भारत की विदेश नीति तो बनाई
जवाहरलाल नेहरू ने और चलाई कई प्रधानमंत्रियों ने लेकिन जैसे झंडे इंदिरा गांधी ने
गाड़े, कोई और नहीं गाड़ सका। ऐसे चमत्कारी काम कभी-कभी सुसंयोग और अनुकूल
परिस्थितियों के कारण भी हो जाते हैं लेकिन जिन कामों का यहाँ जिक्र किया जा रहा
है, वे हो ही नहीं सकते थे, अगर इंदिरा गांधी नहीं होतीं। इंदिरा गांधी नहीं होतीं
तो क्या बांग्लादेश बन सकता था? क्या पोखरन का परमाणु-विस्फोट हो सकता था? क्या
सिक्किम का विलय हो सकता था? क्या श्रीलंका की हिंसक बगावत काबू की जा सकती थी?
क्या दीन-दरिद्र और बड़बोला भारत दक्षिण एशिया की महाशक्ति बन सकता था?
इंदिरा गांधी को जो विदेश नीति मिली, वह कैसी थी? १९६२ के युद्घ में भारत चीन से
पराजित हो चुका था और १९६५ के युद्घ में हमें पाकिस्तान के साथ ताशकंद समझौता करना
पड़ा था। गुट-निरपेक्षता और विश्वयारी का सपना चूर-चूर हो चुका था। दुनिया का कोई
भी राष्ट्र भारत की सहायता के लिए नहीं दौड़ा। जिस सोवियत संघ को हम अपना स्वाभाविक
मित्र मानते थे, उसने चीन के विरूद्घ पत्ता तक नहीं हिलाया। हमें झक मारकर अमेरिका
की शरण में जाना पड़ा। जॉन एफ. केनेडी सरकार से कई छोटी-मोटी मदद लेनी पड़ीं।
गुट-निरपेक्षता के बहाने भारत जो उपदेश झाड़ा करता था, उन्हें डिब्बे में बंद करना
पड़ा। गुट-निरपेक्ष संसार में भारत की चमक फीकी पड़ गई। उधर पाकिस्तान के हौसले
इतने बढ़ गए कि उसने डंडे के जोर पर कश्मीर हथियाने की हिमाकत की। उसके घुसपैठियों
को भारत ने मार भगाने की कोशिश की तो पाकिस्तान ने युद्घ ही छेड़ दिया। भारत ने जब
अंतरराष्ट्रीय सीमा पार की तो सारी दुनिया में शोर मच गया। किसी ने भी भारत का साथ
नहीं दिया। भारत की विदेश नीति इतनी कमज़ोर हो गई थी कि भारत के पड़ौसी देश भी
अमेरिका और चीन से अपने संबंध बढ़ाने लगे थे। भारत को आर्थिक स्थिति भी विषम होती
चली जा रही थी। भारत को पीएल-४८० का अनाज आयात करना पड़ता था और रुपये का अवमूल्यन
करना पड़ा था।
ऐसे विकट समय में इंदिरा गांधी ने भारत की कमान संभाली। सबसे पहले उन्होंने हरित
क्रांति के जरिए अनाज के मामले में भारत को आत्म-निर्भर बनाया ताकि उसे विदेशी
शक्तियों के आगे हाथ न फैलाना पड़े। उन्होंने गुट-निरपेक्षता की गुम हुई चमक को
वापस लौटाया। अमेरिकी राष्ट्रपतियों के साथ उन्होंने मातहत का नहीं, बराबरी का
व्यवहार किया। लिंडन जॉन्सन, रोनाल्ड रेगन और रिचर्ड निक्सन जैसे राष्ट्रपतियों के
संस्मरण इस तथ्य के प्रमाण हैं। उन्होंने हर मुद्रदे पर वही राय प्रकट की, जो भारत
के हित में थी। वे दबाव में नहीं आईं। चाहे वियतनाम का मसला हो, चेकोस्लोवाकिया का
हो, फलस्तीन का हो या अफगानिस्तान का हो। बांग्लादेश युद्घ के समय रिचर्ड निक्सन ने
भारत को डराने के लिए बंगाल की खाड़ी में 'एंटरप्राइज़' नामक जंगी बेड़ा भेजा दिया
था। इंदिरा गांधी ने साफ कह दिया कि अगर वह बेड़ा पाकिस्तान की तरफ से हस्तक्षेप
करेगा तो हम उसे डुबो देंगे। अमेरिकी गीदड़ भभकी कुछ काम नहीं आई और बांग्लादेश बन
गया। निक्सन को मजबूर होकर नए दक्षिण एशिया को मान्यता देनी पड़ी। उन्हें मानना
पड़ा कि भारत दक्षिण एशिया की प्रमुखतम शक्ति है।
इसी प्रकार अमेरिका और अन्य अनेक पश्चिमी राष्ट्रों ने भारत पर तरह-तरह के दबाव
डाले ताकि वह परमाणु-अप्रसार संधि पर दस्तखत कर दे। उन्होंने प्रलोभन भी दिए। लेकिन
इंदिरा गांधी अपने संकल्प पर डटी रहीं। उन्होंने न केवल उस संधि पर दस्तखत नहीं किए
बल्कि १९७४ में परमाणु अंत:स्फोट कर दिया। सारी दुनिया चकित हो गई। किसी भी राष्ट्र
ने भारत का समर्थन नहीं किया लेकिन इंदिरा गांधी ज़रा भी नहीं घबराईं। उन्होंने
पश्चिमी राष्ट्रों और उनके पिछलग्गुओं को डटकर जवाब दिए। परमाणु सामंतवाद को सीधी
चुनौती दी। पश्चिमी राष्ट्रों ने खिसियाकर भारत पर अनेक प्रतिबंध थोप दिए लेकिन
इंदिराजी ने उनकी ज़रा भी परवाह नहीं की। १९७१ में बांग्लादेश के निर्माण और १९७४
के परमाणु अंत:स्फोट ने भारत को दुनिया की छठी महाशक्ति बना दिया। वह पांच बड़ों के
क्लब में अपने आप शामिल हो गया। पश्चिमी राष्ट्रों की खुमारी टूटने लगी। उनका वह
चिरपोषित सपना भंग होने लगा, जिसके तहत भारत और पाकिस्तान को एक ही जाजम पर बिठाने
की कोशिश की जाती थी। भारत की इज्ज़त गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के बीच रातोंरात
दुबारा चमक उठी। भारत के परमाणु बम को गुट-निरपेक्ष बम का अयाचित दर्जा मिल गया।
पड़ौसी देश भी अपना रूख बदलने लगे। चीन अपना बम एक दशक पहले फोड़ चुका था लेकिन
उसने भी भारत का विरोध किया। परमाणु मामले में भारत का विरोध करने के बावजूद चीन ने
महसूस किया कि उसे अब भारत से अपने संबंध सहज करने होंगे। भंग हुए कूटनीतिक रिश्ते
दुबारा कायम हुए। पाकिस्तान को पहली बार यह बात समझ में आई कि डंडे के ज़ोर पर
कश्मीर हथियाना लगभग असंभव है। जनरल जि़या के पाकिस्तान ने अयुद्घ-संधि का हाथ
बढ़ाया लेकिन इंदिरा गांधी ने उसे झटक दिया।
इंदिरा गांधी ने पश्चिमी राष्ट्रों को कई झटके दिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि
उन्होंने सोवियत संघ के आगे आत्म-समर्पण कर दिया। उन्होंने १९६८ में उस सोवियत
सैन्य हस्तक्षेप की निंदा नहीं की, जो दूबचेक की सरकार के विरूद्घ चेकोस्लावाकिया
में किया गया था लेकिन उन्होंने उसका समर्थन भी नहीं किया। उन्हीं दिनों लियोनिद
ब्रेझनेव ने 'सीमित संप्रभुता' और 'एशियाई सामूहिक सुरक्षा' के सिद्घांत भी पेश
किए। इंदिराजी ने इन दोनों सिद्घांतों को रद्रद कर दिया। वे भारत को किसी भी कीमत
पर सोवियत गुट का पिछलग्गू बनाने को तैयार नहीं थीं। ब्रेझनेव ने बहुत कोशिश की कि
भारत अफगानिस्तान में रूसी हस्तक्षेप का समर्थन कर दे लेकिन इंदिराजी बराबर कहती
रहीं कि वे अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में बाहरी हस्तक्षेप का विरोध करती हैं।
अफगान प्रधानमंत्री बबरक कारमल के अनुरोध के बावजूद उन्होंने भारतीय फौजें काबुल
नहीं भेजीं। इंदिराजी ने वही नीतियाँ चलाईं, जिनसे भारत का राष्ट्रहित सधता था।
उन्होंने चीन से संबंध सुधारे लेकिन सीमा और तिब्बत के सवाल पर वे ज़रा भी टस से मस
नहीं हुईं। इसी प्रकार उन्होंने पाकिस्तान से भी संवाद शुरू किया लेकिन कश्मीर के
सवाल पर उन्होंने कोई नरमी नहीं दिखाई। पाकिस्तानी नेताओं के दिलों में इंदिरा
गांधी के नाम की कैसी दहशत बैठी हुई थी, यह मैंने उन दिनों पाकिस्तान-प्रवास के
दौरान खुद देखा है। पंजाब में चले आतंकवाद के विरूद्घ की गई उनकी कार्रवाई ने
पाकिस्तान के छक्के छुड़ा दिए थे। यदि इंदिरा गांधी जीवित होतीं तो कारगिल की
हिमाकत के पहले पाकिस्तान हजार बार सोचता। तालिबान से निपटने के लिए वे अमेरिकियों
का मुँह नहीं ताकतीं। वे उनकी जड़ों पर प्रहार करतीं।
इंदिरा गांधी ने सिर्फ पड़ौसी देशों और महाशक्तियों के साथ ही उचित संबंध नहीं
बनाए, उन्होंने भारत के विदेश-व्यापार और अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक संबंधों को भी
नए आयाम प्रदान किए। पहली बार भारत के प्रधानमंत्री ने अफ्रीका, आग्नेय एशिया और
लातीनी अमेरिकी देशों को विशद यात्राएँ की। सारी दुनिया भारत को महात्मा गांधी की
वजह से जानती थी, अब वह इंदिरा गांधी की वजह से भी जानने लगी। इंदिरा गांधी ने भारत
की विदेश नीति को आदर्शों के आसमान से नीचे उतारकर यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़ा
किया। ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, विदेश नीति के क्षेत्र में इंदिरा गांधी का नाम
पहले से ज्यादा चमकता जा रहा है। इंदिरा गांधी अपने पीछे विदेश नीति की इतनी शानदार
विरासत छोड़ गई हैं कि कई सदियों बाद भी उसको भुलाना असंभव होगा।
२ नवंबर २००९ |