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दृष्टिकोण

मुफ़्त की आज़ादी
--ऋषभ देव शर्मा
 

हमारी पीढ़ी को स्वतंत्रता अर्जित नहीं करनी पड़ी। पिछली पीढ़ियों के संचित पुण्यों की तरह मिल गई। मिल गई तो मिल गई! सेंत में मिली किसी भी चीज़ की कद्र कभी किसी ने जानी है? तो भला हम कैसे आज़ादी की कद्र जानते? पर जब आज़ादियों में कटौती होती है, तब कैसा-कैसा तो लगता है! आज़ादी में कटौती? यह क्या चीज़ है? संविधान ने हमें हर तरह की आज़ादी की गारंटी दी है न? तो बस, हम हैं आज़ाद हर तरह से। हम सर्वसत्ता संपन्न संप्रभु देश हैं आज - भले ही हमें अपने हर बड़े फ़ैसले से पहले अमेरिका की भृकुटियों का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती हो। जनता जनतंत्र का प्रभु है - भले ही उसे हर नीति के बाहर खड़ा कर दिया जाता हो। जनता ठहरी भीड़। और भीड़ पर विश्वास कैसे किया जा सकता है! तो विश्वास करें, जनता के प्रतिनिधियों पर? हाँ वे तो स्वतंत्रता के संरक्षक हैं। और अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए? तो क्या जनता इन अपने तथाकथित प्रतिनिधियों को वापस भी बुला सकती है? अगर नहीं तो यह कैसी स्वतंत्रता है? कहाँ की संप्रभुता है? कानून के राज्य, समानता और सामाजिक न्याय की तो बात ही मत कीजिए। इन कटघरों में बँधे, तो आज़ादी कैसी? ना, आज जिस तरह की आज़ादी का उपयोग यह देश कर रहा है, वह इन चौहद्दियों में नहीं आती। कोई चाहे तो इसे अराजकता कह ले!

इसी तरह के उल्टे-सीधे ख़याल तब हर बार खोपड़ी को कुरेदते हैं जब हर साल हमारा प्यारा पंद्रह अगस्त आता है। पंद्रह अगस्त से पहले नौ अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगाँठ भी हर साल पड़ा करती है। अंग्रेज़ तो भारत छोड़ गए पर अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत को भारत में ही छोड़ गए। उपनिवेश तो नहीं रहे अब हम, पर आज भी हमारे ऊपर अंग्रेज-मानस का ही शासन है।

सबसे पहली आज़ादी मानसिक आज़ादी होती है। मन मुक्त न हुआ, तो न शरीर मुक्त हो सकता है, न आत्मा। भारत माता के शरीर को तो मुक्त कर गए अंग्रेज़ पर मन और आत्मा कहाँ मुक्त हुए? अंग्रेज़ी का प्रेत देश की आत्मा में घुसा बैठा है और मन पर राज्य कर रहा है। हम एक डरा हुआ देश बन गए हैं। कोई भी हमें घुड़की दे सकता है, डपट सकता है, पीट सकता है। और हम हैं कि फर्शी सलाम बजाए जा रहे हैं दरबार से लेकर बाज़ार तक।

इस भय के प्रेत से मुक्त होना ही स्वतंत्रता का मूल मंत्र है। हम भयभीत भीड़ भर थे इसीलिए तो हज़ारों साल जाने किस किस के गुलाम रहे - सच मानिए हम तो गुलामों के भी गुलाम रहे! हमारी नसों में भरे इस गुलामी के ज़हर को ही तो बूँद-बूँद निचोड़कर नया लहू संचारित करने का काम नव जागरण और स्वतंत्रता के आंदोलन ने किया था। वह नया लहू ही तो था जो डेढ़ सौ साल पहले मंगल पांडे की रगों में उछला था और महारानी लक्ष्मी बाई के हृदय में उबला था। वह नया लहू ही तो था जिसने कभी गांधी तो कभी सुभाष, कभी लाला लाजपत राय तो कभी सरदार भगत सिंह को विदेशी सत्ता से जूझने का अमिट हौसला दिया था।

यह हौसला पैदा होना ही आज़ादी की शुरुआत था। इस हौसले का अर्थ था आत्मबल का जागरण। देश का आत्मबल जागा तो भय भागा। भय इतना ही था न कि सुविधाएँ छिन जाएँगी! यही भय तो गुलामी का कारण था। जो भी कोई भी कहीं भी गुलामी झेल रहा है, इसी डर से झेल रहा है कि मिली हुई सुविधाएँ न छिन जाएँ। आज़ादी के बदले में हमें थोड़ी-सी सुविधाएँ मिला करती हैं - और हम उन्हें ही जीवन समझ लेते हैं - बंधनों में पड़े रहते हैं। हमारे मज़दूर, हमारी स्त्रियाँ, हमारा मध्यवर्ग, हमारा उच्च वर्ग सब किसी न किसी तरह की आसानी के लोभ में गुलामी की ज़िंदगी जीते हैं! जिन्होंने आज़ादी को अपनी दुल्हन बनाया, उन्होंने भोग विलास का त्याग करना और कठिनाइयों को झेलना सीखा। आप कठिनाइयों को झेलना सीख लें तो कोई आपको गुलाम नहीं रख सकता। कठिनाइयों का भय ही तो हम से समझौते करवाता है। स्वतंत्रता आंदोलन ने इस देश की सदियों से सोई जनता को जब झकझोर कर जगाया और आत्मबल का संचार किया तो हर कंठ से तिलक की हुंकार सुनाई पड़ी थी - स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। किसका जन्मसिद्ध अधिकार है स्वतंत्रता? उसी का, जिसके पास आत्मबल हो। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास `रंगभूमि` में अंधे-भिखारी सूरदास को नायकत्व प्रदान करते हुए बताया है कि वह कोई साधु-महात्मा या देवता-फरिश्ता न था। इन्हीं के पास तो हम मुक्ति खोजने जाते हैं! पर नहीं, सूरदास ये सब नहीं था, फिर भी नायक था। सूरदास में क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार - सारे अवगुण थे। पर एक गुण था कि अन्याय देखकर उससे रहा न जाता था, अनीति उसे असह्य थी।

मैं सोचता हूँ, अगर इस महादेश के पास सचमुच सदा से आत्मबल था तो यह सदियों तक चुपचाप अन्याय क्यों देखता रहा, अनीति क्यों सहता रहा! नहीं था आत्मबल हमारे पास। हम गुलामी की रोटियाँ तोड़ने के आदी हो गए थे। आज फिर हम दूसरी तरह की गुलामी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं। तभी तो एक समर्थ लोकतंत्र होने का दावा करते हुए भी घर-बाहर, देस-परदेस, सर्वव्यापी अन्याय और अनीति को देखकर भी हम चुप लगा जाते हैं। जागरण का जो रथ १५ अगस्त १९४७ को लालकिले के सामने रुक गया था, आज भी वहीं खड़ा है और हम आज़ादी का ढोंग जी रहे हैं। मुझे प्राय: 'करवट' उपन्यास में कही अमृतलाल नागर की यह उक्ति कचोटती है कि ''हमारा समाज काई और दुर्गंध से सड़ा हुआ बंद तालाब हो गया है। इसके पानी को फिर से स्वच्छ करना ही होगा।'' आप चाहें तो दुष्यंत कुमार के इस शेर से भी प्रेरणा ले सकते हैं - ''अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं।'' उन्होंने यह बात १९७५ में कही थी। पर हम कोशिश करके भी व्यवस्था के तालाब का पानी बदल नहीं सके और कमल के फूल ही नहीं मुरझाते रहे, आज़ादी की मछलियाँ भी मरती रहीं। हम फिर-फिर वही गंदला पानी इस महाताल में भरते रहे और आज यह सड़ाँध लोकतंत्र के शिखर तक जा पहुँची है।

आख़िर ऐसा कैसे हो गया? उत्तर स्पष्ट है, हम यानी भारत की जनता तनिक-सा आराम मिलते ही संघर्ष से कन्नी काटने लगते हैं। कुछ ऊपरी बदलावों में रमकर हम यह भूल गए कि आधारभूत ढाँचे में भी आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। लोकतंत्र के संस्कार जब तक एक-एक आदमी के भीतर नहीं जमेंगे, तब तक तनिक-सी भी अनीति देखकर उठ खड़ा होने वाला प्रेमचंद के सूरदास जैसा व्यक्तित्व निर्मित नहीं हो सकता। जब तक ऐसा प्रतिरोधी व्यक्तित्व नहीं बनता जनता का, तब तक नेताओं और अपराधियों की दुरभिसंधियों को रोका नहीं जा सकता। और इसमें संदेह नहीं कि जब तक इस तरह की दुरभिसंधियाँ सफल होती रहेंगी, तब तक आज़ादी को असफल ही माना जाएगा। अंग्रेज़ियत में लिपे-पुते हम कब तक कटी दुम के कुत्ते बने घूमते रहेंगे? कब तक हमारे राजनैतिक आका हमें तरह-तरह के खानों में बाँट कर हमारी नई तरह की गुलामी को पुख्ता करते रहेंगे?

नई तरह की गुलामी से मेरा मतलब नेताओं की बिरादरी का हित साधने वाली गूँगी और असहाय जनता बन जाने से है। हम गूंगे और असहाय इसलिए बन गए हैं कि कहने भर को हम एक देश हैं, अन्यथा नेताओं की बिरादरी ने हमें अनेक छोटे-छोटे कमज़ोर टुकड़ों में बाँट दिया है। एक समय था जब हम वर्णों में बँटे होकर भी विराट-पुरुष के परस्पर सहयोगी अंग थे लेकिन सवर्ण-अवर्ण, अगड़े-पिछड़े, हिंदू-मुस्लिम, उत्तर-दक्षिण, यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष जैसे अलग-अलग राजनैतिक खानों में बाँटकर आज की नेता-बिरादरी ने हमें परस्पर विरोधी गुट बना दिया है। इसी का परिणाम है कि वे हर चुनाव में हमारा उपयोग करते हैं और भूल जाते हैं। हम गूँगे और असहाय अकेले-अकेले एक-दूसरे से अलग-थलग लोकतंत्र की लाज लुटते देखते रह जाते हैं।

फिर एक सवाल हमें अपने आपसे पूछना होगा कि क्या राजनीतिक साज़िशों को समझने के बावजूद हमारा एका संभव नहीं है। मुझे लगता है कि ज़रूर संभव है। इस एके को हमें एक बार फिर स्वतंत्रता आंदोलन के युग की तरह सिद्ध करना होगा। आज जब हम १८५७ की क्रांति की १५०वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं, हमें याद करना चाहिए कि वह आंदोलन अंग्रेज़ों द्वारा कुचल दिए जाने के बावजूद इस अर्थ में सफल था कि उससे हम भारतीयों ने एक तो निर्भीकता का पाठ पढ़ा और दूसरे यह जाना कि बिखरे हुए और असंगठित रहकर हम स्वतंत्रता के शत्रुओं का सामना नहीं कर सकते। उसी आंदोलन से हमें यह सीख मिली कि भारत की राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा कितनी ज़रूरी है। इसीलिए महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का एक अनिवार्य अंग बनाया था।

मुझे लगता है कि आज फिर राष्ट्रभाषा के आंदोलन को नई चेतना के साथ पुनर्जीवित करने की जरूरत है। यदि परतंत्र भारत में हिंदी संपूर्ण राष्ट्र को जोड़ने वाली कड़ी बनी थी, तो इसमें संदेह नहीं कि आज स्वतंत्र भारत में भी वह एक बार फिर पूरे देश को जोड़ने का माध्यम बन सकती है। इसके लिए हमें हिंदी को किसी क्षेत्र विशेष की भाषा के स्थान पर संपूर्ण भारत की भाषा की तरह देखना होगा तथा संविधान में उसके स्वीकृत स्थान को उसे व्यवहारत: प्रदान करना होगा। ऐसा करने से अन्य भारतीय भाषाओं को भी वह स्थान मिलेगा जिसकी वे वैधानिक रूप से अधिकारिणी हैं। भारतीय भाषाओं की यह प्रतिष्ठा जनता के मनों से उस मैल को निकाल सकेगी जिसके सहारे स्वार्थी दलगत राजनीति पनपती है।

इतना ही नहीं, हिंदी को विश्व-भाषा बनाने की कवायद भी तभी सार्थक और सफल हो सकती है जब हम अपनी भाषाओं में अपना सारा काम करके अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और स्वतंत्रता को प्रमाणित करें, अन्यथा दुनिया भर में हम दोहरे आचरण के कारण हँसी के पात्र बने रहेंगे।

२६ जनवरी २००९

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