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दृष्टिकोण

प्रतिभा पलायन की गंगा उलटी बहने लगी है।
विकसित कहे जाने वाले कई मुल्कों के विशेषज्ञ अब भारत में अवसर की तलाश में आने लगे हैं। कमलेश्वर

अपना देश इस समय सामाजिक-आर्थिक न्याय और चौतरफ़ा विकास के निर्णायक दौर से गुज़र रहा है। अगर जनसंख्या का प्रभावी नियमन और भ्रष्टाचार पर दस प्रतिशत नियंत्रण हो पाता तो यही विकास हमें प्रगति के रूप में दिखाई देने लगता, सामाजिक और आर्थिक न्याय के सवाल हमें सुलझते हुए नज़र आने लगते, लेकिन तटस्थ भाव से देखा जाए तो अपने लोकतंत्र ने हिचकोले खाते हुए भी बहुत कुछ ऐसा बदल डाला है, जिसकी उम्मीद टूट रही थी। दिमाग़ को सुन्न कर देने वाली बेइमानियाँ और दिलों को दहला देने वाले हादसे अभी भी हो रहे हैं। तमाम तरह के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक न्याय के सवाल अभी भी उलझे हुए हैं, पर बदलाव यह आया है कि उन्हें जनहित में सुलझाने के स्तर पर क्षेत्रीय और स्थानीय जनमत तैयार दिखाई देने लगा है। हम महसूस कर सकें या न कर सकें, पर यह चमत्कारिक परिवर्तन पंचायती राज द्वारा किए गए सशक्तिकरण ने कर दिखाया है। भारतीय ग्रामीण और कस्बाई समाज में सोच और जागरूकता की जो हलचल बढ़ी है, वह पंचायती राज की ही देन है।

यह माना कि अभी भी भारत की अधिकांश आबादी की बदहाली के आँकड़ें नहीं बदले हैं, पर यह भी तय है कि उन्हें बदलने की कश्मकश शुरू हो चुकी है। कुछ लोग इसका श्रेय भूमंडलीकरण की नीतियों और खुले बाज़ार की व्यवस्था को देना चाहेंगे, पर असलियत यह है कि परिवर्तन की यह प्रक्रिया अपने देश में वैश्विक भूमंडलीकरण के आगमन से पहले शुरू हो चुकी थी। एक ही मिसाल काफ़ी होगी कि भूमंडलीकरण से दशकों पहले अन्न की कमी से त्रस्त इस देश के पंजाब और हरियाणा प्रांतों ने हरित क्रांति के ज़रिए हमें आत्मनिर्भर ही नहीं, बल्कि अन्न निर्यातक देश के स्तर तक पचा दिया था।

यहाँ विस्तार में जाने की जगह नहीं है, लेकिन कुछ औसत और रोज़मर्रा उठनेवाली चिंता ओं को उठाया जाए तो भी बड़े सकारात्मक तथ्य सामने आए हैं। अंग्रेज़ी भाषा के वर्चस्व को ही ले लीजिए, अंग्रेज़ी के बढ़ते वर्चस्व को लेकर जायज़ चिंताएँ व्यक्त की जाती हैं, पर साथ ही इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि भारत की सभी प्रादेशिक राजधानियों और सरकारी कामकाज में हिंदी और प्रादेशिक भाषाएँ स्थापित हो चुकी है। यह सही है कि केंद्र सरकार अंग्रेज़ी में चलती है, पर इस देश का जीवंत लोकतंत्र हिंदी और अपनी भारतीय भाषाओं के बल पर ही चलता है। अंग्रेज़ी केवल फुनगी यानी शिखर की भाषा है, जड़ों की नहीं। हिंदी और भारतीय भाषाओं के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार पत्रों का जो अभूतपूर्व विकास हुआ है, वह दुनिया के किसी देश में संभव नहीं हुआ है। अंग्रेज़ी सहित चीन की मंदारिन भाषा में भी नहीं। आज भारत में अमेरिका से कहीं ज़्यादा टीवी चैनल हैं और उनमें हिंदी चैनलों की लोकप्रियता और स्पर्धात्मक वर्चस्व को कोई अंग्रेज़ी चैनल आज तक तोड़ नहीं पाया है। इन चैनलों के तकनीकी क्षेत्र में अवसर पाने के लिए विदेशी तकनीशियनों की भीड़ आज भारत की ओर उन्मुख है।

यही हाल हमारी मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री का है, जो हॉलीवुड को पछाड़कर अब दुनिया की सबसे बड़ी लोक-संस्कृति और मनोरंजन की इंडस्ट्री बन चुकी हैं। कला में अभि रुचि रखनेवाला, दुनिया के किसी भी देश का प्रतिभा संपन्न व्यक्ति अब 'हजयात्रा' पर भारत आता है। उसकी पहली पसंद भारत है, अमेरिका का हॉलीवुड नहीं।

सूचना-संचार की दुनिया को तो भारत ने अपनी विशेषज्ञता, मेधा और प्रतिभा के बल पर पूरी तरह बदल डाला है। भारतीय प्रतिभा पलायन की परंपरा पूरी तरह टूट चुकी है। आज अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और आस्ट्रेलिया जैसे देशों की युवा प्रतिभा भारत के सूचना-संचार सेक्टर में शामिल होने के लिए कतार में खड़ी है। यही स्थिति रेलवे और कार निर्माण के सेक्टर की है, अभी तक हमारी टीमें फ्रांस, ब्रिटेन और जापान जाया करती थीं, अब उन्नत और कारगर तकनीकी जानकारी के लिए इन देशों के अलावा विकासशील लैटिन अमेरिकी, अफ्रीकी और यूरोपीय संघ के विकसित देशों की टीमें भारत आती हैं।

यह ठीक है कि फास्टफूड वाले मैकडोनाल्ड, केएफसी, पेप्सी और कोकाकोला ने हमारा मध्यवर्गीय शहरी बाज़ार पकड़ा है, पर अमेरिका और कनाडा के पूरे फूड बाज़ार को भारत का गुजराती व्यवसायी अपने कब्ज़े में ले चुका है। मेडिसिन और डॉक्टरी विशेषज्ञता का आलम तो यह है कि मध्य एशिया और अरब देशों के साथ ही दक्षिणी एशिया का मरीज़ ही नहीं, उनका युवा तबका भी भारतीय मेडिकल संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए बड़ी संख्या में आने लगा है। यह बात दूसरी है कि हमारे राजनेता अभी भी इलाज और मेडिकल परामर्श के लिए अमेरिका की ओर भागते हैं और तो और दवा उद्योग क्षेत्र में भी भारत अपने मज़बूत कदम आगे बढ़ा चुका है। हर्बल और आयुर्वेदिक बाज़ार की बात न भी करें तो भी एलोपैथिक मेडिसिन के क्षेत्र में विश्वविख्यात देश स्विट्ज़रलैंड की नामी-गिरामी कंपनियों को उत्पादन की गुणवत्ता और विश्वसनीयता के मामले में भारत बहुत पीछे छोड़ चुका है। उनके विशेषज्ञ भारत की दवाई कंपनियों में काम करने और अपनी प्रतिभा को चमकाने के लिए आकर्षित हो चुके हैं और उनके पैर भारत की ओर मुड़ गए हैं।

संक्षेप में, जबसे भारत का आकाश उन्मुक्त हुआ है और हवाई यातायात बढ़ा है, तब से इंडोनेशिया, मलेशिया और कंबोडिया के अंग्रेज़ी पठित, क़रीब तीन हज़ार पायलट और तकनीशियन भारतीय कंपनियों में नौकरियाँ पा चुके हैं और सैंकड़ों अभी भी अर्ज़ियाँ लिए खड़े हैं। बायोटेक के क्षेत्र में भारत धाक जमा चुका है। जेनेटिक्स के क्षेत्र में प्रयोग करके अब भारत दुग्ध-क्रांति और नील-क्रांति (फिशरीज़) की दहलीज़ को पार कर चुका है। अमेरिका की सिलीकॉन वैली में गई हुई भारतीय प्रतिभा बहुत तेज़ी से भारत लौट रही है। टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट के स्नातक अब आँ ख बंद कर विदेशों में पलायन नहीं कर रहे हैं, वे भारत में ही बेहतर होते अवसरों के लिए प्रतीक्षारत हैं। यह सही है कि हिमालय जैसे ऊँचे और सागर जैसे गहरे सामाजिक और आर्थिक न्याय के प्रश्नों का सही और मानवीय निबटारा होना अभी बाकी है, लेकिन जो न्यूनतम हुआ और हो सका है, उसमें संभावनाएँ मौजूद हैं।

०१ फरवरी २००७

  
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