मों का भार उसके मन पर कितना बोझिल हो रहा है, इस बात का भान उसे तब होता है, जब
उसका शरीर अर्थी पर चढ़ता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इसलिए जरूरी यह
है कि मनुष्य अपने जीवन के अर्थ को समय रहते ही समझ सके और अपने कर्तव्यों का
निर्वहन करते हुए, लोक कल्याणकारी जीवन जीते हुए, अपने जीवन को सार्थक कर सके
अन्यथा ऐसा सुअवसर दुर्लभ होगा, जब मनुष्य जीवन का अर्थ समझने का पुनः अवसर मिले।
सृष्टि का गतिचक्र एक सुनियोजित विधि व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। ब्रह्ममाण्ड
में अवस्थित विभिन्न नीहारिकाएँ ग्रह-नक्षत्रादि परस्पर सहकार-संतुलन के सहारे
निरन्तर परिभ्रमण विचरण करते रहते हैं। इस पृथ्वी रूपी बगीचे में विभिन्न जाति के
तथा रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं। किराये के शरीर में हम रहते हैं... एक-एक साँस
‘लोक कल्याण’ की पवित्र भावना से अपनी नौकरी या व्यवसाय में खर्च करके इसका किराया
चुकाना है! वर्तमान को सुधारो तो भविष्य सुधरता है जीवन को सुधारो तो मृत्यु सुधरती
है! यह कैसा न्याय है कि हमें धरती अच्छी हालत में मिले लेकिन हम उसे आने वाली
पीढ़ियों के लिए खराब हालत में छोड़कर संसार से चले जाएँ? यह ग्रह हमें अपने पूर्वजों
से उत्तराधिकार में ही नहीं मिला वरन हम इसे अपने बच्चों से भी उधार में लेते हैं!
नये युग में वीरों शौर्य दिखाना है असमंजस्य में पड़कर समय नहीं गँवाना है! जिसने
पहचाना है युग को क्षण भर नहीं गँवाते हैं, समय चूक जाने वाले अंत समय पछताते हैं!
१ अप्रैल २०२३ |