लोग मुझसे पूछते है कि आपको हिंदी से इतना प्रेम
क्यों है? अपने देश मे ही जब लोग हिंदी को लात मारकर अंग्रेज़ी में बोलना अपनी शान
समझते हैं, हिंदी मे बोलने वाले को पिछड़ा समझा जाता है। अंग्रेज़ी में बोलने वाले
को ज़्यादा सम्मान दिया जाता है, फिर आप क्यों हिंदी के झंडे गाड़ने के चक्कर में
रहते है।
दरअसल मैं भी दूसरे लोगों की तरह ही था, हिंदी मे
पढ़ाई तो ज़रूर की थी, लेकिन कोई हिंदी मे लिखने को बोलता था तो नानी याद आ जाती
थी। हिंदी लिखते-लिखते अंग्रेज़ी पर आ जाता था। लेकिन मुझे हिंदी से सच्चा प्रेम तब
हुआ जब मैंने यूरोपीय देशों के लोगों और चीनी भाषियों का भाषा प्रेम देखा। जर्मनी
और फ्रांस में अंग्रेज़ी जानने वाले तो बहुत मिलेंगे लेकिन शायद ही आप उनको
अंग्रेज़ी में बात करने पर राज़ी करा पाएँ। यही हाल लगभग यूरोप के बाकी देशों का
है, मैं मानता हूँ कि स्थितियाँ बदल रही हैं लेकिन अभी भी उनको अपनी भाषा दूसरी सभी
भाषाओं से ज़्यादा प्यारी है। एक फ्रांसीसी से मैंने पूछा कि तुम्हे अंग्रेज़ी तो
आती है फिर क्यों फ्रेंच में बात करते हो, तो बोला कि मुझे गर्व है कि मैं
फ्रांसीसी हूँ, मुझे अपने देश और संस्कृति से प्यार है, इसलिए मैं फ्रेंच में बात
करता हूँ और अंग्रेज़ी का इस्तेमाल सिर्फ़ तभी करता हूँ जब अत्यंत ज़रूरी हो। यकायक
मुझे लगा क्या हम हिंदुस्तानी अपने देश या संस्कृति से प्यार नहीं करते।
एक और अनुभव बताता हूँ। मैं लंदन के एक म्यूज़ियम
में अपने मित्र के साथ टहल रहा था। एक कलाकृति पर नज़र डालते ही मैंने अपने मित्र
से कलाकृति के मुत्तालिक अंग्रेज़ी में कुछ पूछा, मित्र ने तो जवाब नही दिया लेकिन
बगल में एक बुजुर्ग फिरंगी खड़ा था, उसने ठेठ हिंदी में जवाब दिया, मैं तो हैरान,
हमने एक दूसरे को अपना परिचय दिया, इन फिरंगी महाशय की पैदाइश हिंदुस्तान की थी। ये
पता चलते ही कि मैं उत्तर प्रदेश से हूँ उस फिरंगी ने बाकायदा भोजपुरी में बोलना
शुरू कर दिया, हद तो तब हो गई जब उसने मुझसे ठेठ भोजपुरी में कुछ पूछा और मैंने
जवाब देने के लिए बगलें झाँकते हुए अंग्रेज़ी का प्रयोग किया। उस दिन बहुत शर्म आई
कि हम अपनी भाषा होते हुए भी अंग्रेज़ी को अपना सबकुछ मानते हैं। आख़िर क्यों?
कुछ दक्षिण भारतीय भाइयों का यह मानना है कि हिंदी
एक क्षेत्रीय भाषा है, हालाँकि मैं उनकी बात से सहमत नही हूँ फिर भी मैं उनकी
मजबूरी समझता हूँ कि वे हिंदी में लिख पढ़ नहीं सकते, इसलिए अंग्रेज़ी बोलते हैं,
लेकिन कम से कम अपने उत्तर भारत में तो हिंदी को उसका पूरा सम्मान मिलना चाहिए।
अब सुनिए मेरा हिंदुस्तान के दौरे का किस्सा। मैं
दिल्ली से रुढ़की जा रहा था, ट्रेन में एक जनाब से मुलाक़ात हो गई, किसी कॉलेज में
प्रोफ़ेसर थे, मैं नाम नहीं बताऊँगा, रास्ते भर मुझ से बतियाते रहे, मेरा परिचय
जानकर कि मैं अप्रवासी हूँ, अंग्रेज़ी में शुरू हो गए, मैंने उनके सारे जवाब हिंदी
में ही दिए, लेकिन वो थे कि अंग्रेज़ी से नीचे ही नहीं उतर रहे थे। लगातार उनकी
बकझक सुनकर मैंने आख़िर पूछ ही लिया, क्या आपको हिंदी में बोलने में शर्म आती है,
वे खींसे निपोरने लगे, और बातों ही बातों में मान लिया कि उन्हें हिंदी में बोलने
में शर्म आती है, अंग्रेज़ी में बोलना ही भद्रता की निशानी है। मैंने जब उनको बताया
कि दुनिया जहान के लोग अपनी-अपनी भाषा से प्यार करते हैं, हम भारतीय क्यों नही
करते। जब आप प्रोफ़ेसर होकर ऐसी बात सोचते हैं तो आपके छात्रों का क्या होगा, जनाब
के पास कोई जवाब नही था। हम क्यों ऐसा करते हैं कि अच्छी अंग्रेज़ी बोलने वाले के
पीछे लग लेते हैं, और हिंदी बोलने वाले को किनारे बिठाते हैं। सरकार भी हिंदी दिवस
मनाकर अपनी खानापूर्ति करती है और समझती है कि हिंदी का सम्मान हो गया। हम लोग कहते
हैं, यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि हिंदी को उचित स्थान नहीं मिला, पर यह हमारी
ग़लती है कि हम हिंदी को नहीं अपनाते। क्यों नही अपने बच्चों को हिंदी में बोलने के
लिए प्रोत्साहित करते।
कहीं हम सभी तो हिंदी की इस बदहाली के लिए
ज़िम्मेदार नही हैं?
आपका इस बारे में क्या कहना है?
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