प्रतिनायक के रूप में
रामकथा के आदि महाकवि
महर्षि वाल्मीकि ने अपने विश्व महाकाव्य 'रामायण ' में
रावण को 'प्रतिनायक' के रूप में चित्रित किया है। इस
तथ्य को दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो कह सकता हूँ कि
महाकवि वाल्मीकि ने 'रावण' में मूलतः 'राम' के
प्रतिरूप (ऑपोजिट सैल्यू) का ही चित्रण किया है।
आदिकवि ने यदि 'राम' के चरित्र में 'शील-शक्ति
सौंदर्य' की प्रतिष्ठा कराई है, तो रावण के चरित्र में
भी इन्हें रक्खा है। वस्तुतः रामायण के रचयिता आदिकवि
वाल्मीकि ने पूर्णतः निरपेक्ष दृष्टि से नायक राम के
प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रतिनायक रावण का सजीव एवं
तार्किक चित्रण करते हुए उसे रामभक्त महाकवि तुलसी की
भाँति एक पराजित व्यक्ति की तरह उपेक्षा और घृणा का
पात्र नहीं बनाया, बल्कि दुर्घर्ष संघर्ष करने वाले
वीर योद्धा का रूप दिया है।
आदिकवि वाल्मीकि का
रावण उद्भट वीर है, पराक्रमी योद्धा है और सर्वोपरि
जिजीविषा का जीवंत रूप है। रामायण में राम-रावण का
युद्ध सामान्य युद्ध नहीं है,
प्रत्युत महायुद्ध
है-
''महदयुद्धं तुमुलं रोम हर्षणम'' (6 /110/16 )
रामायण के अनुसार,
राम-रावण के महाभयंकर युद्ध में पृथ्वी पर 'महानाश'
अवतरित हो जाता है। राम और रावण के बीच होने वाला
प्रलयंकर युद्ध रावण को राम के प्रबलतम प्रतिपक्षी के
रूप में लाकर खड़ा कर देता है। वाल्मीकि कहते हैं-
''गगन गगनाकारं सागर सागरोपमः!
राम रावणयोर्युद्धं राम रावणयोरिव!!''
(6/110/24)
यहाँ महाकवि ने
अत्यंत भावमग्न होकर 'राम रावणयोर्युद्धं राम
रावणयोरिव' कहकर मात्र 'अनन्वय अलंकार' का चमत्कार
दिखाया हो, ऐसी बात कदापि नहीं, बल्कि महर्षि वाल्मीकि
रावण को शक्ति संपन्नता की दृष्टि से राम के समकक्ष
रखना चाहते हैं। यहाँ अपने मंतव्य के प्रमाण के रूप
में मैं रावण की मृत्यु हो जाने के पश्चात विभीषण
द्वारा कहलाए गए आदिकवि वाल्मीकि के सार्थक शब्द ''शस्तभृतांवर''
का उल्लेख कहना चाहूँगा, जिसके द्वारा कवि ने रावण को
शौर्य एवं शक्ति का आगार बताया है।
रावणपरक दृष्टि
आदिकवि वाल्मीकि की
इस निरपेक्ष कवि-दृष्टि की तुलना में भक्त कवि तुलसी
दास ने राम के ब्रह्मत्व का सापेक्ष दृष्टिकोण लेकर
राम के समक्ष रावण को पूर्णतः महत्वहीन पिद्दी-सा बना
दिया है। सच यह है कि पूर्वाग्रह पूर्ण भक्त कवि तुलसी
अनजाने ही रावण को महत्वहीन बनाते-बनाते राम को
महत्वहीन बना बैठे हैं। वस्तुतः तुलसी राम के
ब्रह्मत्व की महत्ता के समक्ष रावण को नगण्य चित्रित
करके अपने युग को तो संभवतः ध्वनित कर गए, लेकिन आदि
महाकवि वाल्मीकि की तुलना में उनकी रावणपरक दृष्टि सहज
और संयत नहीं रह सकी। क्या अंगद का रावण की राज्यसभा
में पाँव जमाना जैसे प्रसंग परोक्षतः राम को ही कहीं
निर्बल नहीं बना जाते? प्रथम श्रेणी का सिद्ध पहलवान
क्या कभी निम्न श्रेणी के छोटे पहलवान से भिड़ेगा? यदि
भिड़कर जीत भी गया, तो दर्शकगण बेमेल कुश्ती कहकर
हँसेंगे ही। यही स्थिति रामचरित्र मानस में राम-रावण
युद्ध तक महाकवि तुलसी अनायास पैदा कर देते हैं। उनका चरित्र सहज संयत
दीखता है। वाल्मीकि कहते हैं-
''एव चेतद कामांतु न त्वां स्प्रक्ष्यामि मैथिलि!
कामं कामः शरीरे में यथा कामं प्रवर्तताम!!''
(5/20/6)
रामायण की उक्त
स्थिति की तुलना में भक्त कवि तुलसी रावण के शील का
मूल्यांकन रामभक्त होकर ही करते हैं, तटस्थ कवि होकर
नहीं कर पाते। जहाँ वाल्मीकि की दृष्टि में रावण की
कामभावना रजस से शासित है, वहीं तुलसी ने उसे पूर्णतः
तमस से संबद्ध करके रावण को कामी कह दिया है। इसी
दृष्टि भेद के कारण रामायण का रावण महत्वाकांक्षी,
धैर्यवान, वीर एवं साहसी सम्राट है, जबकि रामचरितमानस
का रावण अत्याचारी, असंयमी, क्रोधी, कामी और नृशंस बना
दिया गया है। रावण की मृत्यु के पश्चात मंदोदरी के मुख
से अपने पराक्रमी वीर एवं यशस्वी पति रावण की तथाकथित
कामुकता का भी अत्यंत गौरवपूर्ण उल्लेख जब हम पढ़ते
हैं, तो आदिकवि के कवित्व पर मुग्ध हो उठते हैं-
''इंद्रियाणि पुण जित्वा जितं त्रिभुवनं त्वया!
स्मरादिभारिव तदैरमिंद्रियैरेव निर्जितः!!
(6/114/18)
अर्थात 'तुमने बलपूर्वक इंद्रियों को जीत कर त्रिभुवन
विजित किया था, इसीलिए अब इंद्रियों ने सीता के बहाने
तुम्हें जीत लिया है।''
संस्कृत के आदि कवि
वाल्मीकि की ही तरह अपभ्रंश के आदि महाकवि स्वयंभू देव
की दृष्टि भी रावण के चित्रण में सर्वत्र सहज और तटस्थ
कवि की ही रही है। जैन-रामायण के नाम से विख्यात
अपभ्रंश भाषा की रामकथा कृति ''पउम चरिउ'' में रावण के
शील का चित्रण करते हुए एक अनूठी और विलक्षण उद्भावना
करते हैं। स्वयंभू देव का रावण कैवल्य ज्ञानी संत अनंत
रथ के समक्ष प्रतिज्ञा करता है-
''जं मइण समिच्छई चारु गत्तु!
तं मंड लिएभिण पर कलुत्तु!! (1/18/3)
''यदि कोई परस्त्री
स्वयं इच्छा नहीं करेगी, तो मैं उसका भोग नहीं करंगा।''
क्या सृष्टि का समस्त शक्तियाँ होने के बाद भी रावण ने
कभी बलात सीता का भोग करना चाहा? तब रावण पर कामुक
होने का घृणित आरोप क्यों? अपभ्रंश के आदिकवि
स्वयंभूदेव भी महाकवि वाल्मीकि की तरह ही रावण को
दीप्तवीर एवं शीलवान सिद्ध करते हैं। 'पउम चरिउ' में
जब लक्ष्मण रावण से सीता को लौट कर राम से क्षमा
माँगने की बात कहते हैं, तो दीप्तवीर रावण कहता है-
''महु धइं पुणु आएं कवणु!
किं सीह हों होउ सहाउ अण्णु!!'' (79/22)
रावण लक्ष्मण से कहता
है- क्या सिंह का स्वभाव बदल सकता है? इस प्रकार अनेक
स्थानों पर हम रावण के तेजस्विता से परिपूर्ण चरित्र
का दर्शन करते हैं।
रावण
की तेजस्विता
तुलसीदास सर्वत्र
रावण के दीप्त अहं को शठ की हठवादिता
कहते हैं जबकि आदिकवि वाल्मीकि
रावण के अहं में भी अपूर्व तेजस्विता देखते है और
उसे वीर पुरुष का अहं मानते हुए कहते है-
''द्विधा भज्येयमप्येवं न नमेयंतुवस्याचित,''
लेकिन और अब अंत में, सौंदर्य चित्रण की
दृष्टि से भी रावण के चित्रांकन का मूल्यांकन करते
चलें। यहाँ आदिकवि वाल्मीकि की कवि-दृष्टि रावण
की रूपराशि, तेजस्विता एवं संपन्नता को चित्रित करती
है। दूसरी ओर, रावण की इस सहज सर्वलक्षणयुक्तता की
तुलना में महाकवि तुलसी रामचरितमानस में रावण का
चित्रण करते हुए उसे केवल निशाचर ही मानते
हैं, कहीं भी सुंदर सुयोग्य प्रतिनायक नहीं मान पाते,
जिससे वितृष्णा के साथ-साथ कहीं-कहीं तो क्षोभ भी
उत्पन्न होता है। तुलसी के रावण का रूप अंगद को ऐसा
दीखता है-
''अंगद दीख दसानन बैसे! सहित प्राण कज्जल गिरि जैसे!!
मुख नासिका नयन अरूकाना! गिरि कंदरा खोह समाना!!''
(लंकाकांड-18/46)
उक्त चित्रण में,
रामभक्त तुलसी ने कज्जलगिरि जैसे तथा गिरि कंदरा खोह
समाना जैसी उपमाएँ दशानन रावण के
लिए प्रयुक्त की हैं, लेकिन अनेक
काव्य-मर्मज्ञ, रसज्ञ, सामाजिक सह्रदय व्यक्ति उससे
सहमत नहीं होते हैं। प्राच्य विद्याओं के
अध्येता विद्वान वी.एस. श्रीनिवास ने रावण के लिए
अत्यंत सार्थक शब्द कहे हैं- ''ग्रेटनैस विद आउट
गुडनैस'' अर्थात ''गरिमारहित उच्चता''।
क्या इन शब्दों से रावण के चरित्र का सही मूल्यांकन
नहीं होता? इस पर आपत्ति संभव ही नहीं।
वस्तुतः लंकाधिपति
रावण में भी शील-शक्ति-सौंदर्य की त्रिवेणी आदिकवि
वाल्मीकि एवं अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू देव ने
देखी
और रावण को मर्यादा पुरुषोत्तम राम का सबलतम एवं
प्रबलतम प्रतिद्वंद्वी बनाकर रामकथा का सहज प्रतिनायक (एंटी हीरो) बनाया है, जबकि भक्त कवि तुलसीदास रावण को
खलनायक (विलेन) बना देते हैं, जो कवित्व की दृष्टि से
उतना गरिमापूर्ण नहीं लगता।
आख़िर रावण ही तो है
जिसने राम को सचमुच राम बनाया है।
१६
अक्तूबर २०११ |