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दृष्टिकोण

पिता को वापस आना होगा
डा. श्याम सुन्दर दीप्ति
 

समय का बदलाव हमारे समय की बात है। परिवार की रूपरेखा बदली है। इसके अन्तर्गत पिता और बच्चे भी। क्या सचमुच ही पिता के साथ बच्चों के सम्बन्ध बदले हैं? समाज और माता पिता की नषर में, बच्चे बहुत बदल गए हैं। बच्चे होशियार हैं, चालाक हैं, बच्चे पहले से अधिक समझदार हैं। माँ–बाप को लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से बड़ी बातें करते हैं।....हम तो बुद्धू थे...।

वास्तव में देखें तो बच्चा नहीं बदला है। बच्चा अब भी वहीं है। वहीं है, जो बाहें उठा कर कह रहा होता है कि उसे गोदी में उठा लो। अब भी वह गोली–टॉफी की माँग करता है। अब भी वह माँ–बापू का पल्लू कमीज खींच कर, ध्यान माँगता है कि मेरी बात सुनो। अब भी वह बोलना शुरू करने पर, पिता से पूछता रहता है ‘यह तया है? वो तया है?’ वह उसी तरह जिज्ञासु है।

बदला है तो पिता बदला है। एकल परिवार में, उसके पास बच्चे को गोदी में उठाने का समय है। उसे गोली–टॉफी दिलाने का भी। एकाकी परिवार के साथ, बच्चे भी एक–दो हैं। उन बच्चों के लिए समय कुछ अधिक है। पर क्या यह सचमुच उतना सच है?

एक पहलू यह भी है कि बच्चे जिद्दी हुए हैं, कहना नहीं मानते। उनकी इच्छाएँ बढ़ी हैं, रूठते ज्यादा हैं, बात मनवा कर छोड़ते हैं? क्या वे बदले नहीं हैं? माता–पिता कहेंगे– समय ही खराब आ गया है। मीडिया गलत है। सारा माहौल ही बिगड़ा हुआ है। क्या इस माहौल का हिस्सा पिता नहीं है? एक तरफ पिता यह दावा करते हैं कि उन्होंने बच्चे के साथ फासला कम किया है। वह बच्चों की बात सुनते हैं, उन्हें समय देते हैं, उनकी परवाह करते हैं। दूसरी और यूँ लगता है कि यह दूरी कम होने की बजाए बढ़ी है।

बच्चे के पालन–पोषण के पड़ाव को, पिता के दावों से मिला कर देखें: जन्म के बाद, क्रैच, फिर डे–केयर, फिर स्कूल के बाद पिता के इन्तजार करने तक टी.वी. या वीडियों गेम के हवाले, उसके बाद होमवर्क में व्यस्तता या मुकाबलेबाज़ी का दवाब। कहाँ है पिता? पिता का साथ होते हुए भी पिता गायब है। हाँ सुबह–शाम अवश्य मिलते हैं। क्या पिता सचमुच समय दे रहा है? पिता बच्चों को प्रतिदिन उसे बोलता सुनता है, बढ़ता देखता है। एक–एक शब्द, एक–एक इंच। पिता को उसके कद की परवाह है, उसके भार की चिन्ता है। इसलिए खाने की फ़िक्र भी। पर बच्चों के शारीरिक विकास के साथ, मानसिक, भावनात्मक व बौद्धिक विकास भी होता है।

एक मनोवैज्ञानिक तथ्य समझें। दो वर्ष की आयु पर जब बच्चा बोलना शुरू करता है, अपने आस–पास के बारे में सब जानना चाहता है, तब उसकी प्रवृत्ति ‘क्या है?’ वाली होती है। तेरह–चौदह वर्ष पर उसके साथ एक नई प्रवृत्ति विकसित होती है ‘क्यों है?’ वह जानना चाहता है–ऐसा क्यों है? क्यों करना चाहिए? क्यों करूं? वह अब जिज्ञासु के साथ, आलोचनात्मक भी हो रहा होता है। इस पड़ाव पर उसे आगे बोलने वाला, आगे से सवाल करने वाला, हर बात पर बहस करने वाला, कहा जाता है। प्राय: उसे ‘क्यों’ के पहलू पर संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता और अगर थोड़ी–बहुत व्याख्या मिलती भी है तो वह संतुष्ट नहीं करती। वह उसे पाने के लिए इधर–उधर भटकता है। फिर उसे बिगड़ा हुआ कहते हैं। उसकी कम्पनी को बैड कहा जाता है या फिर स्कूल के वातावरण या मीडिया को दोषी ठहराया जाता है। वास्तव में यह उसकी ज़िन्दगी का सामान्य पड़ाव है, जिसके बारे में पिता अनभिज्ञ हैं। जबकि पिता को तो खुश होना चाहिए कि उनका बच्चा विश्लेषणात्मक हो गया है। वह अब समाज को समझने लगा है। यह वह पड़ाव है–जहाँ सेहतमंद संवाद शुरू होना चाहिए, जबकि यहाँ से चुप्पी शुरू हो जाती है।

पिता और बच्चों में संवाद बढ़ने की बात होती है। वह बढ़ रहा है–भौतिक स्तर पर। बाजार पिता के हाथ में जो है। क्या चाहिए? कपड़े, जूते, बाइक, मोबाइल, दोस्तों को ट्रीट। या फिर ट्यूशन, स्कूल। स्कूल में क्या किया? ग्रेड कैसे हैं? संवाद तो बहुत है, पर बच्चे की जरूरत का एक अंश मात्रा। कहाँ है प्यार, निकटता, मिलकर बैठना, हँसना, किताबें–ग्रेडों से हटकर बात करना? भौतिक जरूरतों के मद्देनज़र विचार होता है, सलाह होती है, जरूर होती है। बाषार में झूमते हुए–पिता बच्चों के दोस्त से लगते हैं।

नए वातावरण ने पिता को बताया–समझाया भी है कि बच्चों के साथ दोस्त बनने का समय है। वह दोस्त बनने की कोशिश भी करते हैं, पर बीच–बीच में पिता प्रकट हो जाता है, सिर्फ़ प्रकट ही नहीं होता, हावी होता है। फिर पिता बोलता है, सुनता नहीं। संवाद गायब। पिता के व्यवहार में एकदम तबदीली, बच्चे को झुँझला देती है। अभी तो दोस्त–सरीखा था और अभी अभी....।

स्थिति का विश्लेषण करें तो पिता को अपना परिप्रेक्ष्य याद है। वह उसी से तुलना करता है। हमें यह सब कहाँ मिला? यह बच्चे कुछ भी माँगते बाद में हैं, मिल पहले जाता है। दोनों कमाते हैं, किस के लिए? घर–गाँव छोड़ा, किसके लिए? अपनी सुविधाओं को अनदेखा कर, इन्हें दिया- बाइक, ए.सी. कमरा। पिता सिर्फ़ सोचते नहीं, बच्चों को जताते भी हैं।

हमने विज्ञान को, व्यवसाय व स्थान को, इस नए परिपेक्ष्य को स्वीकारा है। यह सब सहजता से हमारे जीवन का अंग बने हैं, पर क्या अन्य परिवर्तन हैं, जैसे:

  • एकाकी परिवार हमने चाहे, पर उनमें रहने के ढंग को नहीं बदला।

  • अच्छी परवरिश के लिए एक–दो बच्चों को चाहा, पर अच्छी परवरिश का अभिप्राय नहीं जाना–सीखा।

  • सतही जानकारी, जैसे देखा–सुना, इधर–उधर के अनुमानों पर आधारित बच्चों के साथ पेश आ रहे है। पिता का कठोर व्यवहार छोड़ा, तो खुलेपन के अर्थ नहीं तलाशे। अनुशासन की सीमा व महत्व नहीं समझा।

  • दोस्त बनना चाहा, तो पिता के साथ उसका संतुलन नहीं बना पाए। आर्थिक समृद्धि आने पर, बच्चों की इच्छाएँ पूरी करते रहे। पर बच्चें को सामाजिक सच्चाइयों से अवगत नहीं करवा रहे।

  • उनकी हर बात मानी, पर जब जिद्दी हो गए तो बुरा लगा।

  • बच्चे, पिता के लिए सब कुछ हैं, एक तरह जायदाद हैं उनकी। पिता उन्हें खोना नहीं चाहते, यह एक भीतर डर है, जो इस स्थिति में व्यवहार को डाँवाडोल करता है।

क्या करे पिता?

  • सबसे पहले तो बच्चों के सम्पूर्ण विकास को जानें।

  • स्पष्ट और ठोस संदेश दें। माता और पिता के आपसी संदेशों–संकेतों में भी समानता हो। ‘हाँ’ और ‘ना’ का अर्थ समझाते हुए उसे भावनाओं से खिलवाड़ करने के लिए बढ़ावा न दें। बच्चे के जिद्दी होने और ब्लैक मेल करने में कहीं न कहीं हमारा व्यवहार अपना योगदान करता है।

  • स्पष्ट संदेश के लिए अपने व्यवहार को एक सरीखा रखें। कथनी व करनी में अन्तर न दिेखे बच्चों को।

  • भावनाओं को समझदारी से निपटाएँ।

  • बच्चों के साथ संवाद को खुले पक्ष से लें। विचार चर्चा करें। तर्क करें, तर्क सुनें। बच्चों का पक्ष ठीक लगे तो स्वीकारें।

  • दोस्त बनें, एक अच्छे सलाहकार बनें, पर पिता को भी खोने मत दें।

२५ जुलाई २०११

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