दृष्टिकोण
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विश्व
बाज़ार और हिन्दी
-विजय
कुमार |
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भाषा की निर्मिति हमेशा ही
बाज़ार में हुई है। बाज़ार में कुछ ख़ास ज़रूरतों के तहत
मनुष्य एक दूसरे से जुड़ते हैं। उनके संबंध विकसित होते हैं।
भाषा के रूप बनते हैं। बाज़ार में भाषा चीज़ों को परिभाषित
करती है, चीज़ें भाषा को परिभाषित करती हैं। गाँव की हाट से
जिले की मंडी तक, जिला मंडी से प्रांतीय बाज़ार तक और वहाँ से
राष्ट्रीय बाज़ार और अन्तर्राष्ट्रीय नेटवर्क तक बाज़ार के
विकास के साथ-साथ मनुष्य संबंधों की अनेक स्तरीय यात्राएँ भी
हैं। ये यात्राएँ बोलियों के परम्परागत रूप से प्रांतीय
भाषाओं तक की यात्राएँ हैं। बाज़ार बदलते रहते हैं और भाषा भी।
मनुष्य व्यवहारों के साथ भाषा हर क्षण बदलती रहती है। उसकी
यह गतिशीलता ही उसकी जीवन्तता है।
पिछले एक दशक में पूँजी के असीम विस्तार और संचार साधनों के
अभूतपूर्व विकास ने विश्व बाज़ार और आर्थिक भूमंडलीकरण की जो
भूमिका रची है, उसमें मुनाफा आधारित उत्पादन प्रणाली को
दुनिया के नये बाज़ारों की ज़रूरत है। बंद दरवाजे खुल रहे हैं।
सीमाएँ टूट रही हैं, प्रतिबंध समाप्त हो रहे हैं। शीतयुद्ध की
समाप्ति के बाद बीसवीं सदी के अंतिम दशक में बदली हुई राजनीतिक
स्थितियों और संचार उपकरणों में आयी क्रांति ने देशों के बीच
भौगोलिक दूरियों और राष्ट्रीय सीमाओं को अप्रासंगिक बना दिया
है। नयी बाज़ार संस्कृति इस आर्थिक भूमंडलीकरण का एक अनिवार्य
हिस्सा है। विश्व बाज़ार अब तक स्वायत्त रहे समाजों और
संस्कृतियों के रहन-सहन, भाषा-भूषा, दैनिक जीवन, आचरण और
मूल्य-बोध का अपने तरीके से अनुकूलन कर रहा है।
आर्थिक भूमंडलीकरण की
सांस्कृतिक प्रक्रिया का सबसे प्रमुख लक्षण यह दिखाई देता है
कि उपभोग सामग्री के रूप में विश्व संस्कृति के प्रतीक सारे
संसार पर हावी हो रहे हैं। इन प्रतीकों को बनाने और
प्रचारित-प्रसारित करने में मीडिया की अभूतपूर्व ताकत का
विलक्षण तरीके से उपयोग हो रहा है। स्थानीय और राष्ट्रीय
संस्कृतियों का जनता के एक बड़े समूह के लिए बड़ा भावनात्मक
अर्थ होता है, जबकि ग्लोबल-संस्कृति में ऐसी किसी जातीय
स्मृति की अपील नहीं है। स्थानीय संस्कृति अपने भूगोल और
समय से बंधी होती है, जबकि ग्लोबल-कल्चर पर ऐसे कोई दबाव
नहीं हैं। यह एक विशृंखलित, समयहीन, विजडि़त संस्कृति है जो
किसी भी भौगोलिक संदर्भ के बाहर खड़ी है। माकेल जैकसन या
मैडोना का कोई संदर्भ संसार नहीं है : कोका कोला या
मैकडॉनॉल्ड को बेचने वाले चरित्रों की देश-काल पर आधारित छवि
नहीं है। ये सारी चीजें वास्तविक संसार के भीतर एक
स्वैरकल्पना का संसार रचते हुए उसमें वास्तविकता के अर्थों
को आरोपित करती हैं।
विज्ञान और
छवियों का खेल इस नयी बाज़ार संस्कृति का मूल अस्त्र है। यह
बाज़ार लोगों के भीतर स्वप्न और इच्छाएँ जगाता है। उनके
भीतर सामानों से जुड़ी हुई नयी जरूरतें पैदा करता है। यह सारे
संसार में एक समान व्यावसायिक जीवन शैली, रहन-सहन, खान-पान,
सौंदर्य चेतना और मूल्य बोध की एकरूपता पैदा कर रहा है।
मुनाफा कमाने की इस रणनीति में सांस्कृतिक रूपों की एक नयी
गतिशीलता तैयार हो रही है। व्यवसाय और संस्कृति एक ही
सिक्के के दो पहलू बन गये हैं। वास्तुशिल्प, विज्ञापन,
फैशन, संगीत, फिल्म, खेल जगत, घटनाएँ, भव्य आयोजन, पूँजी
प्रचार अभियान के क्षेत्र में इस नये छवि-संसार को देखा जा
सकता है।
बाजार विस्तार की यह रणनीति स्थानीय विविधताओं या बहुलताओं
में विश्वास नहीं करती पर अपनी प्रभावोत्पादकता बढ़ाने के
लिए स्थानिक तत्वों को अपने भीतर आत्मसात करती जा रही है।
एक तरफ उन्नत संचार प्रणालियों और बहुराष्ट्रीय निगमों के
छवि निर्माण विभागों द्वारा सांस्कृतिक वर्चस्व का अभियान
चलाया जा रहा है और दूसरी ओर इस विश्व बाज़ार का स्थानिक
सांस्कृतिक तत्वों की गतिशीलता के बिना काम भी नहीं चलता।
स्थानीय भाषाएँ इन अर्थों में विश्व बाज़ार के लिए
महत्वपूर्ण साधन बन गयी हैं। ये भाषाएँ भूमंडलीय उपभोक्ता
संस्कृति को स्थानीय परिवेश में आरोपित करने की भूमिका
निभाती हैं। इस तरह स्थानीय संस्कृति भूमंडलीय संस्कृति के
रूपाकारों को अपना रही है, वहीं
भूमंडलीय संस्कृति भी अलग-अलग
भौगोलिक परिवेशों में वहाँ के तत्वों के मिश्रण से अपना चोला
बदल रही है। जियो-पॉलिटिकल और जियो-कल्चरल नक्शे भविष्य में
अर्थहीन होते जाएँगे।
विश्व बाज़ार की इस सांस्कृतिक पीठिका को सामने रखकर हमारे
अपने देश के संदर्भ में हिन्दी भाषा से उसके बनते हुए संबंधों
को देख जाना चाहिए। विश्व बाज़ार के सांस्कृतिक पहलुओं को
भारतीय समाज की अंदरूनी तहों में प्रवेश कराने में हिन्दी की
एक बहुत विशिष्ट भूमिका बन गयी है। हमारे यहाँ लगभग १०० करोड़
की आबादी में १८ करोड़ लोगों की मातृभाषा हिन्दी है, ३० करोड़
लोग इस भाषा का उपयोग दूसरी भाषा के रूप में करते हैं। ऐसा कहा
जाता है कि लगभग २२ करोड़ लोग किसी न किसी रूप में हिन्दी
भाषा के सम्पर्क में आते ही हैं। अर्थात् १०० करोड़ की आबादी
में यदि ७० से ७५ करोड़ लोग एक ही भाषा के व्यवहार से जुड़ते
हैं तो वह भाषा स्वाभावत: बाज़ार शक्तियों के इस्तेमाल के
लिए एक प्रभावशाली उपकरण
बन जाती है। संख्या के हिसाब से यह विश्व में तीसरे स्थान
पर मानी जाती है।
पिछले एक दशक के दौरान जब विदेशी कंपनियाँ व्यापार के लिए
हमारे यहाँ आयीं तो उनका हमारी देशी भाषाओं के साथ एक खास
स्तर पर सम्मिलन होने लगा - हिन्दी के साथ विशेष तौर पर
बाहरी सांस्कृतिक संदेश चोला बदलकर हमारे समाज की अंदरूनी
तहों में उतरने लगे। ९० के दशक में हॉलिवुड के एक बड़े फिल्म
निर्माता स्टीफन स्पिलबर्ग ने जब अपनी बहुचर्चित फिल्म
''जुरासिक पार्क'' को हिन्दी में डब किया तो वे जैसे कि एक
कारपोरेट रणनीति के लिए नये दरवाजे खोल रहे थे। ''जुरासिक
पार्क'' हिन्दी में ''डब'' होकर देश के छोटे-छोटे कस्बों और
गाँवों तक पहुँच गयी। इसके पहले किसी विदेशी फिल्म ने भारत
में इतना मुनाफा नहीं कमाया था। रूपर्ट मर्डोक जब स्टार टीवी
लेकर भारत में आये तो उनकी सबसे बड़ी प्राथमिकता यही थी कि सभी
तरह के कार्यक्रम हिन्दी में तैयार किये जाएँ। यहाँ सिर्फ
देशी भाषा में अनुवाद की बात नहीं थी, बल्कि उससे एक कदम आगे
बढ़कर विदेशी सांस्कृतिक छवियों को देशी मिजाज के अनुकूल
गढ़ना था। स्टार टीवी ने अंग्रेजी कार्यक्रमों के माध्यम से
भारत के शिक्षित वर्ग तक पहुँचने के लिए उसके पास कोई देशी
मिजाज की सामग्री नहीं थी। ५ प्रतिशत से कम की दर्शक रेटिंग
किसी विदेशी टीवी कार्यक्रम का इतना आर्थिक आधार नहीं बनाती कि
प्रायोजक विज्ञापन लेकर उस कार्यक्रम की तरफ दौड़ें।
परिणामस्वरूप स्टार टीवी ने न केवल समाचारों और विदेशी
कार्यक्रमों को हिन्दी में दिखाना शुरू किया बल्कि उसने पॉप
संगीत के देशी संस्करण भी बना डाले। थोड़े ही अर्से के भीतर
हिन्दी में की ढब में ढले ये पश्चिमी कार्यक्रम मूल अंग्रेजी
कार्यक्रमों से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे। बीबीसी और
डिस्कवरी चैनल अपने कार्यक्रमों को हिन्दी में भी प्रसारित
करने लगे। आज लगभग सभी प्रमुख चैनलों पर
बहुतायत हिन्दी कार्यक्रमों की
है।
यह विश्व बाज़ार का हिन्दी भाषा के साथ बनने वाला एक नयी तरह
का संबंध है। पिछले एक दशक में साबुन और टूथ पेस्ट जैसी
सस्ती सामग्री से कहीं आगे जाकर अब उपभोक्ता विज्ञापन मोटर
साइकिल, कार फ्रिज, टीवी, वाशिंग मशीन, महंगी प्रसाधन
सामग्रियों, कीमती वस्त्रों, बचत और निवेश की योजनाओं आदि के
लिए भी हिन्दी में बन रहे हैं। भागलपुर, बाराबंकी या भरतपुर
में किसी सड़क के चौराहे पर अब आप वाशिंग मशीन या फ्रिज के
हिन्दी में बनी होर्डिंग्स देख सकते हैं। भारत में उपभोक्ता
वस्तुओं के बाज़ार का विस्तार हो रहा है। उपभोक्ता वस्तुएँ
प्रांतीय राजधानियों और प्रथम श्रेणी के शहरों से आगे निकलकर
मध्यम दर्जे के शहरों, नींद में अलसाये कस्बों और दूर-दराज
के गाँवों तक पहुँच रही हैं। छोटे-छोटे कस्बों में ब्यूटी
पार्लर खुल रहे हैं। रेबेन के चश्मे पहने कस्बाई युवक इतरा
रहे हैं। दूसरे दर्जे के रेल यात्रियों के लगेज की शक्लें बदल
रही हैं। दूर-दराज के इलाकों में बैंकों के क्रेडिट कार्ड और
'एटीएम' सेंटर खुल रहे हैं।
एक अध्ययन
के अनुसार भारत में ३० करोड़ का मध्यमवर्गीय उपभोक्ता बाज़ार
मौज़ूद है जो दुनिया के बहुत सारे देशों की आबादी से कहीं अधिक
बड़ा है। हिन्दी के घोड़े पर सवार उपभोक्ता बाज़ार महानगरों
की सीमाओं से बाहर निकल रहा है। कुछ वर्ष पहले सार्वजनिक
क्षेत्र की एक अखिल भारतीय वित्तीय संस्था ने ७०० करोड़
रूपये के अपने बांडो का देशभर में विज्ञापन किया था। एक संसदीय
प्रश्न के जवाब में उसे यह बताना था कि ४० करोड़ रूपये के
प्रचार बजट को उसने कितना अंग्रेजी में खर्च किया है, कितना
हिन्दी में। स्वयं वित्तीय संस्था के उच्च अधिकारियों को
इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं थी। विज्ञापन एजेंसी से जब विस्तृत
सूचना माँगी गयी तो कुछ दिलचस्प आँकड़े आमने आये। तथ्य यह था
कि एक आक्रामक बाज़ार रणनीति के तहत धुआँधार रेडियो, टेलिविजन,
प्रचार होर्डिंग, समाचार पत्रों के विज्ञापन और हैंड बिलों के
माध्यम से प्रचार राशि का ७० प्रतिशत हिस्सा हिन्दी और
अन्य भारतीय भाषाओं पर ख़र्च किया गया था और केवल ३० प्रतिशत
अंग्रेजी।
यह सब उस
विज्ञापन एजेंसी ने बिना किसी सरकारी राजभाषा आदेश के स्वयं
अपनी व्यावहारिक बाज़ार रणनीति और अपने ग्राहक सर्वेक्षण के
आधार पर किया था। आज उपभोक्ता सामग्री बनाने वाली बहुत सी
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वस्तुओं के साथ दिये जाने वाला
लिटरेचर हिन्दी में भी छाप रही हैं। पर यह तस्वीर का एक पहलू
है। विश्व बाज़ार की शक्तियों द्वारा भारत में एक माध्यम के
रूप में हिन्दी का यह इस्तेमाल भारतीय समाज में परिवर्तन की
मूलगामी शक्तियों के बारे में हमें आश्वस्त नहीं करता। बल्कि
इस सारी प्रक्रिया में हिन्दी भाषा की एक विडम्बनात्मक
स्थिति को ही हमारे सामने उजागर करता है। यह बाज़ार शक्तियों
द्वारा हिन्दी भाषा की सामाजिक सम्प्रेषण की अन्तर्निहित
क्षमताओं का अपने ढंग से अनुकूलन करना है। यदि वास्तव में
बाज़ार शक्तियों के साथ हिन्दी का विकासपरक संबंध बन रहा होता
तो हिन्दी भाषा बाज़ार के तकनीकी पहलुओं के साथ भी उतनी ही
तीव्रता से जुड़ रही होती।
यह सर्वविदित है कि विश्व बाज़ार में कम्प्यूटर, इन्टरनेट,
वेब साइट और सेल फोनों की एक अहम् भूमिका है। मुंबई, बेंगलौर,
न्यूयार्क, लंदन, तोक्यो, दुबई, सिंगापुर, क्वालालम्पुर,
सिडनी और ब्यूनआयर्स के प्रभावशाली लोगों की एक ही भाषा है।
इनके पास आर्थिक और राजनीतिक ताकत है। ये लोक एक
कॉस्मोपालिटन, वैश्विक उपभोग मूलक विश्व संस्कृति के
नुमाइन्दे हैं। सोनी, मर्डोक, एमटीवी, मैकडॉनॉल्ड, सीएनएन,
मित्सुबिशी, फिलिप्स, लेवीस, नैस्ले, माइक्रोसॉफ्ट, इन्टेल
जैसे विशाल निगमों का सारा कार्य व्यापार अंग्रेजी के माध्यम
से हो रहा है। सच्चाई यह है कि इस नये सूचना समाज की यह १
प्रतिशत आबादी सारे संसार की ९९ प्रतिशत आबादी को नियंत्रित
करती है। शेष ९९ प्रतिशत आबादी जो कम्प्यूटर शिक्षित नहीं
है, जो बढि़या अंग्रेजी नहीं बोल सकती, जो इन्टरनेट, वेब
साइटों और सेल्युलर फोनों का इस्तेमाल नहीं कर पा रही, वह न
सिर्फ इस नये शासक वर्ग से नियंत्रित है, बल्कि वह इस नये
ग्लोबल इलेक्ट्रानिक
बाज़ार के फायदों से भी वंचित है।
भारत विश्व बाज़ार की टेक्नॉलाजी से जुड़ तो रहा है पर केवल
अंग्रेजी के माध्यम से। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की इन
आधुनिक संचार साधनों में कोई उपस्थिति नहीं है जबकि विडम्बना
यह है कि ९५ प्रतिशत भारतीय जनता हिन्दी और अन्य भारतीय
भाषाओं के माध्यम से ही अपनी दैनिक जरूरतों को पूरा करती है।
दुनिया की एक बटा छह प्रतिशत आबादी का 'सूचना युग' और आधुनिक
संचार प्रणालियों से कटे रहना न सिर्फ भारत की राजनीतिक,
सामाजिक और तकनीकी स्थितियों के बारे में सवाल खड़ा करता है,
बल्कि यह विश्व बाजा़र के लिए भी एक चुनौती बन जाता है। दूसरी
ओर यह बात भी बेहद
महत्वपूर्ण है कि गैर-अंग्रेजी सॉफ्टवेयर के विकास का मसला
सिर्फ एक तकनीकी निर्णय नहीं है, यह भारतीय समाज की राजनीतिक
सांस्कृतिक जटिलताओं से भी सीधे जुड़ा हुआ है।
इस समय विश्व बाज़ार में ८० प्रतिशत सॉफ्टवेयर पैकेज अमरीकी
कंपनियों द्वारा बनाये जाते हैं। उनका लक्ष्य समूह अंग्रेजी
में व्यवहार करने वाला ग्राहक रहा है। लेकिन स्थानीय
आवश्यकताओं के अनुरूप इन सॉफ्टवेयर कार्यक्रमों का विश्व का
अन्य भाषाओं में स्थानीयकरण भी किया गया है। यूरोप की कई
प्रमुख भाषाओं जैसे फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, नोर्वेजियन,
फिनिश और स्वीडिश में ये सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं। बल्कि
इन्हें प्रयोग करने की सुविधा केटालॉन, रेहटो-रोमन भाषा और
आइसलैंडिक जैसी अपेक्षाकृत कम प्रमुख भाषाओं में भी उपलब्ध
है। फाएरो द्वीप समूह की भाषा के लिए भी ऐसे साफ्टवेयर उपलब्ध
हैं, जबकि वहाँ की कुल आबादी केवल ३८ हजार है। अमेरिकी
कंपनियों के ये सॉफ्टवेयर कज़ाक या उज़्बेक भाषाओं के लिए भी
उपलब्ध हैं। नार्वे की उत्तरी पहाडि़यों में रहने वालों के
लिए विन्डोज़ एनटी का स्थानीय संस्करण तैयार किया गया है पर
बिहार या उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के लिए ऐसा कोई कार्यक्रम
हाथ में नहीं लिया गया । सॉफ्टवेयर पैकेजों का अधिकांश भारतीय
भाषाओं में स्थानीयकरण नहीं किया गया है, जबकि हिन्दी बोलने
वालों की संख्या ही आज विश्व में तीसरे स्थान पर है।
हिन्दी लगभग उतनी बोली जाती है जितनी अंग्रेजी या स्पेनिश
बोली जाती है। इस स्थिति
के लिए क्या कारण हो सकते हैं?
अमरिकी कंपनियों द्वारा विकसित सॉफ्टवेयरों को यहाँ की
स्थानीय भाषाओं में न ढाल पाने का एक बड़ा कारण तो आर्थिक ही
है। काई भी सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनी किसी स्थानीय विशेषता के
अनुरूप सॉफ्टवेयर तभी बनायेगी जब उस उत्पाद के लिए बाज़ार
उपलब्ध हो या भविष्य में उस माँग के बनने की संभावना उसे
दिखती हो। भारतीय भाषाओं में सॉफ्टवेयर पैकेजों की माँग न होने
की वजह से सॉफ्टवेयर बनाने वाली वे भारतीय कंपनियाँ भी इन
पैकेजों के विकास पर ध्यान नहीं देतीं, जो विदेशी बाज़ारों
में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। आज़ादी के पाँच दशक बाद भी
भारत में यदि विभिन्न राज्य सरकारों, कारपोरेट जगत और
सम्पन्न वर्ग के आपसी व्यवहार की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई
है तो भारतीय भाषाओं के
लिए सॉफ्टवेयर मार्केट क्योंकर विकसित होगा?
लेकिन इसके बावजूद कुछ बातों को नजर-अंदाज करना किसी के लिए भी
मुश्किल है। भारत में दुनिया का सबसे बड़ा मध्यमवर्ग है। भारत
में तेजी से विकसित होता हुआ एक औद्योगिक क्षेत्र है। हालाँकि
विश्व में आर्थिक मंदी की स्थितियों के कारण इस समय हमारी
समग्र औद्योगिक विकास दर २.९ प्रतिशत है, पर यदि हमारी
औद्योगिक विकास दर आने वाले समय में एक सम्मानजनक स्तर पर
पहुँचती है तो अधिकाधिक औद्योगिक प्रतिष्ठानों, व्यापारिक
घरानों, बैंकों, शिपिंग कंपनियों, खुदरा व्यापारियों,
पुस्तकालयों, पोस्ट ऑफिस कार्यालयों, मीडिया एजेंसियों आदि
का यहाँ की आम जनता के साथ सम्पर्क बढ़ेगा और भारतीय भाषाओं
में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर का बाज़ार विकसित होने की संभावनाएँ
जन्म ले सकती हैं। चीनी भाषा तकनीकी दृष्टि से हिंदी भाषा से
बहुत अधिक जटिल है, इसके बावजूद अमरिकी कंपनियों ने चीनी भाषा
में अपने सॉफ्टवेयर कार्यक्रम बनाये हैं, क्योंकि चीन में एक
विकसित होता हुआ एक विशाल बाज़ार है।
फिर भी सच यह
है कि तकनीकी साधनों में देशी भाषाओं के प्रयोग का मुद्दा केवल
एक आर्थिक और तकनीकी मुद्दा ही नहीं है, यह देश के राजनीतिक,
सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश से सीधे जुड़ा हुआ है। भारत में
मुट्ठी भर अभिजात वर्ग सारे कार्य व्यापार का नियामक है और इस
वर्ग की भाषा हिंदी नहीं है। तकनीकी सुविधाओं के हिंदी में
उपलब्ध हो जाने के बाद भी जब तक कारोबार की संस्कृति और सोच
की दिशा में बुनियादी परिवर्तन नहीं होता तब तक अन्य सारी
प्रगति का कोई अर्थ नहीं है। जब तक संचार क्रांति को जन समाज
से वास्तविक अर्थों में जोड़ने की इच्छा शक्ति नहीं जगती, तब
तक समाज में अधिकार सम्पन्न वर्ग और साधनहीनों के बीच की
वर्तमान खाई भी बनी रहेगी, बल्कि लगातार बढ़ती ही जायेगी।
बदलाव और विकास दो अलग धारणाएँ हैं। विकास का संबंध जीवन स्तर
की प्रगति, शिक्षा, स्वास्थ्य, संसाधनों और आर्थिक व
सामाजिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है। केवल बाज़ारवाद से गरीबी
दूर नहीं हो सकती। उसमें आर्थिक प्रक्रिया में लोगों का शामिल
होना, स्वास्थ्य, शिक्षा और सम्प्रेषण की तकनीकों का
सुधरना, शिक्षा और सम्प्रेषण की तकनीकों का सुधरना, सामाजिक
सुरक्षा का विस्तृत होना, निर्णय लेने की प्रक्रिया में आम
लोगों की सहभागिता और उनकी उत्पादनशीलता का बढ़ना भी आवश्यक
है। आर्थिक विकास और सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं के
इन्हीं संबंधों में भाषा की
भूमिका अहम् हो जाती है।
सामान्यतया भाषा का विकास उसके बोलने वालों की विविध
आवश्यकताओं के अनुरूप होता है। मनुष्य केवल आर्थिक प्राणी ही
नहीं है। उसके सामाजिक, नैतिक और सौंदर्यबोध के मूल्यों को भी
भाषा अभिव्यक्त करती है। राष्ट्र के उत्थान में भारतीय
भाषाओं की विशेषकर हिन्दी की आज़ादी के पहले जो भूमिका रही है
वह सर्वविदित है। आज़ादी के संघर्ष में यह साधारण और मेहनतकश
जनता की मुक्ति की आकांक्षाओं की भाषा थी। इस भाषा में व्यापक
जनता के सामाजिक, आर्थिक, नैतिक और सांस्कृतिक आशय व्यक्त
होते थे। अंग्रेजी के बरक्स यह भाषा एक काउंटर-फोर्स का रूप
ले रही थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद हिन्दी भाषा संख्या
की दृष्टि से संसार के समृद्ध देशों की भाषाओं के बीच एकाएक
खड़ी तो हो गयी लेकिन नये ज्ञान-विज्ञान से उसका सार्थक
रिश्ता कभी बनाया नहीं गया। यह भाषा अधिक से अधिक केवल
साहित्य, पत्रकारिता और मनोरंजन की भाषा बनकर रह गयी है। इस
भाषा को बोलने वालों की व्यापक आकांक्षाओं को हमारे यहाँ
शक्ति केन्द्रों ने हमेशा ही दबाया है।
विज्ञान,
कला, प्रशासन, वाणिज्य, चिकित्सा, विधि, प्रबंध विज्ञान,
प्रौद्योगिकी आदि में हिन्दी के माध्यम से न तो कभी उच्च
स्तर की शिक्षा की कोई व्यवस्था हुई और न ही उसे दैनंदिन
काम-काज से जोड़ा गया। इस दिशा में जो थोड़े-बहुत कार्य होते
रहे हैं, उनकी प्रकृति औपचारिक, दिखावटी और प्रवंचनापूर्ण
ज्यादा है। हमारा शासक वर्ग जानता है कि एक बड़े जनमानस की
भाषा को दबाया नहीं जा सकता, लेकिन साथ ही उसे वास्तविक विकास
की ओर उन्मुख भी नहीं करना है। इसका सबसे बड़ा कारण शक्ति
केन्द्रों की वह औपनिवेशिक मानसिकता है जिसमें आमूलचूल
परिवर्तन की कोई इच्छाशक्ति ही कहीं दिखाई नहीं देती। हिन्दी
को सरकारी संरक्षण ने एक आत्मप्रवंचना की स्थिति में पहुँचा
दिया है। अंग्रेजी जानने वाले कुछ लाख देश की ९० करोड़ जनता को
हाँकते हैं। औपनिवेशिक शिक्षा के संस्कारों ने इन लोगों को
गरीब जनता से नफरत करना सिखाया है। इन सत्ता-पुरूषों की एक
अलग जीवन संस्कृति है और भाषिक अलगाव उसका सबसे बड़ा अस्त्र
है।
सच्चाई यह
है कि आज़ादी के बाद के इन तमाम दशकों में सरकारी कार्यालयों
और संस्थाओं में राजभाषा हिन्दी का जो प्रयोग अब तक बढ़ा है,
वह एक संविधानिक आवश्यकता को पूरा करने की औपचारिकता के रूप
में ही अधिक बढ़ा है। सरकारी कार्यालयों में हिन्दी
अधिकारियों, अनुवादकों, टाइपिस्टों और द्विभाषिक फार्मों की
संख्या कामकाज में हिन्दी के महत्व को प्रदर्शित नहीं करती
है, बल्कि एक सिनिकल और आत्मदया की स्थिति का ही निर्माण करती
है। सरकारी कार्यालयों में इन हिन्दी अधिकारियों और अनुवादकों
की फौज इसलिए खड़ी की गयी है ताकि ये हिन्दी को एक प्रदर्शन
की वस्तु में बदल डालें। संस्थानों में हिन्दी अधिकारी और
हिन्दी अनुवादक अंग्रेजी की मुख्यधारा में हिन्दी के द्वीप
बने बैठे हुए हैं जबकि संस्थान की सारी कार्य संस्कृति
अंग्रेजी में ही बनी रहती है, उसमें रत्ती भर भी बदलाव नहीं
आता।
बाज़ार में
हिन्दी की वास्तविक प्रगति तो तभी देखी जा सकती है जब वह
सम्प्रेषण, कार्यकुशलता और लाभप्रदता की तमाम कारपोरेट
योजनाओं का एक अनिवार्य और अभिन्न अंग हो। वह आर्थिक कारोबार
की समूची संस्कृति और संस्कार को अभिव्यक्त करने वाली भाषा
हो। आज केवल माल बेचने और गाँव-कस्बों में नये बाज़ार बनाने
के लिए हिन्दी का जो प्रयोग हो रहा है, वह एक तदर्थ और
व्यावहारिक उद्देश्य के लिए है, किसी व्यापार आदर्श,
राष्ट्र निर्माण या मूलगामी परिवर्तन के लिए नहीं। कारोबार
में किसी उच्च प्रशासनिक बैठक का वार्तालाप हिन्दी में नहीं
होता, कोई रिसर्च पेपर या व्यावसायिक रिपोर्ट हिन्दी में
नहीं लिखी जाती, कोई कार्य-प्रशिक्षण हिन्दी में नहीं दिया
जाता, कोई कार्यालय नोट या
व्यावसायिक विश्लेषण हिन्दी
में तैयार नहीं होता। कॉरपोरेट संस्कृति में हिन्दी के लिए
कोई जगह नहीं है।
व्यावसायिक लाभप्रदता, परिवर्तन और भाषा के आपसी संबंध सूत्र
खोजने के बारे में आज भी कोई ठोस कार्यक्रम नहीं हैं। विज्ञापन
एजेंसियों में सारे विज्ञापन पहले अंग्रेजी में बनते हैं, बाद
में जैसे-तैसे उनका कामचलाऊ अनुवाद कर दिया जाता है। सरकारी
कार्यालयों में हिन्दी के नाम पर अनुवाद की ऐसी कृत्रिम ओर
अटपटी भाषा तैयार हुई है जो आम जनता के लिए अंग्रेजी जितनी ही
दुरूह है। छोटे-छोटे गाँवों और कस्बों से शक्ति केन्द्रों की
ओर आने वाली आम जनता सरकारी कार्यालयों की इस कृत्रिम हिन्दी
को अपना नहीं पाती क्योंकि इस हिन्दी का भाषिक रजिस्टर आम
जनता की बोलियों से निर्मित नहीं है। यह भाषा भारत की विशाल
जनता से संवाद की किसी बुनियादी इच्छा पर आधारित ही नहीं है।
वह नये ज्ञान-विज्ञान और सूचना को आत्मसात कर उसे जातीय
संस्कार देना नहीं चाहती। इसलिए अनुवाद की भाषा के वाक्य
विन्यास में कहीं आत्मीयता का पुट नहीं है। वह संस्कार के
स्तर पर निर्वैयक्तिक और जड़ाऊ भाषा है। अनुवाद की इस कार्य
संस्कृति में परिवर्तन की किसी व्यापक राजनीति का स्वप्न
अनुपस्थित है। यदि ऐसा न होता तो कामकाज की इस हिन्दी भाषा
में वह जीवन्तता और तनाव दिखायी देते जो एक भारतीय समाज में
व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं को प्रतिबिंबित कर
रहे होते। दरअसल भाषा का यह रूप वर्चस्व की उन्हीं ताकतों की
नाभि-नाल से जुड़ा हुआ
है, जो तमाम सार्वजनिक जीवन और उसकी आकांक्षाओं का
संस्थानीकरण करती रहती हैं।
अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ निश्चय ही आने वाले वर्षों
में निजी क्षेत्र का प्रभाव काफी बढ़ेगा। क्या पश्चिम से
आयातित विचारों, तकनीक और जीवन शैली के साथ-साथ अंग्रेजी का
वर्चस्व बढ़ता नहीं जायेगा? सीमित स्वार्थों के लिए व्यापार
जगत में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को व्यापक जन-समाज में
बुनियादी परिवर्तन की आकांक्षाओं से काटते हुए निरंतर
अंग्रेजीमय बनाते जाना कुछ नहीं अजीबोगरीब स्थितियों को जन्म
देगा। यह विरूपीकरण हमारी व्यापारिक संस्कृति में दिखाई भी
पड़ने लगा है। टेलिविजन पर उपभोक्ता सामग्री के विज्ञापनों
में हम इस विरूपीकरण को देख रहे हैं, हिन्दी और अंग्रेजी की
अजीबोगरीब खिचड़ी को भाषा का कोई विकसित रूप नहीं कहा जा सकता।
भाषा की अशुद्धता आपत्तिजनक नहीं है। आपत्तिजनक यह है कि यह
नयी खिचड़ी भाषा ऐसे खाते-पीते वर्ग की जीवन-शैली और मूल्यों
को प्रदर्शित करने वाली भाषा है जिसका जीवन दर्शन ही भोग
विलास, शोषण, स्वार्थ बर्बरता स्पर्धा और आत्मकेन्द्रिता पर
टिका है। इस खिचड़ी भाषा में वंचित जनता की मार्मिक स्थितियों
की कोई छवि नहीं है, उनके जीवन का कोई तनाव व्यक्त नहीं
होता।
विश्व बाज़ार की नयी स्थितियों में यही हिन्दी भाषा की सबसे
बड़ी विडम्बना है। हिन्दी भाषा को उसके मूल स्वभाव और
आकांक्षा से दूर किया जा रहा है। हिन्दी केवल माल बेचने की
भाषा बन रही है। वह केवल लालसाओं और मरीचिकाओं की भाषा बन रही
है। वह एक ऐसे चमकीले संसार का हिस्सा बन रही है, जिसका भारत
की करोड़ों की संख्या में अल्पशिक्षित और मूक जनता से कोई
संबंध नहीं। जनता इस स्थिति को केवल मुँह बाये खड़े देख रही
है। भाषा को उसके बुनियादी संस्कार से काट देने में मीडिया की
यह भूमिका भविष्य में और अधिक बढ़ते ही जाने की संभीवना है।
भाषिक प्रयोग में जनता की अपनी स्मृतियाँ जुड़ी होती हैं।
भारत की विशाल अल्पशिक्षित और साधनहीन जनता खाते-पीते वर्ग की
मस्ती, उपभाग अय्याशी और हिंसा को प्रतिदिन टेलीविजन पर अपनी
भाषा के माध्यम से प्रकट होते देख रही है। यही विश्व बाज़ार
में आज हिन्दी की कुल भूमिका है। हमें इससे निपटने और बाहर
आने के रास्ते खोजने हैं।
१२
सितंबर
२०११ |