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							२९ हजार फुट वाला विश्व हिम नागरिक
 - गौतम कुमार सागर
 
 
 भाई मैं एमए हूँ। एमए !! नहीं 
पहचाने ब्रो? ब्रो, सिस, जीएम की तर्ज पर तुम्हारी भाषा में मैं खुद को ‘एमए’ कहता 
हूँ। लो, मैं अपना नाम बता देता हूँ, मेरा नाम माउंट एवरेस्ट है। भाई, मुझे इनसानों 
से बड़ी नफ़रत हो गयी है। मुझे आराम से रहने ही नहीं देते। 
 जिसको कोई काम धाम नहीं है, वो चल पड़ता है मुझपर चढ़ाई करने। जिसके कलेजे में 
टीवी, अख़बारों में छपने की आग लगी हुई है, टेड टॉक पर मोटिवेशनल स्पीच देने के लिए 
मरा जा रहा है, वह चल पड़ता है मेरे मस्तक पर चढ़ कर कलेजा ठंडा करने। भाई! तुम 
अपने शहर की आग लगी बिल्डिंगों पर लोगों को बचाने की ट्रेनिंग क्यों नहीं लेते? 
क्यों बीस-पचास लाख रुपये मेरे ठंडे और निर्जन वातावरण में चढ़ने पर बर्बाद करते 
हो। मुझे कुदरत ने इंसानी प्रयोग के लिए नहीं बनाया है। मैं कोई स्कूल या कॉलेज का 
मेडल नहीं हूँ।
 
 मैं पर्वत हूँ, अडिग धैर्य का अनुपम उदाहरण! मैं पृथ्वी के संतुलनकारी शक्ति का 
शिखर हूँ। मगर देखो! हर शहर से पागल पर्वतारोही दौड़े आ रहे हैं, मानो हॉलीवुड की 
अवेन्जर मूवी का कोई फ्री शो चल रहा है। आओ देखो और ज्ञान बाँटो! शोहरत कमाओ, ब्लॉग 
लिखो, किताब लिखो, फिल्म बनाओ, गिनीज़, लिम्का, पेप्सी, लेमन सोडा बुक्स में नाम 
दर्ज करवाओ! मेरे दम पर, मेरे सीने पर अपने बूटों से ज़ख़म देते जाओ। तुम इंसानों के 
लालची सुरसा मुख से प्रकृति को सांगोपांग प्रदूषित कर दिया। जल को गंदा किया, धरती 
को खोद कर खदानों में पाट दिया, हवा में विष घोल दिया, आकाश में ओज़ोन की परत को 
भेद डाला। पिछले कुछ दशकों से उच्च शिखरों पर आरोहण करने की भेड़चाल ने मेरे और 
मेरे कुल के शिखर कुटुंब के धवल, स्वच्छ तन को प्रदूषित कर रहे हो।
 
 भाई मुझपर चढ़ाई करने में जो एनर्जी वेस्ट करते हो वह ऊर्जा अपने इलाक़े के टंकी पर 
चढ़कर उसे साफ करने में क्यों नहीं लगाते. दुनिया में कई काम है जिससे मानवों और 
प्रकृति का भला होगा, वो छोड़ कर जुनूनी लोग युवा तो युवा, बुड्ढे भी सारा काम धाम 
छोड़ कर सैर करने को माउंट एवरेस्ट पर आने लगे है। पशुओं की बेहतरी के लिए काम करो, 
जल संरक्षण की दिशा में काम करो और शरीर में ज़्यादा ही गर्मी है तो बॉर्डर पर जाकर 
दुश्मनों से सामना करो, आतंकियों से दो -दो हाथ करो। लेकिन सेल्फी लेने का जुनून 
जैसे-जैसे बढ़ा रहा है मेरे मस्तक पर बैठ कर सेल्फी लेना आज का नया शगल हो गया है।
 
 दुनिया तो केवल तस्वीर का एक ही पहलू देखती है आज कुछ दूसरा पहलू भी दिखाता हूँ। 
बेशुमार पर्वतारोहियों की संख्या से मेरा कोना-कोना गंदा हो रहा है। जगह-जगह 
नौसिखिए पर्वतारोहियों की लाशें टॅंगी रहती हैं, वर्षों से लावारिस लाशें यों ही 
हिम ममी बन गयी हैं, इनकी मम्मियाँ मुझे कोसती होगी कि मैं हत्यारा हूँ, उनका बेटा 
तो विजेता था। हाल ही में देखो तो इतने लोग आ गये कि इस जनशून्य हिम-प्रदेश में 
ट्रैफिक जाम की स्थिति हो गयी।
 
 एवरेस्ट पर चढ़ने वाले कई ठरकी लोग ऊपर तक पहुँचने के लिए अपने ही हमजोलियों के 
शवों को धक्का देने, उनके ऊपर चलने तक में परहेज नहीं करते हैं। कितनों की 
पत्नियाँ इंतज़ार करती रह जाती है कि उसका पति हिमालय जीत कर आएगा। किन्तु उसकी लाश 
इस ठंडे कब्रिस्तान में वर्षों तक पड़ी रहती है। मेरी चढ़ाई के आखिरी हिस्से में 
पर्वतारोहियों को उस पाँच मीटर की रस्सी को पकड़कर चढ़ना होता है जो उनके शरीर से 
बँधी होती है। जो लोग अपनी जान गवां बैठे थे, उनके शरीर इसी रस्सी से लटके हुए 
हैं।
 
 यह नाम कमाने का कैसा शौक है ब्रो! भगवान ने, कुदरत ने मेरी रचना क्या मनुष्यों की 
सेल्फी पॉइंट के लिए की है। किसी इंसान के घुसने से ना जंगल ख़ुश होता है ना पहाड़। 
किसी को भी अपने घर में घुसपैठिया नहीं पसंद आता है। अगर कुदरत इसका विरोध करें तो 
तुरंत लोग कहने लगेंगे है यह सैलाब क्यों आया, हाय!, यह ओले क्यों गिरने लगे, हाय, 
हाय ! भूस्खलन क्यों हुआ ? भगवान कितना भावहीन है कुदरत कितनी हृदयविहीन है!
 
 मगर दोस्त समझा करो ना ! कुछ साल वसुधा पर आए हो, कुछ अच्छा करो, प्राणियों का भला 
करो, प्रकृति को उसके हाल पर छोड़ दो। प्रकृति को कभी मनुष्य की सहायता की ज़रूरत 
नहीं पड़ी है। कुदरत अपने जख्म खुद भर लेना जानती है। मैं माउंट एवरेस्ट ...सिर 
झुकाकर कहता हूँ, ले लो जितनी सेल्फी लेनी है एकबार में।
 बहुत हुआ !
 अब बस करो।
 मुझ ८८८४ मीटर यानी २९००० फीट वाले हिम –विश्व-नागरिक को अपने हाल पर ख़ुश रहने दो।
 
१ जुलाई २०२३ |