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दृष्टिकोण

हिंदी एक सशक्त भाषा
डॉ. शील भूषण

भारत न केवल क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से विशाल देश हैं बल्कि हमें इस बात पर भी गर्व हैं कि हमारे देश में लगभग १६५२ विकसित एवम समृद्ध बोलियाँ प्रचलित हैं। इन बोलियों का प्रयोग करने वाले विभिन्न समुदाय अपनी -अपनी बोली को महत्त्वपूर्ण मानने के साथ-साथ उसे बोली के स्थान पर भाषा कह कर पुकारते हैं और समझते हैं कि उनकी बोली में वे सभी गुण विद्यमान हैं जो किसी भी समर्थ भाषा में होने चाहिये। कुछ बोलियाँ ऐसी हैं भी।

ऐसी स्थिति में स्वतंत्रता आन्दोलन के युग में सम्पूर्ण देश के लिए एक संपर्क भाषा का चयन करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था।सम्पूर्ण देश अपनी दासता की जंजीरों को तोड़ फेंकने के लिए तो संगठित था परन्तु एक संपर्क भाषा की अनिवार्यता अनुभव करते हुए भी इस प्रश्न पर सहमति नहीं हो पा रही थी कि विभिन्न प्रादेशिक भाषाओ में से किसे सम्पूर्ण देश के लिए संपर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त किया जाए।

गहन विचार-विमर्श करने के उपरान्त स्वतन्त्रता-सग्राम में जुटे हुए लगभग सभी प्रमुख नेता इस निष्कर्ष पर पहुचे कि हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा हैं जो सम्पूर्ण देश के लिए सफल संपर्क भाषा सिद्ध हो सकती हैं। उन्होंने अनुभव किया कि हिंदी भाषा देश के अधिकांश भूभाग में बोली और समझी जाती हैं, इसी भाषा में अधिकांश देशवासी अपने विचार अभिव्यक्त करते हैं, इस भाषा के साथ लोगों का भावनात्मक सम्बन्ध है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो उन्हें लगी वह यह थी कि हिंदी की अपनी स्वतंत्र लिपि है - देवनागरी लिपि - जो श्रेष्ठ वैज्ञानिक लिपि है और अपनी विशेषताओ के कारण सर्वगुण नागरी है।

यही कारण रहा कि हमारे संतों, विद्वानों, मनीषियों, और राजनीतिज्ञों ने देश की सभी बोलियों को समान महत्त्व देते हुए हिंदी भाषा को सम्पर्क भाषा के रूप में अपनाना उचित समझा। कुछ स्वार्थी तत्वों ने उत्तर और दक्षिण का प्रश्न उठा कर दक्षिण भारत पर हिंदी थोपने का दुष्प्रचार किया परन्तु जब उन्होंने देखा कि हिंदी के प्रति सजगता हिंदी - भाषी क्षेत्रों से आधिक अहिन्दी - भाषी क्षेत्रों में है तो उन्हें चुप हो जाना पड़ा। कितने सुखद आश्चर्य की बात है देश में सबसे पहले हिंदी में एम.ए.कक्षा के अध्ययन- अध्यापन की व्यवस्था कोलकाता विश्विद्यालय में हुई। जिसकी स्थापना श्री आशुतोष मुखर्जी ने की थी, देश में सबसे पहले व्यक्ति जिन्होंने हिंदी में एम.ए.  की परीक्षा पास की -- श्री नलिनी कान्त सान्याल महोदय थे जो बंगाल के थे। स्वतंत्रता - प्राप्ति के उपरान्त हिंदी को राष्ट्र - भाषा का सम्मान दिया गया!  हमारे सविंधान - निर्मातायों ने अनुच्छेद ३५१ के अंतर्गत हिंदी भाषा के विकास के लिये विशेष निर्देश दिए -----

“संघ का यह कर्त्तव्य होगा वह हिंदी भाषा का प्रसार बढाये, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किये बिना हिन्दुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में निर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली, पदों को आत्मसात करते हुए और जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषायों से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।”

हमारे सविंधान में स्पष्ट निर्देश होने पर भी देश की सरकार की हिंदी के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति रही। राष्ट्र - भाषा घोषित किये जाने पर भी हिंदी के स्थान पर अँगरेजी को ही वर्चस्व मिलता रहा समाज के प्रभावशाली वर्ग द्वारा हिंदी को हेय दृष्टि से देखा जाता रहा परन्तु सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति और समाज के प्रभावशाली वर्ग द्वारा हेय दृष्टि से देखे जाने पर भी हिंदी अपने बलबूते पर अपनी आंतरिक शक्ति के कारण निरंतर आगे बढती रही है और अनेक बाधाओं से टकरा कर प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हुई है।

हिंदी को बेचारी और असहाय कहने की परम्परा अब टूट चुकी है। हिंदी एक सशक्त भाषा के रूप में उभर कर सामने आई है हिंदी आज भारत की ही नहीं बल्कि विश्व की एक महत्तवपूर्ण भाषा के रूप में अपने आपको स्थापित करने में सफल रही है।

अँग्रेजी के उन कुछ समर्थक महानुभावों को मुँह की खानी पड़ी है जिन्होंनें हिंदी को राष्ट्रभाषा के सम्मानीय पद के अयोग्य सिद्ध करने में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि की कुछ काल्पनिक त्रुटियों और दुर्बलताओं की ओर संकेत करके उन्होंनें ऐसा भ्रमजाल बुनने का कुप्रयास किया था--- कि बेचारी हिंदी को राष्ट्रभाषा का जो महत्त्वपूर्ण दायित्व सोंपा गया है, उसका वहन करने में वह असमर्थ है। अब यह सिद्ध हो चुका है कि उन महानुभावों के कथन पूर्वाग्रहग्रस्त थे, उनमें तनिक भी सच्चाई न थी। अँग्रेजी के प्रति उन महानुभावों का झूठा मोह था और उस मोह के वशीभूत वे अपने देश की अपनी भाषा हिंदी का अपमान कर रहे थे।

अपमान सहते हुए, अपनों के द्वारा ही दीन - हीन कहलाते हुए भी हिंदी अपने विश्वास भरे क़दमों से आगे बढती रही और विश्व की समृद्ध भाषायों में स्थान पाने के लिए प्रयासरत रही ! आज स्थिति यह है कि विश्व की उन्नत, समृद्ध और सशक्त भाषायों की पंक्ति में वह अपना सर ऊँचे किये खड़ी है। हमारे प्रबुद्ध राजनेताओं ने विश्व - मंचों से हिंदी भाषा में अपने विचार, भाव एवम उद्गार व्यक्त करके सिद्ध कर दिया है कि यह भाषा एक समर्थ एवम सशक्त भाषा है

जहाँ तक हिंदी में उपलब्ध साहित्य का प्रश्न है, हिंदी का साहित्य किसी भी भाषा के साहित्य के मुकाबले में कम नहीं है। कबीर, तुलसी,सुर, जायसी, बिहारी, देव, घनानंद, गुरु गोबिंदसिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रासद, पन्त, निराला, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, अगेय आदि कवियों की रचनायों ने यह सिद्ध कर दिया है हिंदी में अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत शक्ति है। आज तो स्थिति यह है की कविता, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना, जीवनी, डायरी, रिपोर्ताज आदि साहित्यिक विधायों के माध्यम से हिंदी भाषा समृद्ध हो चुकी है और हो रही है। हिंदी साहित्य सम्पूर्ण विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

जहाँ तक तकनीकी विषयों के अध्ययन और अध्यापन का प्रश्न था या देवनागरी लिपि में मुद्रण और टंकण की कुछ समस्यांए थी, प्रारंभ में कुछ कठिनाईयाँ अवश्य आईं परन्तु धीर -धीरे उन कठिनाईयों पर भी विजय पा ली गयी है। वास्तविकता तो यह है कि हिंदी भाषा तो अपने आप में समृद्ध, वैज्ञानिक, सशक्त, सरल, सहज मधुर, कर्णप्रिय, जीवंत तथा विचारों और भावों को, उद्गारों एवम संवेदनाओं को सुंदर एवम प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करने में समर्थ है, कमी है हम भारतवासीयों में आत्मविश्वास की। हम स्वयं हीन भावना से ग्रस्त हैं और आरोप मढ़ते है अपनी भाषा हिंदी पर। हमारे अनेक नेता और प्रतिनिधि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रयोग करते हुए लज्जा का अनुभव करते हैं। हमारे साधू और संत भी विदेशों में जाकर अँग्रेजी में ही प्रवचन करने में गर्व अनुभव करते है, भले ही वे भारत के मूल निवासियों के समक्ष प्रवचन कर रहे हों। विदेश में जाने पर एक साधारण भारतीय भी टूटी - फूटी और अशुद्ध अँग्रेजी का प्रयोग करके अपने आपको धन्य समझता है।

विदेश में ही क्यों, हम अपने देश में रहते हुए भी अँग्रेजी को सामाजिक एवम आर्थिक उच्च स्तर का प्रतीक मानते हैं और यह कह कर आनन्दित होते हैं कि हमारे बच्चे को बस हिंदी नहीं आती, शेष विषयों में और विशेष रूप से अँगरेजी में बहुत प्रवीण है। हमारी यही मानसिकता हिंदी भाषा का अपमान करने के लिए उत्तरदायी है। वस्तुस्थिति यह है कि कुछ मुठ्ठीभर लोग अँग्रेजी को महत्त्व देकर सभी क्षेत्रों में अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं और जनसाधारण के मन में यह गलत धारणा बैठा कर कि अँग्रेजी श्रेष्ठ है और अँग्रेजी का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के मुकाबले में श्रेष्ट है, अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं।

हमारा अँग्रेजी तथा विश्व कि किसी अन्य भाषा से कोई द्वेष नहीं है, हमें उन्हें अवश्य सीखना चाहिए, उनके समृद्ध साहित्य का आस्वादन करना चाहिए, उनमें उपलब्ध तकनीकी ज्ञान के भण्डार को आत्मसात करना चाहिए परन्तु साथ ही साथ हमें अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी का समुचित सम्मान करना चाहिए और प्रयास करना चाहिए कि विश्व की अन्य भाषाओं में प्राप्य उपयोगी सामग्री को हिंदी भाषा में पूर्ण आदर के साथ ग्रहण किया जाए।

अपने ही देश के कुछ स्वार्थी एवम संकुचित मनोवृति से ग्रस्त राजनेता हिंदी और अहिन्दी भाषी क्षेत्रों का कृत्रिम विवाद खड़ा करके अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकना चाहतें है जबकि वास्तविकता यह है कि विभिन्न प्रादेशिक भाषाएँ बहनों के समान हैं, उनमें किसी प्रकार का वैमनस्य है ही नहीं। हिंदी बड़ी बहन है जिसका अन्य सहोदाराएँ सम्मान करती हैं।

आज आवश्कता है जनसाधारण की मानसिकता बदलने की, उच्च पदों पर आसीन प्रभावशाली महानुभावों के दृष्टिकोण को बदलने की और देशवासियों में आत्म -सम्मान के भाव जागृत करने की और उन्हें यह अनुभूति कराने की कि अपना राष्ट्र और अपनी राष्ट्रभाषा सर्वोतम है।
अपनी भाषा है भली, भलो आपना देश,
अपना सब कुछ है भला, यही राष्ट्र -सन्देश।

१० सितंबर २०१२

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