२१वीं शती का प्रवासी हिन्दी उपन्यास:
प्रेम के विविध रूप
(महिला उपन्यासकारों के संदर्भ में)
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डॉ. मधु संधु
पुराणों में राधा- कृष्ण का रास-रंग से भरा प्रेम है।
वेलेंटाइन डे मनाया जाता है। बाजीराव मस्तानी की
प्रेमकथा है, लैला- मजनू, शीरी- फरिहाद, रोमियो
जूलियट, सलीम- अनारकली... और महिला उपन्यासकारों
द्वारा लिखित २१वीं शती के प्रवासी हिन्दी उपन्यास में
पॉल और नीना, पॉल और नैन्सी, पारो और देव, तान्या और
सैम, पिया और अनुराग- प्रशांत, लिली और शैषेद्र राय-
वनमाली, आकाशगंगा और अर्जुन सिंह- एरिक, रीना और हरि-
सुबोध- मार्टिन, सोनम और सुक्खी की प्रेम कथाएँ है।
अमर प्रेम तो
किस्से कहानियों में ही होता है। जिसे सच्चा प्रेम कहते थे आज
उसके मानदंडों की भी बात नहीं की जा सकती। समय और स्थान ने,
शताब्दी के अंतराल ने, देश और विदेश ने, रूढ़िबद्धता और
आधुनिकता ने प्रेम के बहु आयामी चित्र प्रस्तुत किए है, विविध
रूप उजागर किए हैं। समाज में स्त्री पुरुष के लिए हमेशा अलग-
अलग मानदंड रहे हैं- १९३०-४० में भी, उसके बाद भी और आज भी।
भारत में भी और भारत से दूर लंदन में बसे भारतियों में भी।
आभिजात्य
मध्यवर्गीय पुरुषों के काम वासना प्रधान प्रेम को
स्वदेश
राणा का ‘कोठेवाली’ पीढ़ीगत अंतराल के साथ दो युगलों के
माध्यम से चित्रित करता है – बदरीलाल और बदरुनिस्सा, करन और
ताहिरा। बदरून्निसा गुजरात की गंदे नाले के पार बसी रंगरेज
बस्ती में कुम्हारिन माँ और रंगरेज पिता की बेटी है। वह
आकाशवाणी की गजल गायिका है। कुँवारी, कमसिन और मासूम
बदरूनिस्सा पर पचास वर्षीय, सुंदर पत्नी, दो युवा बेटों का
पिता रईस बदरीलाल रीझ जाता है। लेकिन पत्नी के मरने पर भी उससे
विवाह नहीं करता। बिना विवाह, बिना किसी कागजी कार्रवाही के
बदरुनिस्सा को अपने घर बिठा लेता है। उसके लिए वह सिर्फ मौज
मस्ती का जरिया ही है। कहानी सवा- डेढ़ सौ साल पहले की है, जब
रेडियो पर गाने वालियों को मिरासिन कहा जाता था। बिना शादी के
घर में बिठाना और बुरे वक्त में छोड़ आना बदरीलाल के कामुक
प्रेम पर मोहर लगाता है।
बिन ब्याही बदरून्निसा की बेटी ताहिरा से प्रेम का दम भरने
वाला करन भले ही उससे अंतर्जातीय, अंतर्देशीय और अंतर्मजहबी
शादी कर लेता है, लंदन में रहता है, लेकिन मानता उसे मात्र
अपनी कामेच्छाओं की पूर्ति का साधन ही है। वह जानता भी है और
मानता भी है कि जिससे उसने शादी की वह ताहिरा नहीं, वह सिर्फ
बदरूनिस्सा की बेटी है, बदरीलाल जिसका मुरीद तो था, पर शौहर
नहीं--- एक अवैध संतान- जिसे आत्मीय प्रेम का नही, शारीरिक
वासना का भागीदार ही बनाया जा सकता है। पीढ़ीगत अंतराल अथवा
भारत या लंदन- समय और स्थान का अंतराल पुरुष सत्ताक की
मानसिकता नही बदल सकते।
उषा प्रियम्वदा के ‘भया कबीर उदास’
में प्रेम के दो रूप हैं- दैहिक और रूमानी । नायिका कैंसर से
जूझ रही है। यह अल्पाकांक्षी ३५- ३६ वर्षीय मेघावी नायिका
इतिहास में पीएच. डी. करने के लिए अमेरिका आई थी। वह थीसिस बीच
में छोड़कर पढ़ाने लगी और फिर उसके सारे विकल्प कैंसर से
महायुद्ध के संकल्प में परिवर्तित हो गए। उसने वक्ष पर सख्त,
कड़ी, पीड़ाहीन गाँठे देखी और ऐसे ही एक्स- रे, मैमोग्राफ करवा
लिए। बायोप्सी में कैंसर निकल आया। किसी स्त्री को कैंसर होना
सबसे त्रासद है। कितनी पीड़ा है- “मेरे लिए मेरे बाल और मेरी
ब्रेस्ट मेरी संपूर्णता के लिए बहुत आवश्यक है। उनके बिना मैं
बदसूरत और अधूरी हो जाऊँगी।“
पैंतीस वर्षीय लिली सर्जरी से पहले जीवन के दैहिक सुखों को
जीने के लिए तीन दिन के लिए अपने एक विद्यार्थी रघु के पिता
शैषेद्र राय के संपर्क में आती है। एक ऐसा हल्का-फुल्का आवेग
और उमंग भरा रोमांस/ अफेयर है, जिसका सम्बंध न स्मृति से है, न
भविष्य से, न वायदों से। नितांत अकेलेपन और बीमारी के आतंक से
थोड़ी- बहुत मुक्ति पाने के लिए यह क्षत- विक्षत स्त्री डेढ़ साल
की बीमारी के बाद अनिश्चित समय के लिए गोवा चली आती है और
वनमाली के पैरेगान होटल और काटेज में ठहरती है। अब प्रेम उसके
अंदर जीवन राग, जीवट बनकर आता है। वनमाली का स्पर्श उसे सुख
देता है- “खुली बांह पर हल्का स्पर्श, जैसे तितली के फूल ने
चूमा हो।“ उसका चुंबन हैरान कर जाता है। अजपा जाप की तरह उसकी
प्रतीक्षा की आदत हो जाती है।
उषा प्रियम्वदा का उपन्यास ‘नदी‘
परित्यक्ता स्त्री के अभिशप्त प्रेम को लिए है। बूस्टन की
ठंडी, पराई, गैर भाषाई धरती पर आकाशगंगा का पति गगनेन्द्र
बिहारी मकान बेच, पासपोर्ट, वीज़ा, गहने, रुपए पैसे- सब कुछ
सहेज, उसकी झोली में अपराधी जीवन डाल उसे परित्यक्ता का जीवन
दे भारत चला आता है। उस देश में बिना वर्क पेपर के तो छोटी से
छोटी नौकरी भी नहीं मिल सकती। सागर की लहरें भी उसे स्वीकार
नहीं करती। मृत्यु हाथ खींच लेती है। गंगा प्रथमत: अर्जुनसिंह
के संपर्क में आती है- एक सम्पन्न, दया- करुणा से भरा, चार
बच्चों का पिता, धार्मिक प्रवृति का ट्रांस्पोर्टर। आलीशान
सी-व्यू होटल के सजे-सजाये दो कमरे, मुग्ध प्रेमी, नित्य नए
उपहार, उसके निवास के लिए फार्म हाउस खरीदने की योजना, आत्म
सम्मान से जीने का अवसर- गंगा जीवन सरिता को ऐसे ही बहने देना
चाहती है। अर्जुनसिह से सम्बंध उसमें आत्मविश्वास भरते हैं,
जीवन जीने की शक्ति देते हैं। जबकि उसे स्पष्ट है कि उसकी
हैसियत रखैल सी ही रहेगी। क्या देश या विदेश में प्रेमिका की
यही नियति है- पुरुष का मन बहलाने वाली ?
दूसरी बार वह घर शेयर करने के सिलसिले में मात्र एक सप्ताह के
लिए एरिक एरिक्सन के सम्पर्क में आती है। उसके व्यक्तित्व की
संवेदनाएँ उसे पहली बार महसूस करवाती है कि वह अभी युवती है,
उन्मुक्त है, जाने कितनी अनचीन्ही भावनाएँ उसके अंदर हैं। लगता
है कि एरिक से उसके सम्बंध देहराग से, ऐंद्रियता से आगे
आत्मराग के हैं, अतीन्द्रिय हैं। लेकिन अपनी रिसर्च यानी बाल
कैंसर पर शोध के लिए एरिक का स्विट्ज़रलैंड चले जाना गंगा के हर
रागबोध पर पूर्णविराम लगा देता है। ऑनर किलिंग प्रेम विरोधी
समाज/ परिवार की वीभत्स सच्चाई है। उपन्यास में ऑनर किल्लिग का
भी एक प्रसंग आता है, उद्दाम प्रेम की भनक मिलते ही किशोरी
प्रवीण के प्रेमी फकीरचंद को मार गंदे नाले में फेंक दिया जाता
है और उसे पति के पास कैलिफोर्निया भेज दिया जाता है।
दिव्या माथुर के उपन्यास ‘शाम भर बातें’
में यू. के. में हो रही शादी की साल गिरह की पार्टी है.
पार्टी का वातावरण आशिक़ाना है। मानों मनचलों की भीड़ है।
विवाहित अविवाहित – सभी के प्रेम प्रसंग/ चक्कर चल रहे हैं।
राजीव युवतियों को गंभीरता से नहीं लेता, उसकी साख इसी पर टिकी
है कि शादीशुदा होने के बावजूद वह युवतियों को पटाने में सक्षम
है। मंजूषा के आसपास घूमना उसे भा रहा है। सायरा का नमकीन यौवन
और पारदर्शी साड़ी और सुनहरी तनियों वाले बालिश्त भर के ब्लाउज़
में घूमती मंजूषा पुरुषों को काफी लज़ीज़ लगती हैं। रंजीत का
दफ़तर खूबसूरत बालाओं से भरा है। वह बिना शादी के ही सायरा के
साथ चार दिन हनीमून पर जाना चाहता है। रायन एयर की टिकटें
तैयार हैं। मेनका जोशी सर के आगे-पीछे घूमती रहती है।
उपन्यास उस देश और काल का है, जहाँ बिना शादी के साथ रहना और
बच्चे पैदा करने का रिवाज सा हो गया है। रंजीत का जीवन दर्शन
है कि शादी की मुसीबत पालने से सिंगल रहकर खुल्मखुल्ला ऐश करना
कहीं बेहतर है। सरूर और जूली लिव-इन में है। मीना भी बिना शादी
के एक मुसल्ले के साथ रह रही है। रविंदर ने पत्नी जीतो के होते
हुये भी ईस्ट हैम में दूसरी औरत रखी हुई है। शादी के बीस वर्ष
बाद भी, बड़े-बड़े बच्चों के बावजूद मीता रंजीत के लिए आतुर है।
चित्रा का दिनेश से और सुरभि का करन से चक्कर था। पति
सुरेन्द्र भी नहीं जानता कि सुरभि की बड़ी बेटी सोनिया का पिता
करन है। हर आने वाली स्त्री मेहमान से लिपट- लिपट कर और पुरुष
से हाथ मिलाकर उनका स्वागत किया जा रहा है। मेनका जोशी सब की
आव-भगत में लगी है। घनश्याम प्रभा को पटा रहा है। मर्दों पर
शराब, कबाब और शबाब- तीन तीन नशे तारी हैं। घनश्याम/ घड़ियाल की
पत्नी रानी उसके जिगरी दोस्त नौलखा के संग फरार है। वायु बेटे
के लिए जिस नंदिनी को भारत से इम्पोर्ट करना चाहती है, वह अपने
फ़र्स्ट कज़न के साथ भाग चुकी है। इस उपन्यास के अत्याधुनिक
पात्र प्रेम भाव की पवित्रता से बहुत दूर हैं। उनके शब्दकोश
में तो यह शब्द अपना अस्तित्व खो चुका है। सब को मौजमस्ती
चाहिए।
अर्चना पेन्यूली के ‘वेयर ड़ू आई बिलांग‘
में विवाहेत्तर प्रेम प्रसंग दाम्पत्य को नष्ट कर रहे हैं।
सुरेश लिंडा के साथ चार वर्ष लिव- इन में रहने के बाद शादी
करता है, लिंडा मॉर्गन के साथ मोन्स क्लिफ घूमने जाती है। पति
सुरेश यह बर्दाश्त नहीं कर पाता तो लिंडा उसे तलाक दे देती है।
पाश्चात्य संस्कृति के अनुसार लिंडा की मित्र मंडली में उसके
पति का कोई स्थान नहीं था। इसीलिए तलाक का चयन किया जाता है।
लिंडा तलाक के बाद लिंडसन आदि के साथ रहने लगती है। मानों
प्रेम शारीरिक भूख का पर्याय हो गया है। नायिका रीना को प्रथम
प्रेमी हरि पहली बार दिल्ली हवाई अड्डे पर मिला था। कोपेनहेगेन
की सड़कों पर दो वर्षों में यह प्रेम विकसित हुआ। पेरिस
एयरपोर्ट पर हरि ने शादी का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन अब वह रीना
के सपनों का राजकुमार नहीं रहा। रीना ने जिससे प्रेम किया था,
वह एक मिशनरी, सेमिनेरी, एक थियोलोजिस्ट ईसाई था। उसका पुन:
हिन्दू धर्म में लौटना रीना का मोह भंग कर देता है। उसका दूसरा
प्रेमी राघेश इन्फोसिस की कम्पनी आई. बी. एम. में सॉफ्टवेयर
इंजीनियर है। गहरे सावले रंग का यह तमिल लड़का कुछ महीनों के
लिए डेन्मार्क आता है। एक लड़की से आठ वर्ष डेटिंग के बाद उसका
ब्रेक अप हो चुका है। रीना उसके लिए भारत की एक बायो टेक
कम्पनी अवस्थेगन में बाकायदा फोन से ४५ मिंट का इंटरव्यू दे
बेंगलोर में नौकरी पाती है, लेकिन भारतीय जीवन पद्धति और
भारतीय पुरुष स्वभाव उसे वापिस कोपेनहेगेन ले आते हैं। यहाँ वह
अपने डेनिश सहकर्मी मार्टिन की तरफ आकर्षित होती है । शाश्वत
शब्द ने प्रेम से पलायन कर लिया है। प्रेम में बुद्धि तत्व के
समावेश ने इसे व्यापकता दी है। यह नहीं तो वह।
अर्चना पेन्यूली के ‘पॉल की
तीर्थयात्रा’ में एक प्रेमी पति की मृत
पूर्वप्रेमिकापत्नी के प्रति अभूतपूर्व श्रद्धांजलि है।
सांसारिक फकीर और मनसा अमीर आदमी के रूप में ५६ वर्षीय पॉल
लगातार २८ घंटे में १०८ किलोमीटर की पैदल यात्रा कर नीना की
बरसी पर उसे श्रद्धांजलि देने पहुंचता है। पॉल मृत पत्नी के
लिए धन-दौलत खर्च कर कोई ताजमहल तो नहीं बनवाता, पर उसकी यह
साहसिक यात्रा प्रेमभाव की अपने में एक मिसाल है। यह रोमियो,
मजनूँ, सलीम की परंपरा से आगे की स्थिति है। यह न किशोर प्रेम
है, न कोर्टशिप वाला। विवाह, तलाक और तूफानों से गुजरने के बाद
भी प्रेम जीवित है। प्रेम में निमज्जित पॉल की यह तीर्थ यात्रा
उसे अतल गहराइयों से सराबोर कर देती है- “दीप्त प्रकाश पुंज
मेरे हृदय के अन्तर्मन में कौंध गया। इतनी सुखद अनुभूति ! मुझे
अहसास हुआ कि भगवान साक्षात मेरे करीब, मेरे अति निकट हैं- परम
शान्ति, एक दिव्य ज्योति के रूप में।“
सुधा ओम ढींगरा का ‘नक्काशीदार कैबिनेट’
प्रेमकथा नहीं है, लेकिन युवा हृदय के इस रागबोध को, जीवन और
जगत के इस सत्य को नकारा भी नहीं जा सकता। उपन्यास में दो
प्रेमी युगल मिलते हैं- मीनल और पम्मी तथा सोनल और सुक्खी।
मीनल और पम्मी की पूर्वार्द्ध में ही हत्या हो जाती है- मीनल
की दुष्ट चाची के परिवार द्वारा और पम्मी की उग्रवादियों
द्वारा, जबकि सोनल और सुक्खी विकराल और विपरीत स्थितियों का
सामना करते गन्तव्य तक पहुँचते हैं। सुक्खी प्रिया सोनल की
सुरक्षा के लिए पुलिस में एस. पी, बनता है और उसकी ज़रूरत के
अनुसार नौकरी छोड़ विदेश पहुँच जाता है। यहाँ आदर्श प्रेमी
आदर्श समाज का लक्ष्य भी सँजोये हैं।
इला प्रसाद का ‘रोशनी आधी अधूरी सी’
में आई. टी. के परिसर में नवरात्रि के दौरान डांडिया
रास का आयोजन होता है, इसमें लड़कियां अपने ब्वाय फ़्रेंड्स को
विशेषत: आमंत्रित करती है। होली भी खेली जाती है। युवाओं की
रेल पेल हो और रूमानियत न हो, यह तो संभव ही नहीं। कृष्ण कथाएँ
तो चलती ही हैं। बी. एच. यू. हो या आर. आई. टी.- ब्वाय फ्रेंड
तो लड़कियों के होते ही हैं। सम्बन्धों के स्तर पर बी. एच. यू,
के युवा बहुत भावुक हैं। सुधीर अपनी बहन की मित्र वंदना को
मिलने के बहाने ढूढता है। मोनिका मदन से प्रेम करती है और शादी
से परिवार द्वारा इंकार किए जाने पर रो-रो कर पगला जाती है।
ज्योतषियों- तांत्रिकों के चक्कर में पड़ जाती है। यही बाकी
असफल प्रेमिकाओं का हाल है। जबकि आर. आई. टी. यू. के बौद्धिक
आईटियन दिल से नहीं दिमाग से काम लेते हैं।
हंसा दीप के ‘बंद मुट्ठी’ के
अंतर्देशीय प्रेमियों के लिए प्रेम की राह तलवार की धार पर
चलने के समान है। सरदारनी जस्सी एक पाकिस्तानी मुस्लिम युवक के
प्रेमजाल में है। बीनू श्री लंकाई चलवा पर और शुचि दिल्ली के
एक भारतीय छात्र पर फिदा है। तान्या हिन्दी के जानकार और
विद्वान पोलैंड के सैम को पसंद करती है। घर से दूर, परिवार के
खिलाफ जाकर एक घर बसाना, दिल के रिश्ते जोड़ना कोई आसान काम
नहीं है। तान्या परिवार के विरोध के बावजूद सैम से विवाह तो
करती है, पर इसके लिए उसे खून के रिश्तों- यानी माँ- बाप- बहन
के प्यार की कुर्बानी देनी पड़ती है। जस्सी पिता की मृत्यु के
कारण दिल्ली जा पिता का व्यापार संभालने में प्रेमी को भुला
देने के लिए विवश है। बीनू का चिलवा संवादों की कमी या अपनी
किन्हीं प्रतिबद्धताओं के कारण अपने देश में जाकर शादी कर लेता
है। मात्र शुचि ही है, जिसके दिल के रिश्ते को खून के रिश्ते
वाले स्वीकार करते हैं, जिसकी शादी बिना व्यवधानों के अपने
प्रेमी से हो पाती है।
सुदर्शन प्रियदर्शिनी के ‘पारो-
उत्तरकथा’ में अनेक प्रेमप्रसंग चित्रित हैं।
प्रेमातिरेक में डूबा वीरेन दस साल बडी, भूगोल की प्रोफेसर
राधा से जबर्दस्ती शादी करता है। कहता है कि अगर यह शादी न हुई
तो वह आत्महत्या कर लेगा या राधा के साथ कुएँ में छलांग लगा
देगा। पारो के लिए देवदास लौकिक न होकर एक भावना है। वह पारो
की स्मृतियों का हिस्सा है, अवचेतन का भ्रम है। दिवास्वप्न सा
आता है और आत्मा की आवाज बन मूल्यवत्ता का नीर-क्षीर विवेक
समझा चला जाता है। अतीतजीवी भावुक प्रणय पगी नायिका का
अन्तर्मन देवदास के साथ धूप में खिलता, बरसात में भीगता और
लहलहाती बगिया सा मुस्काता है। मनोविश्लेषक इस व्यामोह को
मानसिक रोग भी मान सकते हैं। ऐसे लगता है कि देव की आत्मा भटक
रही है, उसका तर्पण नही हो पाया क्योंकि पारो का प्रेम देव की
आत्मा को मुक्त नहीं होने देता। महेन की प्रेमिका दिव्या का
पिता अपने राजपूती गौरव के कारण बेटी की शादी महेन से नहीं
करता और वह पिता की इच्छा से हुई शादी को नकार दूसरे दिन ही
पति का घर छोडकर चली जाती है। पिता के जातीय भेद- भाव एक
किशोरी को त्रिशंकु बना देते हैं। महेन से उसकी शादी की नहीं
जाती और पिता द्वारा आरोपित पति उसे स्वीकार नहीं।
सुषम बेदी के उपन्यास ‘पानी केरा
बुदबुदा’ के पात्र भारतीय और पाश्चात्य मूल्यबोध के बीच
जूझते, नए मूल्यों की तलाश में भटक रहे हैं। यहाँ मन:रोगी
मनोविद हैं। पिया, निशांत, अनुराग- सभी पात्र मनोविद हैं, अपने
अपने नियंता हैं, सूत्रधार हैं, सर्वज्ञानी हैं। दुनिया भर की
मानसिक समस्याओं का समाधान खोजने वाले हैं। फिर भी पिया लगातार
मन: लोक की ऊहापोह में जूझ रही है। संतप्त है। पति दामोदर से
मुक्त होते ही वह नए जीवन, जीवन साथी की खोज में दिखाई देती
है। वह उस राजकुमार की तलाश में भटक रही है, जो उसे प्रेम भी
करे, प्रतिबद्ध भी हो और अपने को पिया के अनुरूप ढाल भी ले।
मनोविद मित्र अनुराग और निशांत– कोई भी उसके मन को पढ़ने की
क्षमता नहीं रखता। उनका अहं, स्वार्थ और स्वछंदता आढ़े आते हैं।
अनुराग का सान्निध्य और साहचर्य उसे मादकता, सरूर और सुकून
देते हैं, जबकि निशांत अपनी बेमुरव्वती, बेशर्मी, बेहयाई,
विरूपता की हद तक की स्पष्टवादिता के बावजूद उसे बांधता है।
लेकिन वह स्थिरता चाहती है, विवाह चाहती है, जिसके लिए पुरुष
मित्र तैयार ही नहीं। जितना अनुराग के झूठ ने उसे ठगा है, उतना
ही निशांत की सच्चाई ने। अनुराग कहता है, “शादी घर-परिवार की
जरूरतों को पूरा करने के लिए होती है, निजी जरूरतों को नहीं।
तुम मेरे निजी जीवन का हिस्सा हो। मेरे अंतस का, मेरे दिल की
गहराइयों का-- ।“ निशांत के साथ वह पंद्रह वर्ष रहती है और
उसके विचार है, “मुझे ढर्रे में बंधी ज़िंदगी अच्छी नहीं लगती।
---जो नहीं बंधा, उसे चाहने में बुराई क्या है।“
सभी पात्र सामाजिक मान्यताओं, सांस्कृतिक मूल्यवत्ता को
तड़ाक-तड़ाक तोड़ रहे है, उनके परखचे उड़ा रहे हैं । उपन्यास
विदेशी पृष्ठ भूमि पर लिखा गया है, लेकिन इसकी बेचैनियां
सार्वदेशिक हैं। यह उस देश की, उस संस्कृति की, उस चिंतन की,
उस अत्याधुनिकता की कहानी है, जहाँ सेक्स कोई दुराग्रह नहीं
है। नायिका क्षणबोध की उपासिका तो नहीं, लेकिन नियति उसे
क्षणबोध के लिए बाधित कर रही है।
नीना पॉल का ‘कुछ गाँव गाँव, कुछ
शहर-शहर’ में भिन्न रंगरूप, भिन्न संस्कृति, भिन्न
विचारधारा के निशा और सायमन का प्रेम चित्रित है। नीना पॉल
लिखती है- “ जब विचारों में शुद्धता आती है, तो आँखों से नफरत
मिट जाती है। रंग रूप का भेद भाव भी समाप्त हो जाता है। जब दो
संस्कृतियो के बच्चे एक हो जाते है, तब बड़ों को भी अपने
विचारों की दिशा को मोड़ देना ही पड़ता है। हाँ! अपने व्यवहार को
बदलने में उन्हें समय अवश्य लग जाता है।“
कादंबरी मेहरा के उपन्यास ‘निष्प्राण
गवाह’ गुरुशरण और रोजमेरी, सेमी और सेरा, बाउंसर
एल्फ्रेड टर्नर और हेलेन के असफल प्रेम के प्रसंग हैं। गुरुशरण
मेरी के कारण अक्सर पिटता है, कुछ देर के लिए अंजाने ही ड्रग
के धन्धे में पड़ता है। हेलेन को दशकों बाद पता चलता है कि
एल्फ्रेड टर्नर धोखेबाज़ नहीं था, उसकी हत्या कर दी गई थी और
सेमी सेरा के विरह में पागल हो जाता है। इसके अतिरिक्त मार्टिन
और उसकी प्रेमिका डिनीस का भी उल्लेख है।
अर्चना पेन्यूली के ‘कैराली मसाज
पार्लर’ में स्पष्ट है कि यूरोप में स्त्री- पुरुष का
बिना शादी के साथ रहना बहुत ही सामान्य समझा जाता है। नैन्सी
से शादी से पहले लार्स दो स्त्रियॉं के संग रह चुका है। लार्स
की माँ लारा भी पति के इलावा दो पुरुषों के साथ रह चुकी है।
जबकि भारतीय संस्कृति इसकी इजाजत नहीं देती।
हंसा दीप के ‘काँच के घर’ की
मोहिनी की अनब्याही बेटी का गर्भ ठहरना माँ की छवि को धक्का
पहुंचाता है।
अनिल प्रभा कुमार के ‘‘सितारों में
सूराख’ में बंदूक संस्कृति के चंदोवे तले पनपने वाला
प्रेम है। जिसका अंत बंदूक की गोलियां ही करती हैं। अमेरिका
में दस करोड़ लोगों के पास बंदूकें हैं। गायिका जेनिफर फॉक्स का
बॉय फ्रेंड उसकी सफलता से जलता है और इसीलिए वह उसकी तीन
गोलियों का निशाना बन पाँच वर्ष अस्पताल में रहने के लिए
अभिशप्त है। प्रेम का एक दूसरा रूप भी यहाँ चित्रित है। जय
बेटी चिन्मया का मुस्लिम लड़के समीर खान के लिए रागबोध स्वीकार
नहीं कर पाता। कारण भारत- पाक विभाजन के समय हुई नृशंसता,
वहशत, नफरत, छुरों के नंगे नाच, लूट- पाट, कुओं में कूद प्राण
त्यागती युवतियाँ, बलात्कारों की शृंखला, व्यक्ति को ज़िंदा
लाशों में बदलने वाला विस्थापन- के दृश्य जय को हांट करते हैं।
प्रेम का रूप, प्रारूप, स्वरूप सब बदल गए हैं। विचार करना
होगा- क्या लिव- इन प्रेम है? वीक-एंड पर मित्र मंडली के साथ
की मस्ती प्रेम है ? क्या समाज अवैध बच्चों को स्वीकार रहा है
? स्त्री भी पुरुष सत्ताक में सेंध लगा रही है। प्रेमियों को
बदलना या एकाधिक प्रेमी होना भी प्रेम में आई क्रान्ति को
उजागर करता है। सुदर्शन प्रियदर्शिनी कहती हैं- “प्यार स्त्री
और पुरुष में अंतर नहीं करता। प्यार स्त्री और पुरुष के
अधिकारों के तोल में नहीं तुलता। प्यार समाज की बनी- बनाई
इमारतों पर नहीं लिखा जाता, प्यार का अपना एक फ़लक होता है जो
सबका अलग- अलग निर्मित होता है।“ आज भी प्रेमिकायेँ उस
राजकुमार की तलाश में भटक रही है, जो उनसे प्रेम भी करे,
प्रतिबद्ध भी हो और अपने को उनके अनुरूप ढाल भी ले। पुश्तैनी
दुश्मनी, जाति और धर्म, प्रतिद्वंद्व और द्वेष, दैहिक भूख और
त्याग, आभजात्य ग्रंथि – प्रेम अनेकानेक विरोधाभासों को सहेजे
है।
१ दिसंबर २०२२ |