घूरे के
दिन
शंपा शाह
तब कॉलोनी के कचरे का ढेर यानी घूरा कोई ख़ास गन्दी
जगह नहीं हुआ करती थी। उसका आयतन कम हुआ करता था और वह रोज़-रोज़ जलाये जाने वाले
कचरे के कारण ज़मीन पर उठा राख-मिट्टी का एक छोटा-सा टीला हुआ करता था। कुछ-कुछ वैसा
ही टीला जिसके नीचे से उत्खनन कर पुरातत्त्वशास्त्री सदियों पहले के शहर ख़ोज
निकालते हैं। बच्चों की टोली अक्सर वहाँ के फेरे लगाती थी। ख़ासकर, शुरुआती बारिश के
मौसम में। नरम, गीली राख में अंकुरित हो आई आम की गुठली की सीटी बजाने में कितना
आनन्द आता था, उसका बखान करना मुश्किल है।
वहाँ उग आये टमाटर, गिलकी, तुरई, करेले, कद्दू आदि के पौधों को लाकर हम अपने घर के
बगीचों में लगाते और अपनी इस उद्यमिता से ख़ुद अपनी ही नज़रों में चढ़ जाते। गज़ब की
ज़िम्मदोरी, कर्मठता और आह्लाद का अनुभव होता। वह घूरा ही हमारी वनस्पति विज्ञान की
पहली पाठशाला थी जहाँ हमने तरह-तरह के बीजों के अंकुरण को, पहली कोंपल के फूटने को,
पौधे की जड़ के महीन रेशों को बहुत क़रीब से, अपने हाथों में उलट-पुलट कर देखा था।
इसके अलावा खाली माचिस के डिब्बे या पाउडर, बूट पॉलिश, खाली दवात के डिब्बे-ढक्कन
भी घूरे से उठाकर लाये जाते जिनसे फिर तराजू, मेज़-कुर्सी और न जाने क्या-क्या बनता।
हम बच्चों को प्राय: यह भी मालूम होता था कि किसके घर से कौन सा कचरा निकलता है,
मसलन, किसके यहाँ कौन से बिस्कुट, कौन सी चाय, कौन सा साबुन आता है ग्रीन लेबल
डिब्बा दिखा कि समझो शाह साहब के यहाँ का कचरा है!
सुबह का समय था, मैं ग़ुसलख़ाने में थी कि बाहर से दोस्तों की आवाज़ आई, ‘‘जल्दी आओ,
अंग्रेज़ों ने कचरा फेंका है।’’ मिनटों में हम कॉलोनी के आख़िरी मकान के पिछवाड़े
खड़े थे जिसके दुतल्ले में दो अंग्रेज़ लड़कियाँ बतौर पेइंग गेस्ट रहती थीं। वे शायद
विद्यार्थी थीं और अपना शोध कार्य समाप्त कर अपने देश वापस लौट रही थीं। लिहाज़ा,
बहुत-सा कचरा छोड़े जा रही थीं- न जाने कौन-कौन सी चीज़ों के डिब्बे, बोतलें,
प्लास्टिक के फूल, पुराना ट्रांजिस्टर, बैटरी, चप्पल, जूते, कैलेण्डर, हेयर पिन और
न जाने क्या। इनमें से हमारे हिसाब से कुछ भी फेंकने जैसा नहीं था। वो सारा सामान
तो हमारे खिलौनों का हिस्सा बना ही, लेकिन महीनों तक अंग्रेज़ों का फेंका हुआ वह
कचरा हमारी चर्चा का विषय रहा। किसी ने कहा-इनके पास कितना होगा कि वे ऐसी काम की
चीज़ें फेंक देते हैं। इस पर कुछ बड़े बच्चों ने यह बात कही कि अंग्रेज़ हमारे देश को
लूट-लूटकर ही तो इतने अमीर बने। जब शाम का अँधेरा घिरने लगता और खेल बन्द करना
पड़ता तब हम सब इकट्ठा हो चबूतरे पर बैठ जाते और इस तरह की चर्चाएँ निकल पड़तीं।
अंग्रेज़ों की मेरे मन में बनने वाली पहली छवि यही थी कि उनके पास इतना है कि वे काम
की चीज़ें भी फेंक देते हैं!
हाल ही में किसी अंग्रेज़ी अख़बार में पढ़ा था कि अमरीका के पास चूँकि कोई पुराना
इतिहास नहीं है और न कोई प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर। लिहाज़ा वहाँ के वैज्ञानिक कई
शहरों में खुदाई कर इस बात का परीक्षण करने में जुटे हैं कि आज से सौ साल पहले
अमरीकी लोग किस प्रकार का कचरा फेंकते थे? कचरे के विश्लेषण व मानकीकरण द्वारा
अमेरिका के पिछले सौ वर्षों के ज़बरदस्त विकास की कहानी को ठोस साक्ष्यों के आधार पर
लिखा जा सकेगा। बदलाव की तेज़ ऱ़फ्तार देखिये कि कल के जीवन मूल्य आज शब्दश: सिर के
बल उल्टे खड़े हैं।
हम में से प्राय: सभी ने अकबर-बीरबल का वह क़िस्सा पढ़ा या सुना होगा जिसमें अकबर ने
एक शाम घूमने के दौरान लोगों के साफ़-सुथरे, चमकते घरों पर संतोष प्रकट किया और
बीरबल ने उनके इस कथन को चुनौती दी। लिहाज़ा अगले दिन राजा ने मुनादी करवाई कि सारे
लोग अपने-अपने घरों की सफ़ाई करें और कूड़ा अपने घर के बाहर निकालकर रख दें। राजा
स्वयं मुआयना कर सबसे स्वच्छ घर के परिवारजनों को पुरस्कृत करेंगे। ज़ाहिर है लोगों
में होड़ सी मच गई और जो कचरा वर्षों से घर के ओनों-कोनों, तलघरों में अटा था,
निकालकर घर के आगे सजा दिया गया। राजा की सवारी निकली और पूरे शहर का चक्कर लगा एक
झोंपड़ी के आगे खड़ी हो गई। सिपाहियों ने आवाज़ें लगार्इं कि राजा का हुक्म न बजाने
की ज़ुर्रत क्यों कर की गई? थर-थर काँपता एक बूढ़ा और उसकी बिटिया बाहर आये और बताया
कि बहुत कोशिश करने पर भी घर में कोई कचरा नहीं निकल पाया, जो चार चीज़ें घर पर हैं
वे सब काम की हैं। कहना न होगा कि अकबर ने इसी परिवार को पुरस्कृत किया और कूड़े के
बड़े-बड़े ढेर वाले परिवारों की ख़ूब ख़बर ली।
आज कमोबेश यह बताया जा रहा है कि दुनिया की ख़ैर ही इस बात में है कि हम कितना फेंक
सकते हैं। शब्दश: सब कुछ डिस्पोज़ेबल है। यदि आज आपको यह गुमान हो रहा हो कि आपने
बाज़ार में उपलब्ध सबसे नई, सबसे विकसित तकनीक का कम्प्यूटर ख़रीदा है तो यक़ीन मानिये
आपका यह मु़ग़ालता सरासर ग़लत है। कल के अख़बार के सण्डे सप्लिमेण्ट में देखिये, उससे
बेहतर तकनीक के कम्प्यूटर का इश्तेहार छपा होगा और यदि आप इन्टरनेट पर उस कम्पनी की
वेबसाईट पर जाकर देखेंगे जिसका कम्प्यूटर आपने ख़रीदा है तो आपका दिल धक्क करके रह
जाएगा। वहाँ साफ़साफ़ लिखा होगा कि कम्पनी ने उस आइटम-कोड के कम्प्यूटर को जिसे आपने
कल रात नवीनतम मॉडल समझकर ख़रीदा था, बाज़ार से वापस ले लिया है और अब उसकी
ज़िम्मेदारी कम्पनी की नहीं है। कम्पनी अब नया मॉडल लॉन्च कर रही है जिसमें फलाँ
–फलाँ चीज़ें जोड़ी गई हैं।
आप भागे-भागे डीलर के पास जायेंगे, आप उस पर बरसना चाहेंगे कि ऐसे प्रोडक्ट को
नवीनतम कहकर आपको टिका देने की उसकी हिम्मत कैसे हुई जिसे कम्पनी ने वापस ले लिया
है? दुकानदार आपके लिए शीतल पेय बुलवायेगा और बतायेगा कि टेक्नोलॉजी में नवीनतम
जैसी कोई बात नहीं होती। जब कम्पनी एक प्रोडक्ट बाज़ार में उतारती है तब ऐन उस वक्त
उसके पास कम से कम तीन उससे बेहतर प्रोडक्ट पाईप-लाईन में होते हैं। वह कहता है
घबराइये नहीं, एक साल की गारन्टी के दौरान कोई भी गड़बड़ी आने पर वह उसे मु़फ्त
सुधरवायेगा। और वैसे भी कम्प्यूटर की उम्र तीन बरस से ज्यादा नहीं होती। वो तो
हमारे लोग हैं जो धीमे पड़ गये कम्प्यूटरों को भी दस साल तक खींचते रहते हैं। आप
मुँह में कड़वा-सा स्वाद लिये घर लौटते हैं। आपको, अपनी गाढ़ी कमाई से ख़रीदे गये
नये कम्प्यूटर पर बार-बार ‘आउट-डेटेड’ लिखा दिखता है और नींद में आप उसे कबाड़ी के
ठेले पर चढ़ा और ख़ुद को कबाड़ी से दस रुपये और देने के लिए झिक-झिक करते देखते हैं।
ऊपर मैंने जिस स्थिति का बयान किया है उसमें अतिशयोक्ति की एक धुँधली-सी लकीर भी
नहीं है। यह सोलह आने सच है कि आज टेक्नोलॉजी ही सबसे अधिक क्षणभंगुर चीज़ है। कभी
फूल के या कहें सौन्दर्य के क्षण-भंगुर होने पर कवि लिखा करते थे पर आज के कवि के
आगे गुलदस्ते में हाइब्रिड फूल सजे हैं जो कई दिनों तक ताज़ा बने रहेंगे। अब उसके
आगे क्षणभंगुरता के इस नये प्रतीक पर लिखने, उसमें से अर्थ उगाहने की चुनौती आन
खड़ी है।
आप कहेंगे कि यह चन्द शहरों का और उसमें भी एक वर्ग विशेष का क़िस्सा है और यह कि
असल भारत तो आज भी गाँवों में बसता है। आप हमारी प्राचीन संस्कृति की दुहाई देंगे
पर मैं आपके आगे वही प्रश्न दुहराती हूँ जो निर्मल वर्मा ने अपने एक साक्षात्कार
में उठाया था कि आख़िर हम उन गाँवों की और लोक संस्कृति की कब तक दुहाई देंगे
जिन्हें हमने स्वयं मरने के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया है? गाँवों का हाल क्या है
इसे जानने की रुचि या फुर्सत ही किसे है इस विकासशील समय में? वर्ष में इतने
किसानों द्वारा आत्महत्या या इतने पावर लूम्स का बन्द हो जाना महज़ एक आँकड़ा है और
कितने कुम्हारों, जुलाहों, लुहारों के हुनरमन्द हाथ सड़क खोद रहे हैं, ठेला या ट्रक
ड्राइवरी करने पर मजबूर हुए हैं यह तथ्य तो कभी आँकड़ा भी नहीं बन पाता। लेकिन
क्योंकि उनके पास कुछ है ही नहीं और सरकार ग़रीबी उन्मूलन रोज़गार योजनाओं के तहत
(देखें पुस्तक : वी आर पुअर बट मैनी - इला. र. भट्ट) इनसे केवल पथरीली ज़मीन में भर
गर्मियों में गड्ढे खुदवा कर दिहाड़ी देती है जो बरसात में भरकर फिर से पूर जाते
हैं, तो उनके आगे ख़ुद को बचाने, मानवीय गरिमा को बचाने का क्या उपाय शेष रह गया है?
उन्हें बचाने कोई नहीं आने वाला, उनका मिट जाना लगभग तय है। उन्हें केवल चमत्कार ही
बचा सकता है और वो चमत्कार भी स्वयं उन्हें घटित करने होंगे- सूखी नदी, तालाब,
पोखर, बावड़ियों को जीवित करना होगा, रेतीले पठार पर अपने हाथों से जंगल उगाना
होगा, चरागाह बनाने होंगे।
कौन यक़ीन करेगा कि छुटपुट संख्या में ही सही ये
चमत्कार हो रहे हैं? हालाँकि इससे यक़ीन के क़ाबिल कोई दूसरी बात नहीं है क्योंकि इन
चमत्कारों के बारे में मीडिया नहीं स्वयं इला भट्ट तथा अनुपम मिश्र जैसे लोग बता
रहे हैं जिनका समूचा जीवन हुनरमन्द व मेहनती हाथ, आँख और दिमाग़ के धनी लोगों को (जो
आर्थिक व सामाजिक रूप से सबसे पिछड़े और सबसे ग़रीब हैं।) मनुष्य होने की गरिमा से
च्युत दिहाड़ी मज़दूर बन जाने की विवशता से हरसंभव बचाने में लगा है। इला भट्ट की
पुस्तक से इस बात के अद्भुत साक्ष्य मिलते हैं कि कमरतोड़ मेहनत और ग़रीबी के बीच भी
स्त्रियाँ अपने सपनों को सुई और रंगीन धागों से लिख रही हैं। अपने सपनों की इस
लिखावट को रोज़ वे स्वयं पहनती हैं, अपने बच्चों को पहनाती हैं ताकि सूखी धरती पर
कुदाल चलाते-चलाते या बावड़ की कँटीली झाड़ियों से गोंद एकत्रित करते हुए ये सपने
कहीं बिला न जायें।
पहले गुजरात की स्त्रियाँ कपड़े पर क़सीदाकारी करते हुए छोटे-छोटे आभलों (आइने के
टुकड़े) के साथ कौड़ी का भी प्रयोग करती थीं। समय के साथ कौड़ियाँ भी कौड़ियों के
दाम नहीं रहीं लिहाज़ा कोई और वस्तु खोजने की चुनौती सामने खड़ी थी। यदि आप गुजरात
की इन अहीर, हरिजन व रबारी समुदाय की स्त्रियों के कपड़े ज़रा ग़ौर से देखें तो
पायेंगे कि उन्होंने मामूली से सफ़ेद प्लास्टिक के बटनों, रंगीन डोरियों, लेस या
रिबिन आदि के इस्तेमाल से असाधारण सौन्दर्य सिरजा है। जो वस्तुएँ काम में लाई गई
हैं वे सब की सब सस्ती और मामूली हैं, लेकिन उनसे जो सिरजा गया है वह भव्य है। इस
संदर्भ में छऊ नृत्य में प्रयुक्त किये जाने वाले मुखौटों की याद न आना असंभव है।
मुखौटे से जुड़ा हुआ जो बड़ा-सा ताज होता है दरअसल वही चरित्र को उसका ‘‘मोर दैन
लाईफ साईज़’’ आभास देता है। भस्मासुर वध करती दुर्गा की जो विराट छवि मन में उभरती
है वह छऊ नृत्य की दुर्गा की छवि ही है। इन मुखौटों को पास से देखने पर मेरा दावा
है कि आप दंग रह जायेंगे- सस्ते प्लास्टिक के फूल, काँच के मोती, रुपहले-सुनहरे
काग़ज़ की झालरें- क्या इन्हीं से वह भव्य रूप खड़ा होता है?
‘लिटिल बैले ट्रुप’ द्वारा स्वर्गीय श्री शांति वर्धन के निर्देशन में तैयार किया
गया रामायण बैले जिस-जिसने देखा होगा वह उसकी अद्भुत कोरियोग्राफ़ी और संगीत के
अलावा उसमें इस्तेमाल हुई वेशभूषा, मुखौटे, अलग-अलग दृश्यों के लिए बनाए गए परदों
का भी क़ायल ज़रूर हुआ होगा। मेरे आश्चर्य की कल्पना कीजिये जब मैंने उन चीज़ों को
क़रीब से देखा और पाया कि वे सुन्दर रंगारंग पोशाकें, वे परदे सब के सब टाट के कपड़े
को चित्रित कर बनाये गये हैं तथा वे मुखौटे साधारण गत्ते के बने हैं। लिटिल बैले
ट्रुप की वर्तमान निर्देशिका वयोवृद्ध बैले नृत्यांगना एवम् अद्भुत सौन्दर्यदृष्टि
की धनी श्रीमती गुल बर्धन बताती हैं कि ये सारी चीज़ें ट्रुप के कलाकारों द्वारा ही
बनाई गई थीं, इन्हें बनाने के लिए किसी विशेषज्ञ को नहीं बुलाया गया था! रुपये-पैसे
का ज़बरदस्त अभाव था और मंच पर उपस्थित करनी थी पूरी रामकथा। दर्शक को आपके आर्थिक
संकट से क्या लेना-देना? वह तो टिकट ख़रीदकर रामायण बैले देखने आया है उसे तो
राम-सीता की मनोहारीमूरत, केवट के उन्हें सरयू पार कराने वाले प्रसंग की मार्मिकता,
राज्याभिषेक की भव्यता सब चाहिये।
वनस्पति शास्त्र का एक सिद्धान्त है ‘लॉ ऑफ लिमिटिंग फैक्टर’ जिसका लुब्बो-लुबाब
कुछ यूँ है। प्रकाश की मात्रा क्रमश: बढ़ाते जाने पर देखा जाता है कि पौधे में
प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बढ़ने के बजाय धीमी पड़ जाती है। ऐसा इसलिये होता है
क्योंकि उसके लिए ज़रूरी दूसरे कारक मसलन जल या खनिज पदार्थों की अनुपात में कमी हो
जाती है। यानी प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण कारक वह नहीं होता
जिसका आधिक्य है बल्कि वह जिसकी मात्रा न्यून है। क्या इस सिद्धांत के दायरे को
फैलाते हुए यह कहा जा सकता है कि जीवन में अभावों की अपनी और निर्णायक भूमिका होती
है। (निश्चित ही यहाँ मेरा आशय अभावों का महिमा मण्डन करना नहीं है और फिर अभाव भी
सिर्फ़ एक तरह का तो होता नहीं है...।)
आज के समय में, जब कच्चा माल एक देश से प्राप्त होता है, उससे उत्पाद, मसलन कपड़ा
दूसरे देश में पैदा होता है और उसकी खपत किन्हीं तीसरे देशों में होती है तब अपने
आस-पास, अपने पर्यावरण के साथ अन्तर्सम्बन्धों की अन्त:क्रियाओं की या जुड़ाव की
बात अपना अर्थ खोती जान पड़ती है। लेकिन फिर भी घर की खिड़की से दिखते पेड़, मानव
गतिविधियाँ या कि कचरा हमारी स्मृति का हिस्सा तो कुछ हद तक बनते ही होंगे। देश के
उन अंचलों में जहाँ यातायात की सुविधायें नहीं के बराबर हैं वहाँ आज भी आसपास में
उपलब्ध वस्तुओं का प्रभुत्त्व बना हुआ है। यदि वहाँ बाँस बहुतायत में उगता है तो घर
से लेकर घरेलू और बाह्य उपयोग की तमाम वस्तुओं में बाँस का इस्तेमाल देखने मिलेगा।
यदि बाँस नहीं है, सरकण्डे नहीं हैं, सिर्फ़ मिट्टी या पत्थर हैं तो फिर इन्हीं से
घर-द्वार बनेंगे।
जैसा कि पहले ज़िक्र आया था, यदि कौड़ियाँ ग़ायब हो गई और बाज़ार प्लास्टिक के बटनों,
नायलॉन के रिबिन व लेस से भर गया तब इन्हीं का इस्तेमाल करना वाजिब होगा। मन में
आता है कि बटन, रिबिन तक तो ठीक है लेकिन प्लास्टिक की थैलियों, बोरियों, गुटके के
पाउच से कैसे निपटोगे?
दो साल पहले हम गुजरात के कच्छ इलाके के एक गाँव खावड़ा गये थे। वहाँ दुकानों पर
बिकते सुनहरेरूपहले रस्सी के गोले देखे। पूछा तो पता चला कि ये अंकल चिप्स के खाली
पैकेटों को बटकर तैयार की गई रस्सी है जो बेहद मज़बूत है। बाद में इसी रस्सी की बुनी
चारपाइयाँ, सिर पर पानी के बर्तन लाने के लिए इस्तेमाल होने वाली चोमली या चौरी
वहाँ घर-घर में देखी। वहीं, एक घर की दीवार पर टँका चमकता बहुरंगी सूरज भी देखा और
पाया कि वह गुटके के खाली पाउचों को तिकोना मोड़कर और फिर उन्हें आपस में जोड़कर
बनाया गया है। मालवा, मध्यप्रदेश के गाँवों में मेरी बहन राजुला ने देखा कि घरों
में अब कपड़े की जाजम की जगह सीमेन्ट के खाली बोरों को आपस में सिलकर बनी जाजम ने
ले ली है जिस पर बहुधा स्त्रियों ने रंगीन ऊन या धागों से बेल बूटे आँके थे। रेल्वे
स्टेशनों पर कई बार बहुत सुन्दर बैग देखने में आये जो इन्हीं सीमेन्ट या खाद या
शक्कर की बोरियों से बने होते हैं और बोरे की मोटी बिनाई को मैटी के कपड़े या ग्राफ़
पेपर की तरह बरतते हुए स्त्रियाँ रंगीन ऊन के बचे-खुचे टुकड़ों से उनका ऐसा
कायाकल्प करती हैं कि देखते ही बनता है। ये बैग मज़बूत हैं, धोये जा सकते हैं, किसी
भी डिज़ाइनर बैग से अधिक सुन्दर और ज़ाहिर है सस्ते हैं।
कुछ भी सिरजना हो उसके लिए कच्ची सामग्री चाहिये जो सस्ती और आसानी से उपलब्ध होनी
चाहिये क्योंकि अव्वल तो इतना पैसा किसी के पास नहीं है और दूसरे काम कभी-कभार
शौक़िया तौर पर नहीं, हर दिन, हर पल करना है, इसलिए मात्रा भी प्रचुर चाहिये। ध्यान
आता है हमारी नानी महीने का सौदा अन्य दुकानों को छोड़ कारिया मोदी के यहाँ से लाती
थीं क्योंकि वह काग़ज़ के लिफ़ाफ़ों में सौदा भरने के बाद उन्हें जिस धागे से बाँधता था
वह अन्य दुकानों की तुलना में बेहतर क्वालिटी का होता था। घर आकर सौदे को अलग-अलग
डिब्बे बर्नियों में सम्भालते हुए काग़ज़ की थैलियाँ मोड़-मोड़कर अलग रखी जाती और
उनपर लिपटे हुए धागे को एक गिट्टी पर लपेटा जाता। इस तरह से जो धागा इकट्ठा होता,
नानी उससे टेबल क्लाथ और लेस बनाती थीं। उनके हाथों में बला की सफ़ाई थी। उन टेबल
क्लाथों में से दो-एक मेरे पास हैं और मैं गौर से देखने पर भी उन गठानों का पता
नहीं लगा सकती जो उन धागे के टुकड़ों को जोड़ने के लिए लगानी पड़ी होंगी। इसी तरह
फूल की वेणियों के मुरझाने पर, फूलों को हटा उसका धागा भी सम्भाला जाता है। वेणियों
में बिना बटे हुए कच्चे सूत की लच्छी का प्रयोग होता है। इस धागे से उन्होंने एक
मोटी-मोटी संरचना वाले फूलों का थैला बनाया जिसमें फिर अन्दर से गहरे रंग का अस्तर
लगाया गया। यह झोला भी मेरे पास है और उसमें से आज भी मोगरे के वर्षों पहले गुँथे
फूलों की ख़ुशबू आती है। एक वो समय था जब कुछ भी फेंकने का चलन नहीं था और एक आज कि
जब फेंकने में ही शान है। साड़ी फट जाती थी तो उसके मुलायम कपड़े से गुदड़ी बनती,
गद्दों के गिलाफ़ बनते। साड़ी का कपड़ा, विशेषकर कलकत्ते की साड़ी का कपड़ा जब गल
जाता तब भी उसकी किनार या बार्डर जस की तस मज़बूत बनी रहती। उस बार्डर के टुकड़ों को
जोड़कर एक अलग ही कपड़ा तैयार होता जिसे फिर सिलाई मशीन या ट्रांजिस्टर ढकने के काम
में लिया जाता। घर में बच्चों, बड़ों के जो भी कपड़े बनते उनसे बची कतरन से भी बहुत
कुछ बनता था, ख़ास कर बैठने के आसन।
असंबद्ध डिज़ाइन और बेमेल रंग के टुकड़ों में आपसी संगति बिठाना आसान काम नहीं है,
यह मैं आज सोचती हूँ। इन आसनों का प्रत्यक्ष उपयोग तो यही था कि ये बैठने के काम
आते थे लेकिन इनकी अप्रत्यक्ष भूमिका के कई पहलू थे। इनमें लगे कपड़े के अलग-अलग
टुकड़ों को हमने किसी न किसी को पहने देखा था।
स्मृति में इन कपड़ों से जुड़ी कई छवियाँ थीं जो आसनों को देखने पर फिर-फिर बनती
बिगड़तीं। कई बार ऐसे दो रंग जिन्हें हम अन्यथा बेमेल कहते, उन आसनों में बहुत
अच्छे लगते और इस तरह इन आसनों पर रंगों के कई नये संयोजन जन्म लेते थे। यदि उन
टुकड़ों की आपसी संगति में कुछ कमी रह गई होती तो वह आसन के चारों ओर लगने वाली गोट
के कपड़े के चुनाव से पूरी हो जाती थी। गोट के कपड़े के रंग का चुनाव महत्त्वपूर्ण
होता पर इसके साथ-साथ उस कपड़े की मज़बूती बहुत आवश्यक कारक होती। चूँकि ये सभी
कपड़े के टुकड़े पहले इस्तेमाल में लाये जा चुके होते, इसलिये इनके बारे में पूरी
जानकारी उपलब्ध रहतीकिसका रंग कच्चा है, कौन सा कपड़ा जल्दी गलेगा और इस तरह कपड़ों
के बाबत हमारे सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती थी। कभी-कभी तो मुझे लगता कि घर में
नया कपड़ा आने पर नानी की उससे सिली जाने वाली मुख्य वस्तु मसलन किसी का कुर्ता या
स्कर्ट में उतनी रुचि नहीं होती जितनी उससे बचने वाली कतरन का उपयोग करने में!
इसका कारण यह था कि अनायास ही उनके मुँह से निकल जाता कि इसकी किनार ख़ूब फबेगी या
फिर यह कि ऐसा बेकार कपड़ा ले आये, यह किसी के साथ जायेगा ही नहीं! घर में एक समय
पर जो आठ-दस आसन काम में लाये जाते वे सब प्राय: अलग होते और उन्हें लेकर घर के हर
सदस्य की पसंद भी अलग होती। कुछ ही दिनों में तय हो जाता कि अमुक को फलाँ आसन पसन्द
है और फिर अंतत: हर सदस्य का एक ख़ास आसन हो जाता जिसकी ख़बर घरवालों को होती। जब कभी
इस सारे चक्कर से बेख़बर कोई बाहरी मेहमान घर में आता और अनजाने ही उस विन्यास को
गड़बड़ा देता तो उससे उपजने वाली दुविधा लोगों के चेहरे पर पढ़ी जा सकती थी।
किसी-किसी का मसलन हमारे नाना का तो खाना ही ख़राब हो सकता था लिहाज़ा वे कह उठते कि
भाई, फलाना आसन मेरा है, फलाना उसका और तुम वो वाला ले लो! किसे कौन-सा आसन क्यों
विशेष पसन्द था इसके पीछे भी कई कारण हो सकते थे- कोई रंग संयोजन, कोई किनार या
आकार (आसन प्राय: चौकोर अथवा गोल बनते) या फिर कोई स्मृति जो कपड़े से जुड़ी-जुड़ी
अब आसन पर विद्यमान थी!
मैंने यहाँ हमारी नानी के हाथ के बने आसनों की बात की पर मुझे मालूम है कि इस तरह
के आसन, दरी हर घर की स्मृति का हिस्सा होंगे। हमारी दादी का घर चूँकि पहाड़ों में
था लिहाज़ा वहाँ ऐसे आसन, दरी, ऊन के टुकड़ों को बुनकर बनते। आमाजी (दादी) को नया
स्वेटर बुनते मैंने कभी नहीं देखा लेकिन उनकी ज़िन्दगी का ऐसा भी कोई दिन मुझे याद
नहीं जब वे कुछ बुन नहीं रहीं थीं। घर न हुआ, पुराने ऊन का अक्षय पात्र हो गया : न
ऊन कभी ख़त्म होता था न मोज़े-स्वेटर की ज़रूरत। कभी घरवालों के लिये, कभी किसी पड़ोसी
के लिए, तो कभी जमादारनी के लिये। आज यह बेहूदा शब्द ‘जमादारनी’ सुनने में नहीं
आता, यह कितनी अच्छी बात है, लेकिन आज उनके लिए स्वेटर भी शायद ही कोई बुनता होगा।
ज़ाहिर है यहाँ मेरा आशय वर्ण व्यवस्था की गौरव-गाथा बखानने का नहीं है। केवल इतना
कि व्यवस्था कितनी बुरी ही क्यों न हो उसमें एक तरह की तरतीब होती है और जब वह
टूटती है, तब फिर नई व्यवस्था को रूप लेने में बहुत समय लगता है। तब रुपये-पैसे की
बेहद तंगी थी, लेकिन हर दिन की रोटियों में जमादारिन का हिस्सा था, मालिन का हिस्सा
था और गाय का भी हिस्सा था।
घरों में अब पुराना ऊन नहीं है, न पुराने खाली डिब्बे जिन्हें रंग कर और फिर जिनमें
मिट्टी भर कर कोई हजारी या बारामासी का फूल लगा देगा। न चिन्दियाँ हैं, न चिन्दियों
की बनी गुड़िया, गेंद, आसन या गुदड़ी। दम लेने के लिए घड़ी भर भी न रुकते दादी-मौसी
के हाथ नहीं हैं। किसी के पास इस सबके लिए अब समय ही नहीं है। सब कुछ को उठाकर
कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया है। सब कुछ बदल रहा है। सब कुछ बढ़ रहा है। शहर का
आयतन दिन दूना, रात चौगुना बढ़ रहा है। और इसके साथ-साथ गली के मुहाने पर, हर
कॉलोनी को घेरे हुए कूड़े का जो ढेर है, उसका आयतन भी लगातार बढ़ रहा है जहाँ
प्रतिदिन कई टन कूड़ा फेंका जाता है।
२१ जनवरी २०१३ |