आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन का व्यग्रता से इंतज़ार है।
कुंडली देख कर फलित की चिंता है। कुंडली कह रही है कि इस बार हिंदी संयुक्त राष्ट्र
संघ की आधिकारिक भाषा बनेगी। न बन पाई तो कह देंगे कि कुछ ग्रह वक्र दृष्टि से देख
रहे थे, सो न बन पाई। ज्योतिष में यह बड़ी सुविधा है। दरअसल, लक्ष्य-प्राप्ति के लिए
सुविधाएँ हम जुटा नहीं पाते और दूसरों पर दोष मढ़ देते हैं। देखना यह है कि वे
कुग्रह कौन से हैं जो वक्र दृष्टि डाल रहे हैं। वस्तुत: अंदर झाँकना होगा। गड़बड़
हिंदी के बहिर्लोक में नहीं उसके अंतर्लोक में है।
चीनी आबादी जब सत्तर करोड़ थी, तो सारी आबादी ने
जनगणना के दौरान अपनी भाषा को मंदारिन बताया। और चीनी संसार में सर्वाधिक लोगों
द्वारा बोले जाने वाली भाषा के रूप में स्वीकृत हो गई। संयुक्त राष्ट्र संघ ने
तत्काल मान्यता दे दी। जबकि सच्चाई ये है कि चीन में उस समय ३०-४० भाषाएँ बोली जा
रही थीं। चित्रलिपि होने के कारण एक जैसी लगती ज़रूर थीं पर एक जैसी थीं नहीं। ऐसा
ही हमारे यहाँ है, उर्दू को छोड़कर हमारी लगभग सभी भाषाओं की आधारलिपि देवनागरी है,
पर हम स्वयं को एक भाषा-भाषी नहीं मानते। जनगणना में प्रांतीयता के आधार पर किसी ने
अपनी भाषा राजस्थानी लिखवाई, किसी ने भोजपुरी या मैथिली। इसी अंतर्लोक को दुरुस्त
करना है।
हिंदी की दुर्दशा पर रोने से कोई लाभ नहीं होने
वाला। दुर्दशा तो है, लेकिन जहाँ हिंदी में रौनक है, ताल है, तेवर है, सौंदर्य है,
मुस्कान है, उन इलाक़ों में भी जाना चाहिए। ज़ाहिर है, हिंदी रोज़गार के क्षेत्र में
पैर नहीं पसार पाई है, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में भी नहीं। तो फिर कहाँ है?
बाकी सारे हिस्सों में हिंदी है। घर में है, दफ्तर की कचर-कचर में है, प्रेमियों के
अधर-अधर में है, दुश्मनों की गालियों के स्वर में है, गाँव कस्बे और शहर की डगर-डगर
में है, बॉलीवुड की जगर-मगर में है, फिर भी अगर-मगर में है।
मैं न तो हिंदी की दुर्दशा पर रोना चाहता हूँ, न
ही उसकी महनीय स्थिति पर हर्षित होना चाहता हूँ, पर हिंदी के भविष्य और भविष्य की
हिंदी के प्रति पर्याप्त आशावान हूँ। आशावादी व्यक्ति आकड़ों को अपनी निगाह से देखता
है और अपने अनुकूल निष्कर्ष निकालता है। इस बात को स्वीकार करते हुए मैं ये मानता
हूँ कि इस समय हिंदी विश्व में सबसे ज़्यादा बोले और सुने जाने वाली भाषा है। पुन:
कहूँ, हिंदी को सुनने वाले और हिंदी को बोलने वाले संसार में सबसे ज़्यादा हैं। हाँ,
लिखने और पढ़ने का आँकड़ा इकट्ठा करेंगे तो संख्या काफ़ी पिछड़ जाएगी, लेकिन हिंदी कान
और मुख के ज़रिए संप्रेषण का सुख दे रही है।
किसी भी भाषा का विस्तार और लोकाचार बाज़ार से
होता है। बाज़ार, जहाँ हमें ज़रूरी चीज़ें खरीदनी हैं या बेचनी हैं। बेचने वालों को
खरीदने वालों की जुबान आनी चाहिए, खरीदने वालों को वह जबान आनी चाहिए जो बेचने वाले
बोलते हैं। नहीं आती है तो दोनों प्रयत्न-पूर्वक सीखते हैं। यह प्रक्रिया बिना किसी
भाषा-प्रेम के उपयोगितावादी दृष्टि से संपन्न होती है। अब जब कि भारत में तरह-तरह
के बाज़ार पनप रहे हैं और हम देख रहे हैं कि विज्ञापन से लेकर ज्ञापन तक हिंदी
व्यवहार में लाई जा रही है। ऐसी स्थिति में उसके प्रयोक्ताओं की संख्या का बढ़ना
स्वाभाविक है। उन हठधर्मियों का क्या किया जाए जो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि
हिंदी एक ताक़त है।
सबसे ज़्यादा कौन-सी भाषा बोली जाती है इस बात को
लेकर हम कुछ मित्रों में बहस छिड़ी। परम हिंदीवादी एक मित्र बोले, ''अभी हिंदी संसार
में चौथे स्थान पर है।'' मैंने पूछा, ''पहले दूसरे और तीसरे स्थानों पर कौन-सी
हैं?'' हर किसी के समान उन्होंने पहले स्थान पर मैंडरिन यानी चीनी भाषा का नाम
लिया, उसके बाद अंग्रेज़ी का फिर स्पेनिश का, चौथे नंबर पर हिंदी।
सवाल ये है कि अपने देश में हिंदी को कैसे
परिभाषित किया जाए। क्या ब्रजभाषा, बुंदेली, मगही बोलने वाला, भोजपुरी मैथिली
पंजाबी गुजराती बोलने वाला हिंदीभाषी नहीं है? क्या उर्दू को हिंदी से अलग रखा
जाएगा, जबकि व्याकरणिक संरचना एक जैसी है, वाक्य-विन्यास एक जैसा है। परस्पर
सुनने-समझने में किसी को कोई परेशानी आती नहीं। उर्दू शब्दों के प्रति इन दिनों
हिंदी काफ़ी उदार हो रही है। आजकल जो पुस्तकें छप रही हैं उनमें नुक्तों तक का
प्रयोग चलन में आ गया है। वे लोग जो उर्दू को हिंदी से अलग करके हिंदी भाषियों की
संख्या निकालते हैं, उनकी दृष्टि को संकीर्ण माना जा सकता है।
आँकड़ों की टोह में मैंने अपने भाषाशास्त्री मित्र
विजय कुमार मल्होत्रा की
मदद ली। उन्होंने १९९५ में 'गगनांचल' के 'विश्व हिंदी अंक' में प्रकाशित हुए
लक्ष्मी नारायण दुबे के लेख का हवाला देते हुए बताया कि विश्व में चीनी बोलने वाले
९० करोड़, अंग्रेज़ी बोलने वाले ८० करोड़ और हिंदी बोलने वाले ७० करोड़ हैं। लेख में यह
भी बताया गया है कि विश्व के उनत्तीस देशों में हिंदी तिरानवे विश्वविद्यालयों में
पढ़ाई जाती है। मेरिट रलेन की पुस्तक 'अ गाइड टु द वर्ल्ड लैंग्वेजैज़' (स्टेनफोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस, १९८७) का संदर्भ देते हुए बताया कि अकेले चीन में एक बिलियन लोग
मैंडरिन बोलते हैं, लगभग एक बिलियन ही अंग्रेज़ी, तीसरे स्थान पर हिंदी-उर्दू के
बोलने वाले. . .चार सौ मिलियन। स्पेनिश और रूसी के तीन-तीन सौ मिलियन।
पुन: कहूँ, चीन की पूरी आबादी मैंडरिन बोलती है,
यह एक भ्रामक धारणा है। यह भ्रामक धारणा शायद चीन की दीवार के कारण बनी, जिसके
आर-पार सही तथ्य न तो आ पाते हैं, न जा पाते हैं। भारत के समान चीन में भी विभिन्न
प्रकार की बोलियाँ और भाषाएँ बोली जाती हैं। उनमें से कुछ हैं— शंघाई, कैंटन, फुकीन,
हकका, तिब्बती और तुर्की आदि, चीन के इन अन्य भाषा-भाषियों को निकाल दें तो मैंडरिन
के बोलने वाले अस्सी प्रतिशत ही रह जाएँगे। पर हमें क्या! क्यों पचड़े में पड़ें?
तीसरे नंबर पर हिंदी को स्वीकार करने में हम हिंदी
वालों को कोई आपत्ति नहीं है क्यों कि हम सदैव तीसरे दर्जे से यात्रा करते रहे हैं,
तीसरी श्रेणी के कर्मचारी बनकर जिए हैं और तीसरी दुनिया के लोग कहाते हैं। वह गर्व
अभी तक पैदा ही नहीं हुआ जो यह महसूस करा दे कि नहीं, तुम तीसरे स्थान पर नहीं हो,
पूरे विश्व में पहले नंबर पर भी हो सकते हो। गिनतियों को ज़रा फिर से इकट्ठा करो।
डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल पिछले कई साल से यह
सिद्ध करने के लिए भिड़े हुए हैं कि पूरे विश्व में हिंदी का स्थान सबसे ऊपर है पर
कौन नंबर एक है, कौन नंबर दो, कौन नंबर तीन और कौन नंबर चार, इस पर विचार अभी तक
डावांडोल है। असली आँकड़े राजनीतिक दुरभिसंधियों और संकीर्ण मानसिकताओं के कारण
मिलने मुश्किल हैं। बहुत से लोग ऐसे हो सकते हैं जो हिंदी बोलते हुए कहेंगे कि हमें
हिंदी नहीं आती। उन्हें कुल संख्या में कैसे शामिल करेंगे?
एक अरब से ज़्यादा की आबादी वाले इस देश में आँकड़े
इकट्ठा करने में दृष्टिकोण आड़े आते हैं। हिंदी के प्रति कड़े होकर आँकड़े इकट्ठा
करेंगे तो चालीस प्रतिशत आबादी से ज़्यादा को आप हिंदी भाषी नहीं बताएँगे, लेकिन
अगर जनसंचार माध्यमों के विस्तार के बाद हिंदी की स्थिति का आकलन अनुमान से भी
करेंगे तो मानेंगे कि अस्सी प्रतिशत तक भारतीय जनता हिंदी जानती हैं। यानी केवल
भारत में अस्सी करोड़ लोग हिंदी जानते हैं। और पाकिस्तान को भी शामिल किया जाए तो
ग्राफ़ जिराफ़ की गरदन-सा हो जाएगा। तब यह मानना होगा कि पूरे विश्व में लगभग एक
अरब लोग हिंदी बोलते हैं। अगर हिंदी नाम से चिढ़ होती हो तो उसे हिंदुस्तानी कहिए या
भाउसंभा। 'भाउसंभा' बोले तो भारतीय उपमहाद्वीप संपर्क भाषा।
एक आशावादी व्यक्ति होने के नाते मैं देखता हूँ कि
पूरे संसार में हिंदी एकमात्र ऐसी भाषा है जिसका फैलाव और विस्तार हो रहा है।
अंग्रेज़ी भी लगातार फल-फूल रही है। सच्चाई तो ये है कि जिस चीज़ पर आज हम गर्व कर
सकने की स्थिति में है कि हिंदी सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली और सुनी जाती है, यह
गर्व शायद आगे आने वाले कुछ वर्षो के बाद हम न कर पाएँ, क्यों कि अंग्रेज़ी उससे
ज़्यादा मात्रा में फैल रही है। वे देश जो अपने निज भाषा प्रेम के कारण अंग्रेज़ी
से नफ़रत करते थे अब बाज़ार-व्यवहार के कारण अंग्रेज़ी के प्रति उदार होते जा रहे
हैं। चीन, जहाँ अंग्रेज़ी घुस नहीं पाई, जापान, जहाँ अंग्रेज़ी को प्रवेश लेने में
मशक्कत करनी पड़ी, वहाँ अब उसके लिए घर-द्वार खुले हुए हैं, जबकि ऐसी स्थिति हिंदी
के लिए नहीं है। पिछले वर्ष जापान गया था। पचास वर्ष से जापान में हिंदी शिक्षण चल
रहा है लेकिन जापानियों की कोई उल्लेखनीय संख्या नहीं बताई जा सकती जो हिंदी सीखते
हैं। अंग्रेज़ी का दब-दबा कुछ इस तरह लगातार बढ़ा है कि हिंदी दबी-दबी-सी दिख रही है।
सांस्थानिक दृष्टि से देखें तो हिंदी कमज़ोर है, स्थानिक दृष्टि से देखें तो पुरज़ोर
है।
भाषा के स्वत:विकास के साथ अगर प्रयास भी जुड़ जाएँ
तो सितंबर महीने में हिंदी पर प्रमुदित हुआ जा सकता है। मेरे आशावाद को कंप्यूटर से
बहुत भरोसा मिलता है। यूनिकोड पर्यावरण में हिंदी के आ जाने के बाद और आईएमई के
प्रयोगों के चलन के बाद हिंदी का लिखना बहुत तेज़ गति से बढ़ सकता है। हम यदि आईएमई
का ज़ोरदार प्रचार करें और उसकी सहजता से लोगों को परिचित कराएँ तो एक क्रांतिकारी
और गुणात्मक परिवर्तन हिंदी के प्रयोग में आ सकता है।
कविमन की अनुमान छूट लेते हुए एक तथ्य बताता हूँ
तो लोग मुस्करा देते हैं, लेकिन तथ्य तो तथ्य है, सुन लीजिए. . .चीन ने आबादी पर
नियंत्रण किया, हम नहीं कर पाए। हम इस क्षेत्र में पर्याप्त उर्वर हैं। यह एक तथ्य
हिंदी के पक्ष में जाने वाला तथ्य है। इस एक तर्क़ से ही सभी को ध्वस्त किया जा
सकता है। मत इकट्ठा करिए आँकड़े, सिर्फ़ यह देखिए कि आज भारत की पैंतालीस प्रतिशत
आबादी शिशुओं और किशोरों की है, उनका शोर किस भाषा में होता है। वे सब के सब चाहे
दक्षिण में हैं, चाहे उत्तर में, जनसंचार माध्यमों की सुविधा के बाद हिंदी बोल रहे
हैं। समझ रहे हैं और उससे प्यार कर रहे हैं, क्यों कि वह उनके थिरकने, ठुमकने, उमगने
और विकसने की भाषा बन गई है। जी हाँ, हिंदी बोलने वाले संसार में सबसे ज़्यादा हैं।
हर मिनट हिंदी बोलने वाले पचास लोग बढ़ रहे हैं। अब बोलिए! बोल मेरी मछली कितनी
हिंदी!
९ जुलाई २००७ |