क्या बाल साहित्य में ’भूत की कहानियों‘ का कोई स्थान
है? क्या बच्चों को भूत-कथाएँ पढ़ने देना चाहिए? इससे कहीं उनमें अंधविश्वास,
कुसंस्कार एवं मृत्युपरांत जीवन के अस्तित्व के संबंध में आस्था तो नहीं पैदा हो
जाएगी? जब चारों ओर पत्र-पत्रिकाओं में कम्प्यूटर, राकेट और रोबोट को लेकर विज्ञान
की ही ध्वजा फहराई जा रही है, तब उनके कोमल मन के आगे भूत-कथाएं परोसना- क्या उचित
होगा? इन प्रश्नों पर विमर्श को आगे बढ़ाने के पहले एक सीधा-सा सवाल- क्या बच्चों
केवल तथाकथित ’शिक्षाप्रद‘ कहानी ही पढ़नी चाहिए? निर्मल आनंद के लिए जो साहित्य है-
उससे वे वंचित ही रहें? ’कवि की कैफियत‘ में रवींद्रनाथ ने उपनिषद की वाणी को यों
उद्धत किया हैः ’हर वस्तु की उत्पत्ति आनंद से ही है। उसी से सब जीते हैं, सबकी
यात्रा उसी की ओर है...।‘
तो, मन की खिड़कियाँ खुली रहें। हर तरफ से वीर, हास्य, करूण, भयानक और अद्भुत आदि
रसों से सिक्त रहस्य-रोमांच के आनंद रूपी धूप को आने दिया जाए। भूत-भावन से जब
गुरेज नहीं, तो बेचारे भूत से क्यों? अगर काल्पनिक ’भूत चरित्र‘ से (स्वस्थ)
मनोरंजन होता है, तो उसे वाङ्मय में कहानी की मर्यादा देने में कंजूसी क्यों?
जिन्हें केवल ’सत्यकथा‘ पढ़नी है, उनके लिए अखबार है, साहित्य नहीं। दादी, नानी की
उंगली पकड़कर लोककथाओं से जिस भूत कथा की यात्रा आरंभ हुई, आर्थर कानन डायल और
सत्यजित राय जैसे लेखकों के हाथों वर्तमान जीवन के सुख-दुख को अपने में समेटते हुए-
उनमें रंग-बिरंगी चूड़ियों भरे ’कलाईस्कोप‘ की तरह नाना रंग खिलने लगे हैं। विषय एवं
कहानी-रस की दृष्टि से इनका निम्न वर्गीकरण संभव है-
लोककथा:
ये दादी, नानी द्वारा सुनाई गई कहानियां हैं। अब तो
हमारे गांवों से यह रस भंडार लुप्त हो चला है। बांग्ला में दक्षिणारंजन मित्र
मजुमदार ने साहित्य के रूप में इन्हें संग्रहीत कर रखा है दादी की झोली संग्रह में।
एक राक्षसी रानी परदेसी राजकुमार को खा जाना चाहती है। रानी के कहने पर राजा उसे
तरह-तरह से प्रताड़ित करता है। रानी के प्राण एक तोते में हैं। राजसभा में राजकुमार
तोते का पैर मरोड़ देता है, तो रानी राक्षसी का रूप धारण कर लंगड़ाते हुए उसे खाने
दौड़ती है...इसमें पाठक मन में यह प्रश्न पैदा नहीं होता कि यथार्थ में राक्षसी है
या नहीं, बल्कि राजकुमार का कष्ट एवं शौर्य ही बाल-हृदय को गर्म-जोशी से सराबोर कर
देता है...
विदेशी लोककथा:
रूसी कवि पुश्किन अपनी दाई से परीकथाएँ सुना करते थेः
’क्या गजब की हैं ये कहानियाँ ! हर एक अपने में एक कविता है।‘ रूसी लोक कथाएँ
(संग्रह) में बुढ़िया डाइन बाबा येगा किसान के बेटे योद्धा इवान को राह बतलाती है।
मुर्गी के पर इनकी कुटिया घूमती रहती है...।
’सिपाही और मौत‘ कहानी में भूतपूर्व सैनिक बड़ी चालाकी से भूतों को अपने थैले में
बंद करके लोगों को मुक्ति दिलाता है। भूतों का सरदार झोले के अंदर से चिल्लाता है-
’मुझे नहीं मारो, सिपाही दादा! मत पीटो। यह हर इच्छा पूरी करने वाली झोली है। तुम
कोई चिड़िया पकड़ना चाहते हो, या कोई चीज हासिल करना चाहते हो, बस, झोली को हिलाकर दो
शब्द कहो- ’चल अंदर‘ और वह चीज अंदर पहुंच जाएगी।‘ बच्चों को लगता है- काश! ऐसी
झोली मुझे मिल जाती, तो मैं भी गणित के नंबर...।
ए. पोमेरांतसेवा ने भूमिका में लिखा हैः ’जुल्म और अत्याचार के विरूद्ध लड़ने वाले
नायकों का जीवन चरित्र परियों की कहानियों के बिल्कुल अनुरूप है। यह लड़ाई कभी भयानक
सांप से, कभी दुष्टा जादूगरनी से लड़ी जाती है। इन कहानियों में मनुष्य के सुखद सपने
ही व्यक्त किए जाते हैं।‘ अपौरूषेय होते हुए भी अलाउदीन के चिराग का ’जिन्न‘ किस
कथा-रस-लिप्सु बाल पाठक के लिए अपरिचित है? तो हम क्यों ’वैज्ञानिक दृष्टिकोण‘ की
बलिवेदी पर इनकी कुर्बानी दें?
पाप-पुण्य को केंद्र में रखकर टालस्टाय ने अनेक कहानियां रची हैं। ’भूत और रोटी के
टुकड़े‘ में एक थका-हारा किसान जब खाने जाता है तो देखता है कि उसकी मामूली रोटी का
टुकड़ा भी गायब है, वह ’गरियाता‘ नहीं बल्कि संतोष कर लेता है- जिसने ली होगी उसकी
जरूरत ज्यादा है। उसे पाप के पंक में ढकेलने के लिए शैतान के चेले भूत ने चोरी की
थी, पाप की हार होती है। भूत एक फटेहाल किसान बनकर उसके यहाँ नौकरी करने लगता है।
उसकी सलाह से किसना अमीर बन जाता है और शराब पीकर मदांध होकर बीबी को मामूली बात पर
डांटता है तथा एक भूखे किसान को दावत से भगा देता है।
रहस्य रोमांचः
भूत कथाओं में इसी का प्राधान्य है। सत्यजित राय से
लेकर अनेक लेखकों ने इस विधा पर हाथ आजमाया है। महेश भट्ट एवं रामगोपाल वर्मा ने
ऐसी कहानियों पर फिल्म निर्माण भी किया है। स्वाभाविक है कि ये सभी बच्चों के लिए
उपयुक्त नहीं हैं। इन कहानियों का ’क्लाइमैक्स‘ बहुत ’ट्रैजिक‘ हो जाता है। अरस्तू
के कैथार्सिस में इनका अंत होता है। जैसे डब्ल्यू. डब्ल्यू जैकब की कहानी ’मंकीज़
पॉ‘ में एक बूढ़े दंपति को बंदर का एक पंजा मिल जाता है। इसे हाथ में लेकर जो माँगा
वही मुराद पूरी हो गई, लेकिन इसके लिए उन्हें बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी। बेटे की
जान की कीमत पर उन्हें धन की प्राप्ति हुई।
इसी तरह मोपासां की कहानी ’हाथ‘ में एक अहंकारी अंग्रेज अफसर ने अपने ड्राइंग रूम
में जंजीरों में जकड़कर एक काले आदमी का कटा हुआ हाथ टाँगकर रखा है। यह उसके अहं का
प्रतीक है। वह उससे खौफ भी खाता है। रात में हंटर से उसे पीटता है। आखिर एक रात दम
घुटने से उसकी मौत होती है। वह हाथ गायब है। एक अनुत्तरित सवाल रह जाता है- क्या
उसी हाथ ने अपना प्रतिशोध लिया? इस कहानी को साम्राज्यवाद विरोधी कहना शायद बहुत
ज्यादा अलंकृत करना होगा। फिर भी इसमें हुकूमत के दंभ एवं खौफ के साथ कहीं से
आक्रोश एवं प्रतिवाद की सुगबुगाहट भी है...। भय भूत कथा में डर का तत्व न हो तो
’मजा‘ नहीं आता। ब्राम स्टोकर का ’ड्रेकुला‘ इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। जानवरों
का खून चूसने वाले चमगादड़ों से इंसान का खून चूसने वाले काउंट चरित्र का सृजन हुआ।
बाणभट्ट की आत्मकथा में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
ने भयानक एवं रौद्र रस का यह मिश्रण प्रस्तुत किया हैः (वज्रतीर्थ श्मशान में) ’नभो
मंडल से विकटाकृति कटपूतनाएं और भैरवियां उतरतीं,... पोरूओं के चंड रव के समान
विचित्र जय-जयकार से दिङ्मंडल उत्तंभित होता रहा और विकराल-वदन पिशाचों के अस्थि
करताल से अंधकार फटता रहा।...‘
भयानक रस की अति हो जाए तो वह वीभत्स हो जाता है। इन्हें साहित्य के दायरे में रखना
शायद उचित नहीं होगा। इनमें आकर्षण नहीं होता, इनसे जुगुप्सा होती है।
प्रेत: भूत
इन कथाओं में प्रेम की भी कमी नहीं। मशहूर जासूस
शार्लक होम्स के स्रष्टा सर आर्थर डायल की अनूठी कहानी (थॉथ मंदिर की अँगूठी) का
पर्दा १६०० ई.पू. प्राचीन मिश्र के मंदिर में उठता है। पुजारी का बेटा सोसरा होनहार
एवं विद्धान है। वह अमरत्व की औषधि का आविष्कार कर लेता है। वह और उसका परम मित्र
पार्सन दोनों इसका सेवन करते हैं। इस बीच गवर्नर की परम सुंदरी बेटी आत्मा से सोसरा
को प्यार हो जाता है। यहाँ ’आत्मा‘ नाम का महत्व एवं उसकी विडंबना हम ’हिंदवासी‘ ही
समझ सकते हैं। पार्सन भी आत्मा को चाहता है। इधर श्वेत प्लेग का प्रकोप फैलता है।
निर्भय सोसरा रोगियों की सेवा करता है। वह आत्मा से कहता है- ’अमरत्व की औषधि पी
लो।‘ वह नकार जाती है- ’ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध क्यों जाना चाहते हो?‘ अंततः
आत्मा और एक रात सोचने के लिए समय चाहती है। सुबह तक काफी देर हो चुकी थी। आखिर उसे
रेगिस्तान में दफनाया गया। पार्सन सोसरा को दुत्कारने लगा- ’तुमने उसे मरने क्यों
दिया?‘ सोसरा उसे समझाने का व्यर्थ प्रयास करता है। वह जाते-जाते कहता है- ’मैंने
अमरत्व खत्म करने की दवा ईजाद कर ली है। मैं मरकर आत्मा से मिल जाऊँगा। तुम्हें उस
दवा के बारे में कुछ न बताऊँगा। अभागा सोसरा हाहाकार करने लगता है। उसे पता चलता है
कि वह दवा थॉथ की अँगूठी में रखी है। इतिहास करवटें लेता रहता है। अभागा सोसरा चार
हजार साल तक अपनी मौत को ढूँढता हुआ-कभी गुलाम तो कभी मजदूर बनकर अफ्रीका से अमरीका
तक भटकता फिरता है। अंततः लुवर के म्यूजियम में उसे उसकी प्रेयसी की ममी मिलती है।
उसकी उँगली में वह अँगूठी है। वह जहर को होठों से लगाता है और आत्मा को सीने से जकड़
लेता है...
रवींद्रनाथ की कहानी ’कंकाल‘ एक बाल विधवा की मर्मांतक मृत्युगाथा है। पति से उसे
प्रेम नहीं मिला, सिर्फ डरती थी। विधवा हुई तो भाई के पास भेज दी गई। युवती हुई, तो
भाई के दोस्त डाक्टर को मन ही मन चाहने लगी। डाक्टर उससे ब्याह रचाने का साहस न कर
सका। उसकी शादी अन्यत्र तय हो गई युवती उसे जहर देकर, खुद दुल्हन की तरह शृंगार
करके जहर खा लेती है। इस कारुणिक कथा में विधवा जीवन की मर्म-वेदना के साथ-साथ समाज
के रीति-रिवाजों पर भी एक तीखा सवाल है।
तिलिस्म या जादू :
इनमें घटनाओं की कोई व्याख्या नहीं होती। सब कुछ
अकस्मात हो जाता है। फिर भी कहानी धड़ल्ले से दौड़ती है। विद्वज्जन इन्हें आधारहीन
साहित्य की संज्ञा देते हैं। देवकीनंदन खत्री का उपन्यास चंद्रकांता संतति इसका
जबर्दस्त उदाहरण है। रोलिंग के हैरी पॉटर में भी तिलिस्म का ही जाल है।
आधुनिक भूत कथा:
इनमें भूत चरित्र आते तो हैं, परंतु संपूर्ण आधुनिक
संदर्भ में। मुख्य कथानक का आधार वर्तमान समाज ही है। हैरी पॉटर के स्कूल में एक-एक
हाउस मानीटर भूत हैं। वे अदृश्य रहकर बच्चों को चिढ़ाते हैं। ’क्विडिज‘ खेल में
बच्चे झाड़ पर सवार होकर उड़ते हैं। इस किशोर उपन्यास में बच्चों की हमदर्दी अनाथ
हैरी के साथ है। उसे घर में भी सौतेला वातावरण मिला हुआ है। अंततः हैरी अपने
दोस्तों के सहारे, बुद्धि एवं साहस के बल पर समस्याओं का समाधान भी ढूँढ लेता है।
यहाँ डाइन होती है या नहीं, अथवा उड़न-झाडू है या नहीं- ये प्रश्न गौण हैं।
सत्यजित राय की ’गगन चौधरी का स्टूडियो‘ में करूण, भयानक एवं अद्भुत रस की त्रिवेणी
बहती है। बॉस नगेंद्र कपूर के अचानक गुजर जाने पर सुधीन की पदोन्नति हो गई। वह एक
नए फ्लैट में चला गया, मगर रात में सामने के मकान से उसके कमरे में रोशनी आने के
कारण वह ठीक से सो नहीं पाता। शिकायत करने पहुंचा तो उसने देखा- वह वयोवृद्ध गगन
बाबू का स्टूडियो है, वह नियोनार्दो द विंची की तरह लोगों के पोर्ट्रेट बनाते हैं।
सुधीन ने देखा, दीवार पर जितनी भी तस्वीरें टँगी हैं- वे सब हाल ही में मृत लोगों
की हैं। ’क्या मरने के पहले वे पोर्ट्रेट बनवाने यहाँ आए थे?‘ - ’नहीं!‘ तो? सुधीर
घबरा गया। इनकी तस्वीरें कैसे बनीं कैसे? तभी रात के बारह बजे, स्टूडियो में
नगेंद्र कपूर आ पहुँचा। गगन चौधरी ने शाल के अंदर से हाथ निकालकर कहा- ’जिस हाथ से
उन्हें बुलाया, उसी हाथ से चित्र बनाया।‘ वह हाथ कंकाल का है... इस बेगाने शहर में
एक सर्जक का एकाकीपन, अपनी कला में पारंगत होने के बावजूद स्वीकृति न मिलना- यही तो
इस कहानी का उपजीव्य है, बस!
अपने लेख ’साहित्य-विचार‘ में रवींद्रनाथ कहते हैं:
’मानव जीवन के संबंध ही साहित्य की प्रधान विशेषता हैं।‘ इन कहानियों में अगर
इंसानी संबंध, उनके सुख-दुख, उनकी आशा-आकांक्षाएं प्रतिबिंबत होती हैं- तो ये भी
साहित्य कहलाने के अधिकारी क्यों नहीं?
हास्य:
जोरू की खिचपिच से परेशान नाई जंगल में चला गया। एक
भूत उसे पकड़ने आया, झट से उसने आइना निकालकर कहा- ’देख, मैंने एक भूत को पकड़ रखा
है। अब तू मिल गया, तो दोनों का तेल निकालकर मालिश करने के लिए राजा को दूंगा।‘ भूत
उसका गुलाम बन जाता है। यहाँ एक ’मजेदार‘ बात उल्लेखनीय है। ’देसी‘ भूतों की छाया
तो शीशे में उभरती है, पर ‘गोरे भूतों’ की नहीं।
मार्मिक भूत कथा:
हेंस एंडरसन की ’माँ की कहानी‘ में एक अभागिन माँ
मृत्युलोक से अपने बेटे वापस लाना चाहती है। मृत्यु के बाग में-एक-एक फूल में एक-एक
बच्चे के प्राण हैं। उसके बेटे का जीवन जिस फूल में हैं- वह उसे चाहती है, वरना
दूसरे फूलों को नष्ट कर देगी। लेकिन वे भी तो किसी के लाल हैं। अंततः वह ईश्वर की
इच्छा के आगे आत्मसमर्पण कर देती है।
भूत-काव्य-मंजूषा:
कविता भी भूतों से अछूती नहीं है। रामायण, महाभारत से
लेकर मानस-अशरीरी सर्वत्र विराजमान हैं। अपने दादा उपेंद्र किशोर की रचना पर आधारित
सत्यजित राय की फिल्म ’गोपी गवैया बाघा बजैया‘ में भूतों का ’सुपरहिट‘ संगीत है। अब
उनके पिता सुकुमार राय की कविता ’भूतहा खेल‘ की झलक देखें- बिना चश्मे के मैंने
देखा, हुई परसों जब रात/भूतनी खेल रही भूत संग, चाँद ने दी सौगात।
रंगमंच:
’कब मिलेंगी तीन बहनें फिर? गरजेगा बादल? चमकेगी बिजली? या बरसेगा नभ से नीर?‘
(’मैकबेथ‘) नाटक की तीन डाइनें तो सूत्रधार की भूमिका निभाती हैं। ’टेंपेस्ट‘ का
सारा कर्मकांड भूतों के सहारे चलता है।
फासीवाद पर विजय की चालीसवीं वर्षगांठ पर रीगन बिट्सबर्ग की नाजी कब्र पर फूल चढ़ाने
गए थे। इस घटना को लेकर बंगला पत्रिका गणनाट्य (८ मई-जुलाई १९८८) प्रकाशित हिंदी
नाटक ’भूत भगाओ‘ (ले. अमिताभ शंकर) में हिटलर का भूत युद्धोन्माद फैलाता है।
साम्राज्यवाद एवं युद्ध का विरोध ही इसका प्रमुख स्वर है, भूत का अस्तित्व नहीं।
तुलसीदास ने शिव जी की बारात के बारातियों का वर्णन करते हुए लिखा- कोउ मुखहीन
बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू। हमें तो बस इनके साथ जाकर कथानंद रूपी
मिठाई खानी है। हिमालय ने बेटी के विवाह की कोई वीडियोग्राफी तो नहीं करवाई थी, कि
हम तुलसी से इनके अस्तित्व का प्रमाण मांगें।
रवींद्रनाथ के शब्दों में-’साहित्य का व्यक्ति मनुष्य मात्र नहीं है। विश्व का हर
पदार्थ साहित्य में प्रकट हो सकता है। इसीलिए व्यक्ति, जीव-जंतु, पेड़-पौधे, नदी,
पर्वत, सागर, अच्छाई, बुराई वास्तविक वस्तुएं, कल्पना की चीजें- सभी व्यक्ति
हैं...साहित्य में (इनके) व्यक्त होने के लिए रचनाकार के जिस गुण की आवश्यकता
है...वह है उसकी कल्पनाशीलता एवं रचना।
१९ नवंबर २०१२ |