बीसवीं सदी के छठे एवं सातवें दशक में प्रतियोगी
परीक्षाओं में सबसे ज़्यादा पूछा जाने वाला सवाल होता था 'भारत से विदेश को होने
वाला ब्रेन-ड्रेन भारत के भविष्य के लिए हानिकारक है या नहीं।' इस बारे में तभी से
मेरा मत रहा है कि यह लाभदायक है। इसका कारण यह था कि भारत में ब्रेन की कोई कमी
नहीं थी, परंतु उसके समुचित उपयोग के अवसर इतने ख़राब थे कि यहाँ जो ब्रेन बेकार
साबित होता था, वही विदेश जाकर कमाल दिखाता था। भारत के मेडिकल कॉलेजों, आई.आई.टी.,
आई.आई.एम. में प्रशिक्षित ब्रेन्स ने आज पाश्चात्य देशों में भारत की धाक जमा दी
है। भारतीयों की विदेशों में खुले दिल से स्वीकार्यता का एक सांस्कृतिक कारण भी है।
वह है यहाँ के अधिसंख्य हिंदुओं की यह आस्था कि सभी धर्मों के ईश्वर एक ही है और
किसी भी धर्म के मानने वाले में एक ही ब्रह्म विद्यमान है। इस कारण वे प्रत्येक
धर्म के मानने वालों में उसी प्रेम एवं एकात्मकता से घुलमिल जाते हैं जैसे अपने
धर्म वालों में। इसी कारण वे दूसरे धर्म के मानने वालों को अपने धर्म में मिलाने का
अथवा धर्म के नाम पर विध्वंसात्मक कार्य करने का प्रयत्न भी नहीं करते हैं। वे
सदियों से संसार के अनेक देशों में वहाँ के निवासियों के साथ प्रेमपूर्वक रहते रहे
हैं।
गत वर्षों में अमेरिका, इंग्लैंड, रूस,
फ्रांस, इंडोनेशिया, कीनिया आदि अनेक देशों में आतंकवादी धमाके हुए हैं जिससे
पश्चिमी देशों के निवासियों के मस्तिष्क में भय व्याप्त हो गया है और उन्होंने
सुरक्षा संबंधी नियम सख़्त कर दिए हैं तथा वे वीसा देने में अधिक सतर्क हो गए हैं,
परंतु अपवादों को छोड़कर यह सख़्ती भारतीयों पर नहीं की गई है। विदेशियों को न केवल
भारतीयों की क़ाबिलीयत पर यक़ीन है वरन उनकी इंसानियत पर भी है। पर यह यक़ीन कब तक
कायम रहेगा हाल में हुए ग्लॉस्गो के धमाके ने इस पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। लंदन
व ग्लॉस्गो में आतंकवादी कार्यवाही के प्रयत्न के आरोप में जो लोग पकड़े गए हैं, वे
कोई ज़ाहिल भारतीय नहीं हैं वरन विज्ञान पढ़े हुए डाक्टर हैं। यदि ऐसे व्यक्ति
दूसरे निर्दोष इनसानों की हत्या करना अपना मज़हबी फ़र्ज़ समझ सकते हैं तो इंसान का
इंसानियत से विश्वास उठ जाना आश्चर्य की बात नहीं होगी।
पाश्चात्य देशों में रहने वाले भारतीय मूल के
निवासियों में इस घटना ने यह आशंका व्याप्त कर दी है कि कहीं इन कट्टरपंथी
फ़िदाईनों की इन ग़ैर-इंसानी हरकतों की वजह से सभी भारतीयों को शक की नज़र से न
देखा जाने लगे। उनकी यह आशंका निर्मूल नहीं है क्यों कि पाश्चात्य देशों के लोग
भारतीयों को चेहरे और रंग से पहचानते हैं न कि मज़हब या नाम से। यहाँ तक कि एक औसत
पाश्चात्य व्यक्ति इंडियन, पाकिस्तानी या बांग्लादेशी में नाम बताने पर भी भेद नहीं
कर पाता है।
दुर्भाग्यवश न तो भारत सरकार और न भारतीय मीडिया
द्वारा ऐसा प्रयत्न किया जा रहा है जिससे पश्चिमी देशों के लोग यह समझ सकें कि
अधिकांश भारतीय धर्म के विषय में अहिंसावादी हैं- धर्म के नाम पर निर्दोषों की
हत्या की बात सोचना उनके लिए पाप है। यदि किसी हिंदुस्तानी में ऐसी सोच है तो वह
भारत की पारंपरिक सोच न होकर विदेशियों द्वारा उस पर थोपी गई सोच है। कतिपय देश जो
धार्मिक कट्टरता से ग्रस्त हैं और भारत के धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की प्रगति से
त्रस्त हैं, भारतीयों के धार्मिक बहकावे में आ जाने वाले वर्ग को आतंकवाद के रास्ते
पर बरगलाने में लगे हुए हैं।
ग्लास्गो की घटना अपने में अकेली नहीं है वरन भारत
के शत्रुओं की रणनीति की सोची समझी चाल है और भविष्य में ऐसी घटनायें बार-बार होने
की बहुत संभावना है। वोट खोने के डर से अथवा धार्मिक ठप्पा लग जाने की आशंका से आज
यदि भारतीय प्रशासन एवं भारतीय मीडिया इन तथ्यों से पश्चिम को भलीभाँति अवगत कराने
में चूकता है, तो आश्चर्य की बात नहीं होगी कि शीघ्र ही समस्त भारतीयों को पश्चिम
में संदेह की नज़र से देखा जाने लगे।
९ अगस्त २००७ |