जटायु
का व्यक्तित्व
गुणवंत शाह
जटायु रामायण का मेरा सबसे प्रिय
पात्र है। मुझे राम से भी अधिक प्रिय जटायु है। आजकल हम जिन समस्याओं में से गुजर
रहे हैं उन समस्याओं का समाधान केवल जटायु के पास ही है। यह जटायु कौन है?
जटायु के लिए मैंने इन शब्दों का प्रयोग किया है: 'पर दुःखे उपकार करने वाला
वैष्णवजन'। सीता के अपहरण के समय जब जटायु अपना बलिदान देने के लिए तैयार हुआ था तब
गिद्ध-समाज के व्यवहार कुशल लोगों ने कहा होगा कि 'जटायु! राम और रावण की इस लड़ाई
में तुम क्यों पड़ते हो? ये लोग बहुत बलवान हैं इनमें तुम्हारा पता भी नहीं चलेगा।
कहाँ रावण और कहाँ तुम? जरा विचार तो करो।'
तब जटायु ने बुजुर्गों को उत्तर दिया कि: 'मेरे जीते जी रावण सीता का अपहरण नहीं कर
सकता। मेरे जीते जी यह नहीं हो सकता।' और जटायु लड़ा। गाँधीजी के जाने के बाद इस
समाज की जटायुवृत्ति समाप्त हो गई है। इस समाज का एक ध्रुव वाक्य है कि हम इसमें कर
ही क्या सकते हैं?
गाँधी जी चम्पारण गये। चम्पारण में ऐसा कह सकते थे कि हम अब क्या कर सकते हैं।
बारडोली गये तब भी बोल सकते थे कि हम लोग इसमें क्या कर सकते हैं? यह किसानों की
वसूली का सवाल है तो इसमें हम लोग क्यों पड़ें? ऐसा कहते-कहते ही गाँधी चले गये
होते। अंगेजों के शासन में ऐसा ही था कि अधिकतर लोग कहते थे कि अंग्रेज सरकार से हम
मुकाबला नहीं कर सकते। गाँधीजी ने इसी देश की मिट्टी से वीर पुरुष बनाये। वह समाज
बिल्कुल निस्तेज था। इस समाज के लोगों से गाँधीजी ने जिस तरह काम लिया कि उनमें
जटायु पुनर्जीवित हुआ।
राम अब अयोध्या वापस आते हैं, तब सबसे पहले कैकेयी को मिलने जाते हैं। कैकेयी
अत्यंत क्षुब्ध थी कि मुझसे यह क्या हो गया? चौदह वर्ष के बाद राम आए तब कैकेयी के
लिए तो उन्हें अपना मुँह दिखाना मुश्किल हो रहा था, किन्तु राम स्वयं पहले कहाँ
जाते हैं? कैकेयी के ही भवन में। कौशल्या के भवन में न जाते हुए पहले कैकेयी के भवन
में जाते हैं और कैकेयी भवन में एक आश्चर्य, एक विस्मय उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
कौन-सा विस्मय? लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला, भरत की पत्नी मांडवी और शत्रुघ्न की
पत्नी श्रुतकीर्ति, तीनों वहाँ बैठी हुई थीं। वे सीता की बहनें थीं। राम ने तीनों
को देखा कैकेयी भवन में। इतना आनंद हुआ कि राम के मुँह से निकल पड़ा: 'आज मैं अत्यंत
प्रसन्न हूँ। चौदह वर्षों के बाद तुम लोगों से मिल रहा हूँ। तुम तीनों मुझसे कोई
भेंट कोई उपहार माँग लो। मैं अत्यधिक प्रसन्न हूँ। मुझसे कुछ माँग लो।
पहले उर्मिला की बारी। लक्ष्मण की
पत्नी उर्मिला। तुम कुछ माँगो। जितना मूल्यवान माँग सकती हो उतना मूल्यवान माँगो।'
उर्मिला उत्तर देती है: 'हे राम, आपने चौदह वर्ष तक लक्ष्मण को अपने साथ रखा और
चौदह वर्ष तक लक्ष्मण को जो प्रेम दिया, वह मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार है। मुझे और
कुछ भी नहीं चाहिए।' राम थोड़े निराश हुए कि यह उर्मिला तो कुछ माँगती नहीं। तब
उन्होंने माँडवी की ओर दृष्टि की, माँडवी से कहा, 'तुम मुझे निराश मत करना। तुम तो
कुछ माँगो?' तब माँडवी कहती है: आज अयोध्या की सीमा पर मैंने आपका और भरत का जो
मिलन देखा, आपने भरत को सीने से लगाया, चौदह वर्षों के बाद उनके लिए आँसू बहाए वह
सब मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार है।' राम फिर निराश हुए कि यह भी मेरा कहा मानती नहीं
है। अंत में आशा भरी आँखों से श्रुतकीर्ति की ओर मुड़ते हैं, 'श्रुतकीर्ति, ये दोनों
तो मेरी बात नहीं मानतीं, तुम तो मेरे पास से अवश्य कुछ माँगना।' श्रुतकीर्ति कहती
है 'इन दोनों ने भले ही कुछ न माँगा हो, मैं तो माँगने ही वाली हूँ।' राम खुश हो गए
चलो किसी एक ने तो मेरा कहा माना। राम कहते हैं, 'बोलो, जरा-सा भी संकोच रखे बिना
जो माँगना है वह माँग लो।'
श्रुतकीर्ति कहती है, 'राम, आप
तपस्वी वेश धारण करके वन में गये और चौदह, चौदह वर्ष तक वल्कल पहनकर वनवास भोगा-
आपके वे वल्कल के वस्त्र मुझे चाहियें। वल्कल के वस्त्र मुझे दे दो।' राम कहते हैं,
'अरे ! श्रुतकीर्ति! माँग-माँग के यह वल्कल माँगे? मैंने तो कुछ मूल्यवान माँगने की
बात की थी। यह क्या माँगा वल्कल?' श्रुतकीर्ति उत्तर देती है: हे राम! उन वल्कल के
वस्त्रों को मैं अयोध्या के राजप्रासाद में इस तरह रखना चाहती हूँ कि सब लोग देख
सकें। ताकि भारतवर्ष की आने वाली पीढ़ियाँ इतना तो जान सकें कि रघुवंश में एक राजा
ऐसा हुआ था कि जिसने अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए चौदह वर्ष तक वल्कल के
वस्त्र पहनकर वन में सब प्रकार के कष्ट उठाए। ऐसा एक राजा हो गया। इसलिए ये वल्कल
के वस्त्र चाहिए।' ऐसे राम के देश में हमारा जन्म हुआ
है। थोड़ा उत्तरदायित्व है और यह उत्तरदायित्व 'रामायण' पढ़े बिना नहीं आ सकता।
मैंने एक भी मुसलमान घर ऐसा नहीं
देखा - फिर वह छोटी बैलगाड़ी ही क्यों न हो? जिसमें पूजनीय स्थान पर 'कुरान' न रखा
गया हो। एक भी ईसाई का घर ऐसा नहीं देखा- निर्धन से निर्धन होगा, किन्तु-'बाइबल' न
हो अपने स्थान पर, और कितने ही हिन्दुओं के घर में-'रामायण', 'उपनिषद' तो क्या,
सस्ती साहित्यवर्धक प्रकाशन की आठ आने वाली 'गीता' भी नहीं होती और ऐसे हिन्दू कहते
हैं कि 'हिन्दू होने का हमें गर्व है। खाक गर्व? तुम्हें न तो 'रामायण' से मतलब है
न 'महाभारत' से न 'गीता' से....और 'हिन्दू होने का हमें गर्व है।'
(मूल गुजराती लेख का हिन्दी अनुवाद - गीता जोशी द्वारा)
१४ अक्तूबर २०१३ |