दृष्टिकोण
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राजभाषा
होने के नाते
हिंदी को आठवीं अनुसूची से निकाल दिया जाए
-डॉ.
परमानंद पांचाल |
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हिन्दी भारत
के व्यापक क्षेत्र की भाषा है, जिसका स्थान एक क्षेत्रीय भाषा
से ऊपर उठकर पूरा देश है। हिन्दी समस्त भारत में किसी न किसी
रूप में बोली और समझी जाती है। जब भारत में दो विभिन्न
प्रान्तों, समुदायों और भाषाओं के लोग आपस में अपनी बात करते
हैं तो स्वाभाविक ही है कि वे हिन्दी का ही सहारा लेते हैं। आप
भारत के किसी भी नगर में जाएँ वहाँ आप हिन्दी में अपनी बात कह
सकते हैं। सभी तीर्थों मेलों और धर्म स्थलों पर परस्पर बोल चाल
का माध्यम किसी न किसी न किसी रूप में हिन्दी ही होती है। इस
प्रकार हिन्दी निश्चय ही, देश में परस्पर सम्पर्क और एकता की
भाषा है। यह देश की संश्लिष्ट संस्कृति की भाषा है। इसी में
देश की आत्मा निवास करती है। राष्ट्र की अस्मिता की पहचान भी
इस से है। बहुत पहले १७८२ में, हैनरी काल ब्रुक ने कहा था,
‘जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग करते
हैं। जो पढ़े- लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है
और जिसे प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत पढ़े लिखे लोग समझते हैं,
उसी का नाम हिन्दी है।’
श्री नरमदेश्वर चतुर्वेदी ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी का भविष्य’
में हिन्दी की व्याख्या करते हुए ठीक ही लिखा है, ‘हिन्दी
वास्तव में किसी एक ही भाषा अथवा बोली का नाम नहीं है अपितु एक
सामाजिक भाषा परम्परा की संज्ञा है, जिसका आकार-प्रकार विभिन्न
उपभाषाओं और बोलियों के ताने-बाने द्वारा निर्मित हुआ है।’
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत के अग्रिम नेताओं ने विशेष
रूप से, महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा’ के रूप में इसकी पहचान
की और इसे अपने आन्दोलन का अंग बनाया। इस प्रकार हिन्दी एक
क्षेत्रीय भाषा के रूप में सीमित न होकर समस्त राष्ट्र के
परस्पर संवाद की भाषा है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद ३४३ में हिन्दी को भारत की
राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है, जबकि अंग्रेजी की
स्थिति अस्थायी है, जिसका स्थान कालांतर में हिन्दी को लेना
है। संविधान की आठवीं अनुसूचीमें भारत की प्रमुख भाषाओं को भी
शामिल किया गया है।
संविधान के लागू होने के समय इसकी संख्या १४ थी, जो अब बढ़कर २२
हो गई है। आगे भी इन्हें बढ़ाए जाने की माँग की जा रही है। कहना
न होगा कि स्वतंत्रता संग्राम के समय राष्ट्रीय एकता की जो
प्रबल भावना देशवासियों में विद्यमान थी, वह आजादी के पश्चात
धीरे-धीरे कम होती चली गई, और क्षेत्रीय आकांक्षाएँ ओर
राजनीतिक स्वार्थ पनपने लगे। फलस्वरूप एकता के स्थान पर पृथकता
की भावना बलवती होती गई। इसका प्रभाव भाषा पर भी पड़ा। हिन्दी
जो देश की एकता की प्रतीक है, उसकी उपभाषाओं और बोलियों को भी
हिन्दी से पृथक कर आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की आवाज
उठने लगी। हिन्दी अपने एक हजार वर्ष के इतिहास में जिन विविध
भाषा रूपों के मेल-जोल से एक मानक भाषा के रूप में विकसित हुई
थी, उसमें बिखराव आरंभ हो गया।
हिन्दी के सामने इसके बिखराव की समस्या आज के संकुचित राजनैतिक
स्वार्थों के कारण उत्पन्न हो रही है। मैथिली को पहले ही ८वीं
अनुसूची में शामिल कर लिया गया है अब भोजपुरी तथा राजस्थानी को
शामिल किए जाने के लिए आवाजें उठ रही है। साहित्य अकादमी ने तो
राजस्थानी को अपनी भाषाओं की सूची में पहले ही शामिल कर लिया
है, जबकि राजस्थानी नाम की कोई एक मानक भाषा है ही नहीं। बिहार
में श्री उमेश राय ने मैथिली और भोजपुरी के साथ-साथ बिहार की
बज्जिका, अंगिका, और मघई को भी संविधान की ८वीं अनुसूची में
शामिल करने की माँग की है।
यदि उत्तर-प्रदेश के विभाजन की माँग जैसा कि कुछ लोग कर रहे
हैं स्वीकार कर ली जाती है तो वहाँ अवधी, बुंदेली, भोजपरी को
भी संविधान की ८वीं अनुसूची में शामिल करने की माँग का उठना
स्वभाविक है। छत्तीसगढ़ी के लिए भी ऐसी ही माँग की जा रही है।
आज जो माँग इन बोलियों के लिए हो रही है, यह कहना कठिन नहीं कि
कल ऐसी ही माँग कन्नौजी, ब्रज, पहाड़ी, गढ़वाली, कुमा़ऊॅनी तथा
हरियाणी के लिए भी होगी। अब आप ही सोचिए कि हिंदी किस क्षेत्र
की भाषा रह जाएगी? यह तो इन सभी उपभाषाओं तथा बोलियों का एक
समष्टि रूप हैं। भारत की जनगणना २००१ के अनुसार हिन्दी के
अन्तर्गत ४९ भाषा-बोलियाँ आती हैं। ऐसी माँगों से तो हिन्दी का
समस्त साहित्य ही खंडित होकर रह जाएगा। हिन्दी में न विद्यापति
रहेगा न सूर, न तुलसी ना जायसी, न मीरा और न चन्द्रबरदायी ही
बच पाएगा। हिन्दी का विभाजन गिलक्राइस्ट के प्रयत्नों से
ब्रिटिश काल में पहले ही हिन्दी और उर्दू के रूप में हो गया
था। अब क्षेत्र के नाम पर भी उसके विभाजन का खतरा मंडराता नजर
आ रहा है।
इस विमर्श को बोलियों के विरुद्ध नहीं लिया जाना चाहिये।
बोलियों में ही भारतीय संस्कृति की जड़ें हैं। इन्हें लुप्त
होने से बचाया जाए। हिन्दी की बोलियों का विकास अवश्य होना
चाहिए किन्तु भाषा के विघटन के रूप में न होकर भाषा के
सम्वर्द्धन के रूप में होना चाहिए।
संविधान की ८वीं अनुसूची में हिन्दी की उपभाषाओं को शामिल करने
का पहला परिणाम यह होगा कि जनगणना के समय इन भाषाओं को बोलने
वालों की गणना हिन्दी से अलग हो जाएगी, और हिन्दी बोलने वालों
की संख्या घटती चली जाएगी। आज जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में
हिन्दी बोलने वालों का स्थान दूसरा है। यूनेस्को के प्रतिनिधि
श्री अशर डिलियन ने भी इसकी पुष्टि की है। यदि श्री नौटियाल की
माने तो यह स्थान पहला हो जाता है और इसी आधार पर हम संयुक्त
राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार
करने की माँग कर रहे हैं किन्तु यदि हम हिन्दी को इसी प्रकार
छोटा करने में ले रहें, तो जरा सोचिए हम किसी मुंह से हिन्दी
को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने का दवा कर सकेंगे।
इन बोलियों को ८वीं अनुसूची में शामिल किए जाने का दूसरा
परिणाम यह होगा कि संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा
में भी इन बोलियों को माध्यम बनाने की अनुमति मिल जाएगी। जितनी
अधिक भाषाएँ परीक्षा का माध्यम होंगी उतनी ही अधिक समस्या आयोग
के सामने उपस्थित होगी। ५०-६० भाषाओं को आयोग की परीक्षाओं का
माध्यम बनाने से ऐसी भाषाओं के छोटे क्षेत्रों के परीक्षकों को
ही उतर-पुस्तिकाएँ जाँचने का काम दिया जाएगा, जो उच्चस्तर पर
अखिल भारतीय मान-दण्ड को स्थापित कर भी पाएँगे, इसमें संदेह
है। फलस्वरूप अखिल भारतीय सेवाओं में प्रतिभावान लोक सेवक नहीं
आ पाएँगे और प्रशासन का स्तर गिर जाएगा।
मेरा व्यक्तिगत सुझाव है कि भारत की राजभाषा और देश की
राष्ट्रभाषा होने के नाते, हिन्दी को ८वीं अनुसूची से निकाल
लिया जाए और उसे सही अर्थों में भारत की राजभाषा के रूप में
विकसित होने का अवसर दिया जाए। जहाँ तक संघ लोक सेवा आयोग की
परीक्षाओं के माध्यम का प्रश्न है, फिलहाल हिन्दी और अंग्रेजी
के अतिरिक्त, देश की उन क्षेत्रीय भाषाओं को परीक्षा का माध्यम
बनाया जाए, जो प्रशासनिक स्तर पर किसी राज्य की राजभाषा के रूप
में व्यवहार में आ रही है और भारत की अन्य भाषाओं को ८वीं
अनुसूची में शामिल कर लोग भावनाओं का समुचित सम्मान किया जाए।
(लेखक नागरी लिपि परिषद् के महामंत्री तथा राष्टपति के पूर्व
विशेष कार्य अधिकारी रहे है।)
५
दिसंबर २०११ |