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दृष्टिकोण

हिंदी लेखक दयनीय क्यों
-दिनकर कुमार

हिंदी का लेखक दयनीय क्यों होता है? बंगला, मलयालम और मराठी के लेखक गरिमा के साथ जीने में सफल होते हैं। मगर हिंदी के लेखक को उपेक्षा, दरिद्रता और बीमारी के अंधेरे में क्यों भटकना पड़ता है? यह एक ज्वलंत प्रश्न। परंतु अब तक इसके लिए जो कुछ भी किया गया है वह लेखकों की स्थिति बदलने में सहायक सिद्ध होगा, मुझे इस पर संदेह है।

मान लिया जाए कि लेखकों की सहायता के लिए एक कोष बनाया जाए, तो फिर बाद में क्या होगा? ज़रूरतमंद लेखक को अर्ज़ी लेकर किसी अमुक वाजपेयी या तमुक सिंह के पास जाना होगा, उनकी कृपा होगी तो सहायता मिलेगी, नहीं तो नहीं मिलेगी। विचारधारा, खेमा आदि कसौटियाँ पात्रता के लिए प्रधान बन वाजपेयी या तमुक सिंह का रुतबा और बढ़ जाएगा और लेखक गण उनसे सहमत हुए बर्ताव करने लगेंगे। जिस तरह की मारामारी हिंदी साहित्य में मची है, शुभ उद्देश्य से गठित कोष का सदुपयोग हो पाएगा, इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

मेरा सुझाव है कि इस कोष की अवधारणा को भूलकर समस्या की जड़ की तरफ़ ध्यान केंद्रित किया जाए। समस्या की जड़ है लेखक की ग़रीबी। हिंदी का लेखक ग़रीब क्यों है? अंग्रेज़ी में एक उपन्यास लिखकर अरुंधती राय इतनी दौलत बटोर सकती है कि पूरा जीवन आराम से गुज़ार ले। हिंदी में अनवरत लिखने वाले शैलेश मटियानी को पाई-पाई को मोहताज होना पड़ता है? हिंदी देश की राष्ट्रभाषा है, इसका पाठकवर्ग विशाल है, फिर भी हिंदी का लेखक दरिद्र बना हुआ है- इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है!

इस त्रासदी का रहस्य है लेखक को उचित रॉयल्टी नहीं मिल पाना। हिंदी के प्रकाशक लेखन को मुफ़्त का कर्म समझते हैं और लेखकों को कभी-कभार 'भीख' देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। उनके हौसले को सरकारी नीति ने और अधिक बुलंद कर दिया है। हिंदी को सरकारी भाषा घोषित कर जो इसके नाम पर करोड़ों का गोरख़धंधा चल रहा है, उसी गोरख़धंधे का प्रमुख हिस्सा है हिंदी पुस्तकों की सरकारी ख़रीद, जिसने लेखकों का सबसे अधिक नुकसान किया है। हिंदी के प्रकाशकों का एकमात्र लक्ष्य है गगनचुंबी कीमत वाली पुस्तकों को किसी तरह सरकारी ख़रीद में खपा देना। बाद में उन पुस्तकों को दीमक खाते हैं। पाठकों तक पुस्तकें पहुँच नहीं पातीं। इस आपाधापी में स्तरीय लेखन का प्रश्न भी गौण हो गया है।

अफ़सर टाइप के लेखक देश के कोने-कोने में कुकुरमुत्ते की तरह पैदा हो गए हैं जो प्रकाशकों की मदद करते हुए रातोंरात लेखक के रूप में अवतरित हो रहे हैं, पुरस्कार झलका रहे हैं, माला पहन रहे हैं! प्रकाशकों के लिए पाठकों की अहमियत ख़त्म हो गई है। लेखक की अहमियत ख़त्म हो गई है। प्रकाशक को थोक में 'माल' बेचकर एकमुश्त भुगतान लेना है। ऐसी स्थिति में हिंदी का लेखक जनता से कटकर रह गया है और आम पाठक फुटपाथ पर बिकनेवाला लुगदी साहित्य पढ़ने के लिए विवश है जिसकी लाखों प्रतियाँ बिकती हैं और यह एक मुनाफ़े का कारोबार बना हुआ है। स्तरीय साहित्य का स्थान लुगदी साहित्य ने ले लिया है। क्यों कि पाठकों को सहज रूप से कम कीमत पर वही साहित्य उपलब्ध है।

हिंदी के प्रकाशक लेखकों की 'उपस्थिति' को ख़ारिज करने पर तुले हुए हैं और इस प्रश्न पर हिंदी के लेखकों में जैसी सक्रियता, जैसी चेतना नज़र आनी चाहिए थी, कहीं नज़र नहीं आ रही। गाल बजा लेने से, एक दूसरे का पीठ थपथपा देने से, किसी न बिकने वाली कृति को 'कालजयी' घोषित कर देने से यथार्थ की तस्वीर नहीं बदल सकती। जनता से कटे हुए लेखकों की नियति दयनीय होना ही है। अगर इस तस्वीर में बदलाव लाना है तो सबसे पहले हिंदी के प्रकाशन जगत की दुरभिसंधि का विरोध करना होगा और ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था विकसित करनी होगी, जिससे लेखक जनों तक पहुँच सके। लेखक को उचित पारिश्रमिक मिल पाए तो उसे किसी का मोहताज नहीं बनना पड़ेगा। वह मरते दम तक स्वाभिमान के साथ लेखन कर्म को जारी रख पाएगा।

वैकल्पिक व्यवस्था के लिए कुछ सुझाव इस प्रकार हैं :
हिंदी पुस्तकों की सरकारी ख़रीद बंद करवाने के लिए लेखक संगठनों को सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। सरकारी ख़रीद बंद होने की स्थिति में हिंदी के 'परजीवी' प्रकाशक जनता की शर्तों पर प्रकाशन व्यवसाय चलाने के लिए विवश हो जाएँगे। उदाहरण के रूप में मैं असमिया प्रकाशन जगत का उल्लेख करना चाहता हूँ। असमिया में उपन्यास या कविता संग्रह का मूल्य पचीस रुपए से ज़्यादा नहीं होता, क्यों कि प्रकाशक जानते हैं, इससे अधिक कीमत पर पाठक किताब नहीं ख़रीदेंगे, यह तो बाज़ार का नियम है कि उपभोक्ता व्यवसाय की शर्तें तय करता है। आज हिंदी प्रकाशन व्यवसाय बाज़ार की शर्तों पर नहीं चल रहा है।

हिंदी के प्रकाशकों से लेखकों का संगठन खुलकर इस मुद्दे पर बातचीत करे कि जिस बाज़ार पर लुगदी साहित्य का कब्ज़ा है उस बाज़ार में कम कीमत वाली स्तरीय पुस्तकें क्यों नहीं उपलब्ध करवाई जातीं? सौ पृष्ठ की पुस्तक की कीमत वे दो सौ रुपए क्यों रखते हैं? लेखकों को रॉयल्टी देने के मामले में पारदर्शिता का परिचय क्यों नहीं देते? यदि हिंदी के प्रकाशक इन मुद्दों पर बात न करना चाहें तो लेखक संगठन उनका बहिष्कार करें। सारे लेखक ऐसे प्रकाशकों को किताबें देना बंद कर दें जो जनता तक उनकी पुस्तकें पहुँचाने में कोई रुचि नहीं रखते।

लेखकों का सहकारी प्रकाशन प्रारंभ किया जा सकता है। जिसमें उचित कीमत पर पुस्तकें आम पाठकों को मुहैया करवाई जा सकती हैं। वितरण के लिए देशभर में लेखकगण अपना नेटवर्क तैयार कर सकते हैं। जिस तरह लघुपत्रिकाओं के वितरण का एक नेटवर्क तैयार हो चुका है, उसी तरह पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था की जा सकती है।

केरल और महाराष्ट्र की तरह हिंदी भाषा क्षेत्रों में भी पुस्तक आंदोलन चलाया जा सकता है।

  
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