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पुस्तकों ने मुझे बिगाड़ा है
-सुभाषिणी खेतरपाल
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पुस्तकें
मेरा सर्वस्व हैं। इनसे मेरा नाता कैसे जुड़ा इसके पीछे भी
एक रोचक संयोग है।
मुझे साहित्य पढने का चस्का तो स्कूल के दिनों में ही लग
गया था। फिर बाद में भी यह जारी ही रहा। हमारे यहाँ दिल्ली
पब्लिक लायब्रेरी की मोबाइल वैन आया करती थी। दो सप्ताह
में एक बार ही आती थी। एक कार्ड पर एक ही किताब मिलती थी।
इसलिए मैं अपनी सहेलियों और पड़ोसियों के कार्ड माँग कर
ढेर सारी किताबें इशू करवा लेती थी साथ ही हल्की-फुल्की दो
चार पुस्तकें लेकर वैन की सीढ़ियों पर बैठ कर वहीं पढ़
डालती थी। और तो और परीक्षा के दिनों में भी जब रात को
पढ़ने के लिए देर रात तक जागते थे तो भी उपन्यास ऊपर होता
था और पाठ्य पुस्तक नीचे। जैसे ही घर के किसी अन्य सदस्य
के उठने की आहट होती झट से पाठ्य पुस्तक ऊपर आ जाती
उपन्यास नीचे चला जाता। इतने पर भी सन्तोष नहीं। उपन्यास
हो चाहे पत्रिका एक ही बार में खत्म करके ही उठती थी।
प्रेमचन्द की कहानियों से परिचय तो हमारे पिता जी ने
कराया। वे हमें अक्सर उनकी बड़े घर की बेटी जैसी कहानियाँ
सुनाया करते थे। उनका संकेत प्रेमचन्द की कहानियों में
निहित संदेश की ओर होता था।
उस समय पढी गई पुस्तकों ने मन पर ऐसी छाप छोड़ी कि उनके
कथानक और पात्र रह रह कर याद आते हैं और मुझे बरबस खींच कर
बरसों पहले की उस अल्हड़ लड़की में बदल देते हैं जो उन्हीं
की भाषा बोलने लगी थी। उन्हीं से बतियाती थी। उन्हें खुश
देखकर खुश हो जाती। उन्हें दुखी देखकर खुद रोने लगती। ऐसी
ही एक पुस्तक पढ़ी जिसका नाम था- गुनाहों का देवता। हम
उन्हीं के जीवन में शामिल हो गए थे। उन्हीं का जीवन जीने
लगे थे । उनका यह उपन्यास तो हिन्दी साहित्य का मील का
पत्थर है। फिर धर्मवीर भारती की कनुप्रिया भी मैने खूब
घोटी।
एक पुस्तक का जनून उतरता नहीं था कि दूसरी हाथ लग जाती थी
। कभी जयशंकर प्रसाद की कामायनी की धारा में बह रहे होते
तो कभी बच्चन की मधुशाला में गोते खा रहे होते ।
गुलशन नन्दा के उपन्यासों से लेकर देवकी नन्दन ख्रत्री की
चन्द्रकान्ता, यशपाल का झूठा सच, मोहन राकेश का आषाढ़ का
एक दिन, मन्नू भंडारी का बंटी, गोपालदास नीरज का कारवॉं
गुज़र गया गुब्बार देखते रहे, वृन्दावन लाल वर्मा की
मृगनयनी, फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आँचल, अज्ञेय का शेखर एक
जीवनी, विष्णु प्रभाकर का आवारा मसीहा, दिनकर
का संस्कृति के चार अध्याय, अमृतलाल नागर का मानस का
राजहंस जैसी कालजयी रचनाएँ पढ़ने का आनंद उठाया। महादेवी
वर्मा की यामा मेरी प्रिय पुस्तक है। उनके गीत और गीतों के
साथ उकेरे चित्रों ने भी हमें बहुत अभिभूत किया। उनके कई
गीत हमने कण्ठस्थ कर लिए थे। उन्हें खूब गुनगुनाते थे।
उनके गीत 'मैं नीर भरी दुख की बदली' से कौन परिचित नहीं।
सभी गीतों की एक एक पंक्ति के एक एक शब्द को रेखांकित कर
छोड़ा था। कई वर्षों तक यह सिलसला चलता रहा होगा।
मेरे भाई बहन और सहेलियाँ भी मेरी तरह पुस्तक प्रेमी रही
हैं। शायद हमारे इस पुस्तक प्रेम को देखकर ही बाद में वहीं
के समुदाय केन्द्र में स्थायी रूप से दिल्ली पब्लिक
लायब्रेरी की शाखा खोल दी गई। पहले तो वाचनालय भी साथ हुआ
करता था। हम धर्मयुग, सारिका आदि वहीं बैठकर पढ़ आया करते
थे। बाद में विभाग को शायद यह घाटे का सौदा लगा। यह सुविधा
हटा ली गई। कुछ अरसा पहले पुस्तकालय को भी बन्द कर दिया
गया और उसकी जगह बारात घर ने ले ली है। जब मुझे यह पता चला
तो बहुत क्षोभ हुआ। एक ओर तो हमारी सरकार ने सर्वशिक्षा
अभियान चला रखा है और दूसरी ओर पुस्तकालय बन्द कर दिए जाते
हैं। हमारे यहाँ कितने लोग पुस्तकें खरीद कर पढ़ पाते हैं।
पुस्तक प्रेमियों के लिए पुस्तकालय से बढ़कर वरदान ओैर
क्या हो सकता है। दिल्ली में हर वर्ष पुस्तक मेला लगता है।
मुझे प्रतीक्षा रहती है कि कब पुस्तक मेला लगे और कब मैं
जाऊॅं।
दिल्ली प्रेस से प्रकाशित होने वाली सरिता में एक विज्ञापन
आता है जिसका आशय कुछ इस प्रकार है कि आप माँग कर कपड़े
नहीं पहनते तो माँग कर पुस्तक और प्रत्रिकाएँ क्यों पढ़ते
हैं। लेकिन मैंने तो माँग कर भी पुस्तकें पढ़ी हैं, खरीद
कर भी और किराए पर लेकर भी। पुस्तकों में समाचार पत्र और
पत्रिकाएँ सभी शामिल हैं। सुबह सवेरे आँखें खोलते ही
समाचार पत्र चाहिए। परिवार में मेरी इस आदत से सभी परिचित
हैं। घर में सबसे पहले समाचार पढ़ने का विशेषाधिकार मुझे
ही प्राप्त है। मेरे आत्मीय जन विशेष रूप से मेरा भाई मेरी
इस रूचि का इतना सम्मान करता है कि हर माह वह पाँच छह
हिन्दी की पत्रिकाएँ खरीदकर मुझे भेंट करता है। जिनमें
कादंबिनी, हंस, आजकल साहित्यअमृत, ज्ञानोदय, नवनीत, कथादेश
शामिल हैं। मेरे संग्रह में सत्तर और अस्सी के दशक के
कादम्बिनी और नवनीत के अंक भी हैं।
किताबें पढ़ने का आनंद गूंगे के गुड़ के स्वाद जैसा है।
पुस्तकों ने मुझे दुनिया भर की सैर कराई है। पहले मैं
किताब पढने के चक्कर में खाना भूल जाती थी। अब खाना बनाना
भूल जाती हूँ ।पुस्तकें मैं स्वान्त सुखाय पढती हूँ।
इन्हें पढ़ने से जो आत्मतुष्टि मिलती है वह न तो दूरदर्शन
के धारावाहिकों को देखने से मिलती है न सिनेमा हाल में तीन
घण्टे बिताने से और न ही शॉपिंग करके मिलती है। किताबें
पढ़ने के दोहरे फायदे हैं। यह फास्ट फुड की तरह तुरन्त
तुष्ट तो करती ही हैं। घर के बने खाने की तरह भरपूर मानसिक
पोषण का भी अद्वितीय साधन हैं।
जब भी मेरा मन अशान्त हो या दुखी हो मैं अपनी किताब उठाकर
पढ़ने बैठ जाती हूँ और मैं एक अलग दुनिया में पहुँच जाती
हूँ। ऐसे माहौल का सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता
है। मेरे दुखदर्द सब गायब हो जाते हैं। मेरा मानसिक
सन्तुलन लौट आता है, जबकि जिन्हें पढ़ने की आदत नहीं वे
अपने मूड की गिरफ्त में कैद होकर रह जाते हैं।
कहने को हमारा समाज समृद्धि की ओर बढ़ रहा है। परन्तु अपने
मानसिक विकास के प्रति इतनी उपेक्षा और उदासीनता बढ़ती
दिखाई देती है। आज बच्चों के पास अपने अपने कम्प्यूटर और
मोबाइल फोन हैं लेकिन किताबें पढ़ने की आदत नहीं है। माता
पिता अपने बच्चों को कपड़ों और इलेक्ट्रानिक उपकरणों आदि
की ओर तो प्रोत्साहित करते हैं लेकिन पुस्तकें खरीद कर
पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने वाले बहुत कम हैं। किसी भी
बाजार में चले जाइए इक्का दुक्का किताबों की दुकान मिल जाए
तो गनीमत समझिए। दूकानदार कहते हैं कि पढ़ने वाले नहीं
हैं। पुस्तकें न केवल हमारा मनोरंजन करती हैं अपितु
ज्ञानवर्धन के साथ साथ चीज़ों को नए परिप्रेक्ष्य और
नज़रिये से देखने की समझ भी देती है। पढ़ना एक ऐसी बौद्धिक
प्रक्रिया है जो हमें समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों
पर सोचने की दिशा देती है।
जहाँ पुस्तकालय बन्द करके बारातघर बना दिए जाते हैं और
पुस्तकालय के लिए आरक्षित प्लॉट पर मॉल खड़े कर दिए जाते
हैं वहाँ हम क्या आशा करें कि लोगों का किताबों की ओर
झुकाव बढ़ेगा। पूँजीवाद की ओर बढ़ती दुनिया में क्या कहीं
बौद्धिकता का स्थान रह जाएगा? क्या किसी तराजू में कार,
बंगला, हीरे जवाहरात की दुनिया में किसी को किताबों की
आवश्यकता भी महसूस होगी? ये प्रश्न मेरे मन में उठते जरूर
है पर मेरे पास किताबें हैं, मेरा मन आज भी इनमें रमता है
और यही मेरी अमूल्य निधि हैं।
३० अगस्त २०१० |