खोज
खोई हुई खुशी की
-डॉ.गीता शर्मा
कहा जाता है
कि संसार में सबसे अधिक खुश रहने वालों में भारतीय लोगों का
स्थान काफी ऊँचा है। सर्वे भवन्तु सुखिनः की आचार संहिता पर
चलने वाले भारत- वासियों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण आस्था,
विश्वास और संतोष का रहा है। संतुष्टि और खुशी, ये दोनो
भावनाएँ अधिकतर साथ साथ रहती हैं, इसलिए भारतवासी छोटी-छोटी
चीज़ों में खुशियाँ तलाश लेते हैं। गीता का कर्मयोग का उपदेश
कर्म -पथ पर निरंतर बढ़ने की प्रेरणा तो देता है पर फल
प्राप्ति के लालच से सावधान भी करता रहता है। न जाने कितने
युगों से भारतीय जीवन-दर्शन केवल भारतीयों को ही नहीं, अपितु
अनेक विश्व- प्रसिद्ध मनीषियों को भी जीवन-संबल प्रदान करता
रहा है।
लेकिन आज का
युवा इस अमृत धारा से वंचित होता जा रहा है। आए दिन अखबार
युवाओं की आत्मघात की खबरों से भरे रहते हैं। यह आत्मघाती
प्रवृत्ति छोटे शहरों या गावों की अपेक्षा महानगरों में
ज्यादा पाई जाती है। हालात इतनी तेजी से खराब हो रहे हैं कि
यहाँ तक पढ़ने मे आ जाता है कि आठ वर्ष के बच्चे ने खिलौना
खरीद कर न दिए जाने पर आत्महत्या पर ली। संघर्ष जीवन का
पर्याय है। हर युग में मानव ने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष
किया है, हर युग में उसने अपनी तरह की लड़ाई लडी है। मानव का
इतिहास एक प्रकार से संघर्षों का ही इतिहास है, इसलिए यह
मानना कि आज के युग में परेशानियाँ इतनी बढ़ गई हैं कि
व्यक्ति आत्महत्या की ओर भागने लगा है, नितांत भ्रामक है।
इसकी जड़ें कही अधिक गहरी हैं जो समाज की बदलती हुई मानसिकता
का में ढूँढी जा सकती हैं।
पिछली पीढ़ी के संयुक्त परिवार में बड़ा होता बच्चा दूसरों की
भावनाओं को समझता था, चाहे-अनचाहे उसे दूसरों के लिए अपनी
इच्छाओं को मारना भी पड़ता था। एक प्रकार की उदारता उसके
अनजाने ही उसके व्यक्तित्व में समाहित हो जाती थी। वह इससे
मिलने वाले आनंद से परिचित हो जाता था और त्याग व सहनशीलता
उसके व्यक्तित्व का अंग बन जाते थे। आत्मसंयम का विकास
स्वाभाविक रूप से उसके साथ होता रहता था। इन गुणों के विकास
के लिए उसे कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती
थी।
बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका घर
के बड़े-बुज़ुर्गों और उनकी कहानियों की होती थी। इनके माध्यम
से बच्चे अनजाने ही न केवल अपनी संस्कृति अपितु तमाम
नैतिकताओं और सामाजिक मान्यताओं से परिचित होते जाते थे। ये
संस्कार जीवन के कठिन समय में उसे संबल प्रदान करते थे। उसका
मार्गदर्शन करते थे। राम-सीता से लेकर गाँधी, भगतसिंह,
विवेकानंद आदि तक आदर्शों की लंबी परंपरा उसके पास हुआ करती
थी। उस समय करीब-करीब हर घर में इनके चित्र दिखाई पड़ जाते
थे। दूसरी ओर महाभारत और रामायण के पात्र तो भारतीय जन-जीवन
में इस तरह रच बस गए थे कि विवाह से मृत्यु पर्यंत गाए जाने
वाले लोकगीतों तथा संस्कारों का अपरिहार्य अंग बन गए थे। आम
भारतीय के लिए वे केवल पूजा की वस्तु नहीं अपितु वे मित्र ,
प्रिय और मार्गदर्शक भी थे। अतः जब कभी व्यक्ति पराजित हो कर
निराशा के गर्त में डूबने लगता था तो इनमें से कोई पात्र आकर
अपने उदाहरण से उसे उबार लेता था।
आज के महानगरों में रहने वाला युवा अपने संघर्षों मे नितांत
एकाकी है। दादा-दादी, नाना-नानी तो दूर हो ही गए हैं, उनके
साथ ही व्यस्तता के कारण माता पिता भी समय नहीं दे पाते।
इकलौती संतानों के लिए यह समस्या और भी भयंकर होती है। अपनी
परेशानियों के साथ मिले उससे भी भयानक अकेलेपन से घबरा कर कई
बार वह आत्महत्या की ओर भागता है। आदर्श के नाम पर उसके पास
वह युवा वर्ग है जिसका एकमात्र लक्ष्य पैसा कमाना है। चाहे
जैसे भी कमाया जाए बस जल्दी से जल्दी अमीर और प्रसिद्ध बनना
ही जीवन की सफलता का पैमाना बन गया है। आज के फिल्मी या
क्रिकेट सितारे कंपनियों से मोटी रकम वसूल कर ये अपनी छवि को
भुनाते हैं और रात-दिन घर के ड्राइंगरूम से लेकर सड़कों-
बाज़ारों तक हर जगह गुटका, सिगरेट, शराब से लेकर कोक, बिस्कुट
तक बेचते दिखते हैं। ये आदर्श युवाओं को किसी आदर्श की ओर
प्रेरित करते नहीं दिखते। आज के युग में राम—रामा,
कृष्ण—कृष्णा तथा गणेश—गणेशा बन गए हैं। इनके अंग्रेज़ीकरण के
साथ ही इनके प्रति श्रद्धा का भी रूपांतरण हो गया है । अब
कृष्ण माखनचोर नहीं, बटर-थीफ हो गए हैं।
सादा जीवन उच्च विचार वाली पीढ़ी का युग बीत गया। खाओ पीयो ऐश
करो—के आदर्श पर चलने वाली इस पीढ़ी उस माता-पिता की संतान है
जिसने सफल होने के लिए घनघोर संघर्ष किया था। जिन्होने बचपन
से अपने माता-पिता की परिस्थितियों को समझा था। जिनके पास आज
की तरह सुविधाएँ नहीं थीं। उन्होने अपने स्वप्नों को साकार
करने के लिए अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखते हुए मेहनत की और सफल
हुए। उनके समय का आदर्श वाक्य था— किसी वस्तु पर अधिकार पाने
से पहले उसके योग्य बनो।
आज जब उनकी संताने युवा हो रही हैं तो ये माता पिता भी दो
मानसिकताओ में बँटे हुए नज़र आते हैं। एक ओर वे अपने बचपन के
संघर्षों को नही भूल पाते और अपने बच्चों को वे सारी सुविधाएँ
और खुशिय़ाँ देना चाहते हैं जिनसे वे स्वयं अपने बाल्यकाल में
वंचित रहे। वे उन्हे सभी दुखों और कमियों से बचाना चाहते हैं,
जिन्हे उन्होने खुद भुगता था। दूसरी ओर अपनी तमाम उन इच्छाओं
को भी बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं जो अधूरी रह
गई थीं। कहने का तात्पर्य यह है कि एक ओर तो वे कहते मिलते
हैं कि हम अपने बच्चों को वे सारी सुविधाएँ और खुशियाँ देना
चाहते हैं जिनके लिए हम बचपन मे तरसे हैं। दूसरी ओर वे बच्चों
को लगातार अपनी संघर्ष कथाएँ सुना कर यह भी कहते हैं- हमने
इतना संघर्ष किया तुम्हारी तरह हमें हर चीज़ बैठे-बिठाए ही
नहीं मिल गई। वे अपने बच्चों को सुविधाएँ देते हैं मगर बदले
में उनसे बहुत अधिक आशाएँ भी करते हैं।
आज का युवा भी दो विसंगतियों में फंसा हुआ है। एक ओर
माता-पिता उसे संघर्ष करने और भविष्य बनाने की ओर प्रेरित
करते हैं तो दूसरी ओर उसके सामने सुविधाओं का पहाड़ खड़ा कर
देते हैं। कई बार तो बच्चों के पास उसकी आवश्यकता से कहीं
ज्यादा वस्तुएँ होती हैं, इसलिए लक्ष्य को प्राप्त करने और
सफलता के लिए संघर्ष करने का जो जुनून आवश्यक होता है वह जन्म
ही नहीं ले पाता। अधिकांश महानगरीय उच्चमध्यवर्गीय घरों में
बच्चा अकेली संतान होता है उसे न त्याग करने की ज़रूरत होती
है न हि आत्मसंयम की। उसे तो हारने तक की आदत नहीं होती। वह
खुद को ही सर्वश्रेष्ठ और विजेता समझता हुआ बड़ा होता है।
परिणामस्वरूप दूसरे के गुणों को स्वीकारने या दूसरे को सम्मान
देने की उसे आदत ही नही पड़ती। अतः पराजय देखते ही उसे
मृत्युकामी घनघोर निराशा घेर लेती है।
अनेक कारणों से आज के युवा वर्ग का मानसिक-संघर्ष अधिक सघन हो
गया है। वह एक ओर मित्र-वर्ग में स्वयं को बिंदास दिखाना
चाहता है तो दूसरी ओर माता-पिता की अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना
चाहता है। एक ओर चकाचौंध कर देने वाले बाज़ारवाद का जबरदस्त
तूफ़ान है तो दूसरी ओर आदर्शवादी जड़ों की अनुपस्थिति। इस
अवसादमय वातावरण से युवा पीढ़ी को बाहर निकाल कर स्वस्थ और
नैतिक बल से युक्त करना कितना आवश्यक है इसे हम स्वयं अच्छी
तरह समझ सकते हैं। यदि ऐसा न हो सका तो संसार में सबसे अधिक
खुश रहने वाले लोगों का हमारा देश कहीं सबसे अधिक निराश लोगों
का देश न बन जाए।
७ जून २०१० |