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दृष्टिकोण

लिखे हुए शब्दों के प्रति श्रद्धा
--प्रवीण गार्गव
 

जीवन का पहला निबंध जो स्कूल के कोर्स में नहीं था, वह पिताजी के एक विद्वान घनिष्ठ मित्र के कहने पर लिखा था- "मैं इंजिनियर बनाना चाहता हूँ" इस विषय पर। संकोचवश वह निबंध किसी को बताया नहीं, परन्तु सम्हाल कर रखा। चार वर्ष बाद जब अभियाँत्रिकीय महाविद्यालय में प्रवेश मिला तो सहज ही इन लिखे शब्दों के प्रति श्रद्धा का भाव जाग्रत हो गया। किसी की प्रेरणा से लिखे हुए शब्द जीवन की प्रतिश्रुति बन गए, मंजिल बन गए। दरअसल लिखते समय हम वो नहीं रहते, जो हम बोलते समय रहते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि हम यह मानते हैं कि जो लिखा हुआ है वह हमेशा रहेगा और बोला हुआ तो खो जाएगा। लिखते समय अगर हम ईमानदार नहीं है तो मन पर बोझ अधिक होता है। सच्चाई से लिखा है, तो श्रद्धा बन जाता है, विश्वास बन जाता है। यही विश्वास कार्य पूर्ण करने में सहायक हो जाता है और यही श्रद्धा विश्व चेतना को हमारे लक्ष्य प्राप्ति में सहायक बनने को मजबूर करती है। भविष्य का हर क्षण अप्रत्याशित, अनापेक्षित, अज्ञात हमारे सामने रहता है, हमारे साथ जो कुछ भी होता है वह हमारी श्रद्धा की तीव्रता और पवित्रता पर निर्भर करता है। जीवन में जब सत्य अवतरित हो जाता है और व्यक्ति जब अनजाने में भी झूठ नहीं बोलता, तब वह दशा आ जाती है कि वह व्यक्ति अगर भविष्य के बारे में कुछ कह देता है, तो वह भी सत्य हो जाता है। यानी सच बोलते-बोलते सच्चा भविष्य बताने की सिद्धी सहज ही प्राप्त हो जाती है।

लिखना हमारे विचारों को न केवल व्यवस्थित करता है, बल्कि उन्हें परिपूर्ण भी बनाता है। जीवन की कई समस्याएँ जो हमें बहुत उलझी सी लगती हैं या बहुत अधिक लगती हैं, जब कागज़ पर उतरती हैं तो अपने आप कम और आसान हो जाती हैं। लिखे हुए शब्द हमारा और हमसे जुड़े व्यक्तियों का जीवन भी सँवार सकते हैं। लिखे हुए शब्द बोले हुए शब्दों कि तुलना में "सौ सुनार कि एक लुहार की" का कार्य करते हैं। आज पत्रों का स्थान एस.एम.एस. और ई-मेल ने ले लिया है। इनका प्रभाव उतना नहीं हो सकता जो हाथ से लिखे हुए संदेशों या पत्रों का होता था। अच्छे विचारोत्तेजक एस.एम.एस. भी समय के साथ डिलीट हो जाते हैं। पर पत्र बरसों सम्हाले जाते थे। जो भावनाएँ हाथ से लिखे शब्दों से सम्प्रेषित होती है, वह टाइप किए हुए शब्दों से कभी नहीं हो सकती। हालाँकि उनका प्रभाव बोले हुए शब्दों से अधिक हो सकता है। अमेरिका की सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक "सीक्रेट" में भी इच्छओं को पूर्ण करने के लिए लिखने के माध्यम का उपयोग करने की बात कही है। नेहरू जी द्वारा अपनी पुत्री को लिखे पत्रों ने इंदिराजी के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला था। श्री अरविंद अपने शिष्यों के योग और व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं का पत्रों के द्वारा उत्तर देते थे, आज उन पत्रों का संग्रह अमूल्य निधि है। इसी तरह गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा अपने शिष्यों को लिखे पत्र आज भी कई साधकों के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं।

पुरानी पीढ़ी के लोग इस विद्या का उपयोग सही समय पर करते थे। यह घटना पन्द्रह वर्ष पूर्व की है, मेरे भांजे को बारहवीं के पश्चात प्रतियोगी परिक्षा में सफलता नहीं मिली और वह बहुत निराश हो गया। दीदी ने फोन किया उसके नानाजी को कि आप उसे समझाएँ, मैं उसे आपके पास भेजा रही हूँ। नानाजी ने कहा भेजने की आवश्यकता नहीं है, मैं उसके नाम पत्र भेज रहा हूँ, उसे दे देना। पत्र प्राप्त होने के बाद उस बालक को उन लिखे शब्दों ने अदभुत शक्ति प्रदान की और उसने दुगने उत्साह से दूसरे क्षेत्र में प्रयास किए। आज वह एक सफल प्रबंधक है। वह चिट्ठी अभी तक उसके पास उसकी अमूल्य निधियों की तरह है। कई बातें जो हम किसी के समक्ष कह नहीं पाते लिखकर व्यक्त कर सकते हैं। सामान्यत: जब हम बातचीत करते हैं तो हम सुनने के बजाय हम जो कहना चाहते हैं, उस पर ध्यान देते हैं। संवाद होते हुए भी उद्देश्य पूरा नहीं होता। लिखे हुए शब्द जब हम पढते हैं तो उस समय प्रेषक समक्ष नहीं होता और हम तत्काल प्रतिक्रिया नहीं कर पाते। प्रतिक्रिया में बरता यही संयम रिश्तों को और समस्याओं को समझने का नया आयाम देता है। नैराश्य में डूबा व्यक्ति अपनों से बोलकर जितना अपने मन का बोझ कम कर सकता हैं, उससे अधिक लिख कर कर सकता हैं, फिर किसी और को लिखने की भी आवश्कता नहीं है। हम केवल अपने लिए लिख सकते हैं। खामोशी के साथ एकांत में लिखना विद्वता कहलाती है और बोलना पागलपन।


लिखने की आदत युवावस्था में संयमित जीवन के प्रशिक्षण के लिए भी कारगर है। बाहरवीं कक्षा पास करने के बाद घर से बहुत दूर पढ़ने जाना पड़ा। आर्थिक हालत बहुत अच्छे नहीं थे। जब मैंने पिता से प्रतिमाह कितने पैसे खर्चे के
लिए मिलेंगे यह प्रश्न किया, तो भावुक होकर उन्होंने कहा की कोई सीमा तय नहीं है परन्तु जितना खर्च करो उसे पूरी ईमानदारी से अपनी डायरी में प्रतिदिन लिखना, केवल अपने लिए, मुझे भी बताना आवश्यक नहीं है। उनके द्वारा दिए गया निर्देश आसान लगा पर जब भी कुछ खर्च करने का समय आता, तब यह भी ध्यान आ जाता की इसे लिखना भी होगा। बस सोच-समझकर खर्च करने की आदत अनजाने में लग गई। बिना किसी बड़े बंधन के और भाषण के इस तरह भी संस्कार डाले जा सकते हैं।

बोले हुए शब्द जहाँ हमारी ऊर्जा क्षय करते हैं, वहीं लिखे हुए शब्द हमारे विचारों को व्यवस्थित करते हैं और हमें उर्जित करते हैं। लिख कर आप अपने अनुभव दूसरों के साथ अपनी अनुपस्थिति में भी बाँट सकते हैं। लिखना-पढ़ना अकेलेपन के साथी हैं। खामोशी से जन्मे शब्द हैं। आज संवाद और संचार तो आसान हो गए हैं, लेकिन मन की दूरियाँ बढ़ गयी हैं। पहले हम पत्र की लिखावट से समझ लेते थे कि लिखने वाला किस भाव से पत्र लिख रहा है। बुकर अवार्ड विजेता किरण देसाई कहती हैं की "जब मैं लिखती हूँ तो घंटे चेतना की अवस्था में गुजर जाते हैं, मुझे लगता है, लोग ध्यान में भी यही अनुभव करते होंगे।" यह चिंता किए बगैर लिखे की यह गद्य है या पद्य, कहानी है या निबंध। यह भी सोचकर न लिखे कि लोग क्या कहेगे, मेरा लिखा हुआ प्रकाशित होगा या नहीं। श्री अरविंद का सावित्री महाकाव्य उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हुआ। जबकि श्री अरविंद स्वयं उसे अपना सबसे बड़ा कार्य मानते थे।

हम संतुष्टि ढूढते हैं व्यवसाय में, नौकरी में, लेकिन वह वहाँ संभव नहीं है, क्योकि वहाँ स्वतंत्रता नहीं है। यह स्वतंत्रता ही हमें अध्यात्म और अपने आप से जोड़ती है। पुलित्जर पुरूस्कार विजेता गीता आनंद कहती हैं। "अपनी डायरी में लिखकर और अपनी डायरी के जरिए अपने अध्यात्मिक पक्ष से जुडती हूँ। " लेखन एक उत्कृष्ट सर्जन है, लेकिन किसी भी लेखक का यह दावा कि मेरे विचार पूर्णत: मौलिक हैं। स्वीकार्य नहीं है। दरअसल चेतना के विभिन्न स्तरों पर विचार इस वैश्व चेतना में व्याप्त हैं। लेखक जब उनके सम्पर्क में आता है तो वे विचार कागज़ पर आते हैं या यूं कहा जाए तो साहित्यिक स्वरूप लेखक द्वारा दिया जाता है। श्रीअरविंद की दृष्टी में तो विचार अंदर से नहीं बल्कि बाह्यजगत से भी आते है। बस निर्भर करता है कि लेखक चेतना के किस स्तर से जुड़ा है। थिओसोफीस्ट तो ये मानते हैं की सत्य उन्हें एलिअन गुरुदेव या मास्टर्स से प्राप्त हुए थे, जो महान आत्माएँ थी। उनसे प्राप्त सन्देश को ही थियोसोफिस्ट लेखकों ने शब्द प्रदान किए हैं। श्रीमाँ कहती हैं " विचारों का जगत सबका है। बौद्धिक शक्ति वैश्व शक्ति है। जो कहते हैं कि यह विचार मेरे हैं और यह सोचते हैं कि वे औरों को इसका लाभ उठाने देते हैं, यह उनकी भूल है। हाँ यह सच है कि कुछ लोग विचारों के क्षेत्र के साथ नाता जोड़ने और उसे सचेतन मस्तिष्क द्वारा प्रगट करने में ज्यादा समर्थ होते है। सर्जन के क्षेत्र में सौ प्रतिशत मौलिकता का आग्रह उचित नहीं है। हाँलाकि शाब्दिक अभिव्यक्ति की देन अपेक्षाकृत दुर्लभ होती है। कई सच ऐसे होते हैं, जो आदमी स्वयं से भी नहीं बोल पाता। रचनाशील प्रतिभा और मन: व्याधियों के बीच भी सुस्पष्ट सम्बन्ध है। उन्मादी अवसाद के समय ऊर्जा का अतिरिक्त संचार विचार प्रक्रिया को सघन बनाता है। उस समय रचनाकार की रचानाशीलता प्रखर हो सकती है, जबकि औसत व्यक्ति को यह सीमित बनाती है या आत्महंता।

लेखक का मौलिकता का दंभ और यह दावा कि मेरे लिखे हुए से समाज में क्रान्ति आ जाएगी दोनों ही बाते उसके लेखन के परिष्कृत होने के मार्ग में बाधा है। विख्यात साहित्यकार नरेंद्र कोहली कहते हैं कि "लेखक का लिखा हुआ राजा का आदेश नहीं है कि आज जारी हुआ और कल समाज बदल गया। साहित्य तो केवल संस्कार देता है और वह संस्कार ध्वनि की तरह वायुमंडल में गूँजते हैं। जब समाज को उसकी आवश्यकता होती हैं, वह उसे ग्रहण करता है, और समाज के लिए लागू करता है।" निबंधकार श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय भी कहते हैं कि " अतिरंजना या अतिश्योक्ति तब होती है, जब शब्द नवीन से जुड़े न हों, जब रचनाकार यह मान लेता है कि जो कुछ भी उसने रचा है वह शाश्वत है, अनश्वर है। जब रचनाकार यह मान लेता है कि भले ही इस लोक से उसका संवाद न हो पर वह इसके परिमार्जन के उपाय सुझाएगा। इतिहास गवाह है कि इस तरह के रचनाकार समय के प्रवाह में विलीन हो जाया करते हैं। एक रचनाकार की सबसे बड़ी कसौटी उसकी विनम्रता है। कोइ सृजन, कोइ रचना धर्मिता तभी विकसित हो सकती है, जब उसके बीज रूप में कहीं न कहीं विनम्रता हो।"

हमारे जीवन में आई प्रत्येक मशीनी टेक्नोलॉजी हमारी कोई न कोई शारीरिक क्षमता कम कर देती है, टीवी, मोबाईल, कम्प्यूटर का उपयोग अवश्य करें पर अपने विचारों को, भावनाओं को, क्रोध को, खुशी को, यादों को बाहर लाने के लिए कोई न कोई तरीका अवश्य खोजें। आज आपकी सुनने कि किसी को फुर्सत नहीं है। इसलिए जुड़ जाए किसी सर्जन से। लेखन सबसे सुलभ सर्जन है। कहीं भी, कभी भी, जब भी कोई अच्छा विचार आप से होता हुए गुजरे, उसे सहेज लें। बस आपके पास होना चाहिए एक पेन और डायरी। लिखें और सर्वश्रेष्ठ लिखें ऐसा कि आप स्वयं अपने लिखे पर मोहित हो जाएँ। लिखें बिना किसी संकोच के, बिना किसी अहम के, बिना किसी अपेक्षा के, विनम्रता के साथ, सच्चाई के साथ क्योंकि यह सर्वश्रेष्ठ केथार्सिस भी है और स्वान्तः सुखाय भी

२३ मई २०११

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