इस वर्ष हिंदी भाषा को एक नया शब्द मिला है-
गाँधीगिरी। यह
अलग बात है कि भाषा के जानकार और जिज्ञासु इस शब्द के निर्माण और निहितार्थ पर लंबी
बहस कर सकते हैं लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस एक अकेले शब्द
ने आज के समय और समाज में गाँधीवाद की प्रासंगिकता और प्रयोग पर नए सिरे से बहस छेड़
दी है। यह सभी को मालूम है कि इस बहस का कारण एक आम बंबइया हिंदी फ़िल्म 'लगे रहो
मुन्ना भाई' और उसके कथ्य के साथ निरंतर हो रहे प्रयोगों की नई- नई कड़ियाँ हैं। इधर
पत्र-पत्रिकाओं में इस फ़िल्म की जो समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं उनमें इसकी रेटिंग
काफ़ी ऊँची है। बाक्स ऑफ़िस का ग्राफ़ भी इसे रोज़ाना ऊपर दर्शा रहा है। मीडिया में
इसकी बूम है और आम जनता में धूम। दूसरी ओर गाँधीवादियों की नज़र में यह सब कुछ एक
मज़ाक़, मनोरंजन और मसाला मात्र है। फिर भी यह सवाल ज़रूरी और जायज़ है कि आज
गाँधीगिरी की ज़रूरत है तो आख़िर क्यों?
हर वर्ष ०२ अक्तूबर के हम सब लगभग रस्मी तौर बापू को याद
करते हैं। स्वाधीनता आंदोलन में उनके योगदान को याद करने के साथ उनके दिखाए
रास्ते पर चलने का संकल्प दोहराने के साथ बाकी बचे दिन को अवकाश और आनंद में गुज़ार
देते हैं।
दो अक्तूबर है गाँधी
एक दिन स्कूल-दफ्तर से छुट्टी है गाँधी
फ़ुरसत में
परिवार के साथ
गरमागरम पकौड़े खाना है गाँधी
ऑस्कर जीतने वाला बेन किंग्सले है गाँधी
(अशोक पांडे :' देखता हूँ सपने', पृ. ६७ )
रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्देशित और बेन किंग्सले द्वारा
अभिनीत फिल्म 'गाँधी' ने अपने समय में काफ़ी कोलाहल मचाया था और रिकार्ड ऑस्कर
अवार्ड भी जीता था किंतु यदि हम याद करें तो फिल्म 'गाँधी' को लेकर भारत में भक्ति
भाव ही ज़्यादा प्रकट हुआ था। उस फ़िल्म ने हमारे समय और समाज में कोई ख़ास
उथल-पुथल नहीं मचाई थी। उस समय हम भारतीय लोग अपने महात्मा के महत्व का महिमामंडन
सिनेमा के परदे पर देखकर मुग्ध और मुदित थे। फिल्म 'गाँधी' को देखकर तब के भारतीय
भावुक होते थे और साबरमती के संत तू ने कर दिया कमाल की कथा के क़ायल होने तक ही
सीमित थे। आज का समय भावुक होने का समय नहीं है। यह भय, भाग-दौड़ और भंडार भरने का
समय है।
लुभावने विज्ञापन हैं और सूक्ष्म प्रविधियाँ
पहले विज्ञान को बदला और अब बदला जा रहा है कला को
संवेदना नष्ट करने के माध्यम में
कि मनुष्य को बदला जा सके औजार में।
सबसे अवांछित हैं वे लोग
जो बात-बात में हो जाते हैं भावुक।
(कुमार अंबुज : 'क्रूरता', पृ.६० )
इस साल ऑस्कर पुरस्कार के लिए भारत की प्रविष्टि की दौड़
में 'लगे रहो मुन्ना भाई' शामिल थी किंतु अंतत: 'रंग दे बसंती' भेजी गई। 'लगे रहो
मुन्ना भाई' भी स्वतंत्र प्रविष्टि के रूप में भेजे जाने की तैयारी में है। कथ्य,
शिल्प और कुल मिलाकर कलात्मक प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से 'रंग दे बसंती' एक बेहतर और बेजोड़ फ़िल्म है। आज की युवा पीढ़ी के भटकाव और भविष्य को यह बेहद बारीकी और बेबाक
तरीके से बयान करने के साथ ही सिनेमा की कला का पूरा निर्वाह भी करती है जबकि 'लगे रहो
मुन्ना भाई' में एक खिलंदड़ापन है। कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर यहाँ सब कुछ
बिंदास है। एक आम बंबइया हिंदी फ़िल्म में जो कुछ दिखाया जाता है वह मौजूद है,
बावजूद इसके 'लगे रहो मुन्ना भाई' की मास अपील का मामला इतना मामूली नहीं है। यह एक अयथार्थवादी फ़िल्म होते हुए भी यथार्थ को इतने सशक्त तरीके से रखती है कि बॉलीवुड
के बिज़नेस गुरुओं की कयासगिरी का कचूमर निकल जाता है। वे इस बात पर दोबारा सोचने को
मजबूर होते दिखाई दे रहे हैं कि यहाँ सिर्फ़ शाहरूख और सेक्स बिकता है! दोनों ही फ़िल्मों में केवल यही एक समानता नहीं है कि इनमें न शाहरूख है न सेक्स बल्कि औज़ार
के रूप में मीडिया का इस्तेमाल दोनों ही फ़िल्मों की एक उल्लेखनीय समानता है। यह मीडिया की शक्ति का नहीं बल्कि उसकी अनिवार्यता का उदाहरण है। साथ यह भी सच है कि
दोनों ही फ़िल्मों की अधिकाधिक चर्चा का कारण मीडिया के मुख्य समाचारों में बने
रहना भी है। दोनों ही फ़िल्में फ़िल्म सें इतर वजहों से चर्चित हो रही हैं। कम से
कम 'लगे रहो मुन्ना भाई' के बारे में तो यह साफ़ दिखाई दे रहा है।
यह सच है कि 'लगे रहो मुन्नाभाई' एक सफल आम बंबइया हिंदी
फ़िल्म है लेकिन इसकी ख़ास बात यह है कि यह गाँधीवाद के साथ एक नए प्रयोग का ऐसा
काल्पनिक प्रस्तुतीकरण है जो यथार्थ में घटित हो रहा है। टेलीविज़न और अख़बारों में
रोज़ाना इस फ़िल्म से प्रभावित और प्रेरित होकर किए जा रहे प्रयोगों के समाचारों की
एक श्रृंखला-सी चल पड़ी है। छोटे बड़े-मँझोले सभी तरह के शहरों से न्यूज़ और ब्रेकिंग
न्यूज़ की झड़ी-सी लग गई दीख रही है। लोगबाग अपने विरोधियों और सरकारी तंत्र के
प्रति ग़ुस्से का इज़हार फूल देकर कर रहे हैं। सुना है कि कुछ जगहों पर गुलाब के
फूलों की बिक्री बढ़ गई है। साथ ही यह भी ख़बर है कि गाँधी जी की आत्मकथा सत्य के साथ
मेरे प्रयोग की बिक्री में भी इज़ाफ़ा हुआ है। आज जबकि पढ़ने की संस्कृति का क्षरण
हो रहा है ऐसे में यह एक सुखद आश्चर्य नहीं तो और क्या है! इस बीच गाँधीगिरी को
लेकर इतने आलेख इत्यादि छपे हैं कि कई किताबें तैयार हो सकती हैं, शायद हो भी गई
हों। इंटरनेट पर कुछ जालघर और चिट्ठे भी चल रहे हैं। कुल मिलाकर गाँधीगिरी की
हवा है लेकिन सवाल यह है कि इस हवा में कितनी हवा है और इसमें नया क्या है?
खोलता हूँ खिड़कियाँ
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल-भरी तसली-सा हिलाती।
मुझ से बाहर
मुझ से अनजान जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार।
(अरुण कमल: 'उर्वर प्रदेश', पृ. १५ )
मीडिया मुन्ना भाई के बहाने गाँधीवाद के नए अवतार या रूप के
आगमन की बात कर रहा है। गाँधीवादी विचारकों के लिए यह एक मज़ाक़ और मनोरंजन जगत का
खेल भर लग रहा है जो कुछ दिनों बाद तिरोहित हो जाएगा। कुछ व्यक्तियों और संगठनों के
लिए यह प्रचार पाने तथा समाचारों में बने रहने का शगल भी हो सकता है। फ़िल्मी
दुनिया के लिए यह नए विषयों के नए द्वार खोलने का एक सुनहरा अवसर भी हो सकता है।
अकादमिक जगत के लिए यह बहस-मुबाहसे का एक नया मौका भी है और मीडिया के लिए तो काम
और कमाई दोनों ही है। सच पूछिए तो गाँधीगिरी ने सबको कुछ न कुछ दिया है और सब उसे
अपने-अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं।
१६ जनवरी २००७
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