भग्वद्गीता की प्रासंगिकता
किरीट जोशी
भगवद्गीता की यह विलक्षणता है कि
विश्व के अन्य महान धार्मिक ग्रंथों से भिन्न वह अपने आप में एक अलग कृति नहीं है।
वह राष्ट्रों और उनके युद्धों तथा मनुष्यों और उनके कृत्यों के महाकाव्यात्मक
इतिहास में एक प्रसंग के रूप में दी गयी है।
इस प्रसंग का केंद्र बिंदु इस
महाकाव्यात्मक इतिहास, महाभारत के अग्रणी पात्रों में से एक की आत्मा का एक
क्रांतिक क्षण है। वह उसके जीवन के एक शीर्षस्थ कर्म का भी क्षण है, जहाँ उसका
सामना एक ऐसे कार्य से है जो भीषण, हिंसात्मक और रक्तरंजित है और उसके आगे एक संगीन
विकल्प प्रस्तुत है कि या तो वह उससे बिलकुल पीछे हट जाए अथवा उसे कठोरता से कर
गुजरे। परिस्थिति की संगीनता इस महान् अग्रणी, अर्जुन को कुछ ऐसे गहनतम प्रश्नों को
उठाने के लिए बाध्य करती है जिनका गहनतम स्तर पर उत्तर अनिवार्य हो जाता है। इसलिए
भगवद्गीता में जो उत्तर हमें मिलता है वह न केवल सामान्य दर्शन अथवा नैतिक सिद्धांत
की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि उससे व्यावहारिक संक्रांति और मानव जीवन के प्रति
उच्चतम ज्ञान के अनुप्रयोग में भी दिग्दर्शन मिल सकता है।
पहले से अधिक प्रासंगिक
आज भी पढ़ने में भगवद्गीता लगभग उतनी ही ताजी और अपने यथार्थ तत्व में अभी भी बिलकुल
नूतन-जैसी ही लगती है। कारण है कि उसका मानव जीवन के उच्चतम महत्व के प्रश्नों के
साथ सीधा संबंध है। वह अत्यंत चरम और संपूर्ण अनुभूति को मानव के जीवन और कर्म की
बाह्य वास्तविकताओं के प्रति प्रयुक्त करने का प्रयास करती है। एक अर्थ में गीता की
प्रासंगिकता उस समय से ही, जब वह पहले पहल प्रकट हुई अथवा महाभारत की रचना में
सन्निहित कर लिखी गयी, तब से ही निरंतर रही है। किंतु इसका विचार करते हुए कि हम आज
गंभीर और अभूतपूर्व संक्रांति में से गुजर रहे हैं और इस महान ग्रंथ पर नयी नजरों
और अप्रतिरोध्य चिंता के साथ दृष्टि डालने को बाध्य हैं। कभी-कभी यह कहा जाता है कि
आज हमें जो कुछ भी करना आवश्यक है वह सब गीता में प्राप्य है। यह हमारे विचार से,
एक अतिशयोक्ति है और यदि हमने अक्षरशः इस दृष्टिकोण को अपनाया तो वह पुस्तक में
अंधविश्वास को प्रोत्साहित करेगा।
नये अनुभवों की ओर
गीता के निष्पक्ष अध्ययन से पता चलेगा कि उसमें एक अत्यंत समृद्ध और बहुआयामी विचार
निहित है। वह नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के विभिन्न पक्षों का एक समन्वित बोध प्रकट
करती है। हमें कुछ ऐसे उच्चतम संभव अनुभवों तक ले जाती है जो मानव मनोविज्ञान के
सामर्थ्य में हैं। उसमें चेतना की चरम स्थितियों और जीवन के संघर्षों को हम सदैव
अपने आपको पाते हैं
जीवन का युद्ध
जिस परिवेश में गीता का उपदेश प्रस्फुटित होता है वह विशिष्ट है। परिवेश युद्ध की
भूमि, कुरूक्षेत्र का है, जो जीवन का युद्ध भी है। वह युद्ध जिसका सामना हम अपने
जीवन में करते हैं, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से, अपने ही समय में। युद्ध का वीर
नायक अर्जुन महान विश्व संघर्ष का प्रतिनिधि मानव है। वह कर्म की उस मानव आत्मा का
प्रतीक है जिसे उस कर्म के द्वारा उसकी उच्चतम और सर्वाधिक हिंसात्मक संक्रांति के
सामने लाया गया है। संक्रांति जहाँ स्वयं मानव जीवन के सभी मानदंड व्यर्थ हो जाते
हैं। जहाँ किसी भी कीमत पर कर्म का एक नया आधार खोजना अनिवार्य हो जाता है। जिस
संक्रांति ने अर्जुन को ग्रसित किया था वह हममें से किसी पर भी आ सकती है। यदि हम
समकालीन परिस्थिति का परीक्षण करें तो हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि किस प्रकार
हम स्वयं ही उस संक्रांति के चंगुल में फँसे हुए हैं। संभवतः हमारे संकट में आयाम
और भी गहरे और विस्तृत हैं।
अर्जुन को ज्ञात था
कभी-कभी यह सुझाया गया है कि अर्जुन की संक्रांति इसलिए उत्पन्न हुई क्योंकि अपने
कर्त्तव्य का सामना होने पर उसे ऐसी भावनाओं और धारणाओं का दबाव महसूस हुआ,
जिन्होंने उसे अपने कर्त्तव्य से मुँह मोड़ने और सांसारिक व्यवहारों और कर्मों से
सन्यास के सिद्धांत का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया। यह अर्जुन के संकट का गलत
पठन होगा। यह नहीं कहा जा सकता कि अर्जुन को अपना क्षत्रिय धर्म अथवा एक योद्धा के
रूप में अपना धर्म ज्ञात नहीं था। वास्तव में अर्जुन की संक्रांति मानव मानस के
द्वारा खड़ी की गयी समूची बौद्धिक और नैतिक इमारत के ढह जाने से उत्पन्न हुई। अर्जुन
को यह ज्ञात था कि उसका कर्त्तव्य लड़ना है, पर जब उसके मानस में वह कर्त्तव्य एक
भीषण पाप बन जाए तब क्या हो? वह महसूस करता है कि जिससे उसकी अंतरात्मा घृणा करती
है, उससे उसे दूर रहना चाहिए।
कृष्ण के उत्तर: सामाजिक कर्त्तव्य
श्री कृष्ण ने जो उत्तर प्रस्तुत किया, उसके दौरान हम उन सभी को एक के बाद एक
प्रस्तुत किया गया पाते हैं। एक उत्तर आर्य योद्धा के धार्मिक सिद्धांत द्वारा
आरोपित सामाजिक कर्त्तव्य के पालन का है। दूसरा उत्तर आध्यात्मीकृत नैतिकता का है
जो अंहिसा पर, अक्षतिकारिता पर, वध न करने पर बल देता है। इस उत्तर के तर्क के
अनुसार, युद्ध, यदि उसे लड़ा ही जाना है तो, आध्यात्मिक स्तर पर और एक प्रकार के
अप्रतिरोध द्वारा अथवा भाग लेना अस्वीकार करके लड़ा जाना चाहिए। वह अहिंसा अथवा
आत्मिक प्रतिरोध का आश्रय लेकर युद्ध में भाग लेने का समर्थन भी कर सकता है।
(अध्याय 16.2 में श्री कृष्ण ने अहिंसा को दैवी संपदाओं में से एक माना है)। यह हो
सकता है कि आत्मिक में प्रतिरोध बाह्य स्तर पर सफल न हो पाये और अन्याय का बल जीत
जाए तो भी, तर्क यह होगा कि व्यक्ति ने फिर भी अपने सदाचार को सुरक्षित रखा। उसने
अपने उदाहरणों के द्वारा उच्चतम आदर्शों को उचित ठहराया। एक तीसरे संभावित उत्तर
में व्यक्ति आंतरिक आध्यात्मिक दिशा के और अधिक आग्रही सिरे का समर्थन कर सकता है।
गीता सामाजिक कर्त्तव्य के पालन का आग्रह करती है-उस मनुष्य के लिए जिसको सार्वजनिक
कर्म में अपना हिस्सा लेना आवश्यक है। वह अहिंसा को उच्चतम आध्यात्मिक-नैतिक आदर्श
के हिस्से के रूप में स्वीकार करती है। वह संन्यासी के त्याग को भी, यदि समस्या के
समाधान का नहीं, तो उससे बाहर निकलने के एक मार्ग के रूप में एक प्रभावकारी साधन
मानती है। गीता दृढ़तापूर्वक इन सभी परस्पर विरोधी स्थितियों से आगे जाती है। वह
सारे जीवन का औचित्य आत्मा के प्रति ठहराती है, और संपूर्ण मानवीय कर्म तथा ज्ञान
एवं चेतना की उच्चतम अवस्थाओं के साथ प्रतिसंयोग में व्यतीत किये गये, संपूर्ण
आध्यात्मिक जीवन की सुसंगति का दावा करती है।
अर्जुन के तर्क
सर्वप्रथम, अर्जुन ने तर्क दिया कि वह जीवन के उस उद्देश्य को अस्वीकार करना चाहेगा
जो उपभोग और सुख खोजता है।
दूसरे, उसने घोषित किया कि वह उस उद्देश्य को भी रद्द कर देगा जो विजय, शासन, शक्ति
और मनुष्यों पर आधिपत्य प्राप्त करना चाहता है-जो उद्देश्य सत्ता तथा कर्म के
पुरुष, क्षत्रिय के लिए भारतीय धर्म में वर्णित है।तीसरे, उसने उस नैतिक तत्व को भी
अस्वीकार कर दिया, जो युद्ध की संपूर्ण तैयारी का प्रमुख स्रोत था। इस संबंध में
उसके तर्कों का सार निम्नलिखित रूप में दिया जा सकता है:
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(अ) जो युद्ध प्रारंभ होने जा
रहा है उसमें वास्तव में कौन-सा ’न्याय‘ निहित है? उसने पूछा, क्या वह स्वत्व,
उपभोग और शासन के लिए उसका अपना, अपने भाइयों का, और अपने पक्ष का स्वार्थ नहीं
था? और यदि यह मान भी लिया जाए कि ये उद्देश्य न्यायोचित थे तो, उसने प्रश्न
उठाया कि, उस न्याय को पाने के लिए साधन कौन-से होंगे ? क्या उसका अर्थ यह नहीं
होगा, उसने पूछा कि सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के सही भरण-पोषण की बलि दे दी
जाए, जो जाति के संबंधीजनों के रूप में युद्धस्थल में उसके विपरीत खड़ा है ?
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(आ) तर्क की एक अन्य दिशा की
ओर मुड़कर अर्जुन ने अनुभव किया कि यदि यह मान भी लिया जाए कि सुख और जीवन
वांछनीय हैं तो भी वे ऐसे तभी हैं जब वे अन्य सभी के साथ, विशेषकर ‘हमारे अपने
लोगों’ के साथ बाँटे जाएँ। किंतु यहाँ, अर्जुन ने दलील दी, ‘हमारे अपने लोगों’
की हत्या की जानी है और सारी पृथ्वी के लिए तथा तीनों लोकों के राज्य तक के लिए
ऐसा कौन है जो उनकी हत्या करने के लिए राजी होगा?
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(इ) इस अवस्था पर, अर्जुन ने
एक और भी अधिक मूलभूत आपत्ति नियोजित की। उसने घोषित किया कि हत्या एक पाप है।
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(ई) एक बार फिर अर्जुन एक और
नैतिक विचार ले आया। यदि एक पाप कर्म किया भी जाना है और यदि किसी-न-किसी तरह
उसका औचित्य भी ठहरा दिया जाए तो भी यदि उसकी परिणति कुटुंब की नैतिकता,
सामाजिक नियम, राष्ट्रीय विधान के विनाश में होती है तो उसे न्यायसंगत कैसे
माना जा सकता है?
इन तर्कों ने अर्जुन को यह घोषणा
करने के लिए प्रेरित किया कि वह युद्ध नहीं करेगा। पर अर्जुन ने, जो सबसे अधिक
हितकर बात की वह थी, गहरी विनम्रता के साथ परामर्श के लिए श्री कृष्ण से कुछ ऐसे
निश्चित शब्दों की माँग की, जिससे उसका मोह दूर हो सके और वह सही रूप से कर्म करने
में समर्थ हो सके। और श्री कृष्ण की सहायता अचूक थी।
२६ अगस्त २०१३ |