प्रवासी महिला
कथाकार और
होली के रंग
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डॉ. मधु संधु
उत्सव-त्योहार,
रीति-रिवाज किसी भी समाज, जाति, राष्ट्र की समृद्धि,
वैभव और हर्षोल्लास के द्योतक हैं। ऐसे में भारतीय
यहाँ रहें या वहाँ-नवरात्र, दुर्गापूजा, दीपावली,
जन्माष्टमी, होली आदि का उन्हें इंतज़ार रहता ही है।
अपने देश से दूर होकर भी प्रवासी अपने धर्म और
संस्कृति से दूर नहीं हो सकते। मानस की यही संपत्ति
उनमें जब-तब जीवट भरती है, खुशियाँ देती है, पहचान
बनाती है। भारतीय पर्व-त्योहार उन्हें अपने सांस्कृतिक
जीवन मूल्यों से जोड़ते रहे हैं, उनकी जीवन शक्ति बनते
रहे हैं।
प्रवासी महिला लेखिकाओं के कथासाहित्य में होली के
त्योहार के भिन्न चित्र मिलते हैं। इलाप्रसाद के पात्र
होली की मस्ती और हुड़दंग से अपने को रोक नहीं पाते।
उनकी कहानी ‘होली’ में लड़कियों का हॉस्टल है।
छुट्टियों के कारण इस समय तीन सौ में से मात्र पच्चीस
लड़कियाँ ही हॉस्टल में हैं। लेकिन होली तो होली है।
स्मिता, वेदिका, सुधा, संगीता, वैशाली पूरे हॉस्टल में
रंग-गुलाल लिए घूमती हैं। महिला कॉलेज के छात्रावास
पहुँच जाती हैं। कमरों के दरवाजे पीट-पीट कर सबको बाहर
निकालती हैं। चेहरे गुलाल से रंग देती हैं। रंग भरी
बाल्टियों के खाली हो जाने पर, उन्हें उलटी करके
गाती-बजाती-नाचती हैं।
उनके उपन्यास‘ रोशनी आधी अधूरी-सी’ में नायिका शुचि
समय-समय पर बी. एच. यू., मुंबई आई. टी. और अमेरिका में
रहती है। उनके पात्र देश में हों या विदेश में होली
उनका प्रिय त्योहार है। बी. एच. यू. की पृष्ठभूमि ही
सांस्कृतिक है। इसकी स्थापना महामना मालवीय जी ने बसंत
पंचमी के दिन की थी। । विद्या के इस मंदिर के सारे
विभाग काशी विश्वनाथ मंदिर जैसे बने हैं। ज्योतिकुंज
हॉस्टल के बरामदे के कोने में मंदिरनुमा जगह पर
सरस्वती की मूर्ति है। शुचि प्रथम बार माथा नवा कर ही
प्रविष्ट होती है। बसंत पंचमी के दिन बी. एच. यू. में
सरस्वती पूजा की जाती है। होली धूमधाम से मनाई जाती
है। बाद में मिलकर सविता के कमरे में खाना खाया जाता
है।
“चेन्नई की विद्या बड़े-सांभर बना लाई थी। महाराष्ट्र
की पूरनपोली शुभा ले आई थी। विभा और निवेदिता चावल
सांभर ले आए थे। सविता की पूरी मंडली-मानसी, वंदना,
विनीता, संगीता सब थे। दाल-पुलाव, राजमाह, आलूदम, खीर,
लेमन राइस, गोभी-आलू, टमाटर की मीठी चटनी, आचार और भी
जानें क्या-क्या।”
मुंबई आई. टी. के परिसर में भी शिव मंदिर है। यहाँ भी
नवरात्रि के दौरान डांडिया रास का आयोजन होता है,
लेकिन इसमें लड़कियाँ अपने ब्वाय फ़्रेंड्स को विशेषत:
आमंत्रित करती है। होली भी खेली जाती है। लड़के,
लड़कियों के हॉस्टल और लड़कियाँ, लड़कों के हॉस्टल जाती
हैं। यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जगजीत सिंह,
पंडित जसराज, जाकिर आदि को सुना जाता है। टेक फ़ेस्ट और
वार्षिकोत्सव में पूरा संस्थान मतवाला हो जाता है।
अमेरिकी भारतीय समुदाय भी भारतीय दर्शन और संस्कृति से
पूर्णत: जुड़ा है। मंदिरों में भारतीय उत्सव त्योहारों
का आयोजन इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। वहाँ शिव मंदिर,
विष्णु मंदिर, लक्ष्मी मंदिर, सब हैं। मकर संक्रांति,
होली, जन्माष्टमी, गरबा, शेराँ वाली की भेंटें-सब पर
भारतीय एकत्रित होते हैं। इसी बहाने परस्पर
मिलते-जुलते हैं। होली का सार्वजनिक आयोजन पार्कों में
भी किया जाता है। आयस्टर क्रीक पार्क में छह हज़ार के
आसपास लोग एकत्रित होते हैं और जमकर होली खेलते हैं।
रश्मि अपनी बेटी सोनल के जन्मदिन पर पूजा का आयोजन
करती है। शेराँ वाली के दरबार में भजन गाये जाते हैं।
सभी गाते-नाचते हैं-होली खेलत रघुवीरा, अवध में होली
खेलत रघुवीरा। होली गीतों का त्योहार है। इला प्रसाद
की कहानी ‘होली’ और उपन्यास ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ में
लड़कियाँ गाती हैं-
‘होली खेले रघुवीरा
अवध में होली खेले रघुवीरा।‘
कहते हैं कि पूर्णिमा की रात को सोज़्रोफ़ेनिया की
बीमारी चरम पर पहुँच जाती है। इला प्रसाद की कहानी
‘होली’ और उपन्यास ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ की सिमी इस
रोग से पीड़ित है। होली के शोर, जोश और हंगामे में वह
पागलों की तरह नाचती है। पूरी रात कारीडोर में घूमती
रहती है।
सुधा ओम ढींगरा की कहानी ‘ऐसी भी होली’ की अमेरिकन
यहूदी युवती वेनेसा अपने भारतीय पति अभिनव से अधिक
भारतीय संस्कृति से जुड़ी है। कहानी में होली के अनेक
चित्र हैं। वेनेसा की बचपन की सहेली ऋचा शुक्ल रंगों
की थाली से टीका लगा उसका स्वागत करती है और बेसमेंट
में पहुँचते ही रंगों से धुत भारतीय उन्हें भी रंगों
में सराबोर कर देते हैं। सब के कपड़े कलाकृतियों से
आकर्षक हो जाते हैं। होली के भास्वर गीतों पर बच्चे,
युवा, बूढ़े – सब थिरकते हैं। भिन्न पकवानों, मिठाइयों
के साथ-साथ ठंडाई और गुझिया भी है। हाँ! यहाँ ठंडाई के
साथ-साथ जिन, ब्लैक लेबल, वोदका, विह्स्की, स्कॉच की
नदी भी बह रही है। ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ पर लोग
नाचते हैं। होली के रोज़ ही अभिनव वेनेसा को प्रपोज
करता है। होली पर ही अभिनव और वेनेसा के परिवार उनकी
इस अंतर्देशीय शादी को स्वीकार करते हैं। दादी सबके
माथे पर गुलाल का टीका लगा गालों को छू लेती है।
अभिभूत अभिनव कहता है, “यह उपहार मैं कभी भूल नहीं
पाऊँगा। रंगों का मतवाला कभी सोच भी नहीं सकता कि होली
ऐसी भी हो सकती है।"
स्वदेश राणा की ‘हो ली’ विश्वासों, अंध विश्वासों की
अवधारणाओं के परिप्रेक्ष्य में होली के शापों-वरदानों,
होनी-अनहोनी की कहानी है। यह डलहौज़ी के रास्ते में
पड़ने वाली हीरा मंडी के एक परबतिया परिवार की कहानी
है। कहते हैं कि होली के दिन उनके एक पुरखे ने एक
पहाड़िन का आँचल मैला कर दिया था और वह व्यास दरिया
में डूब मरी थी। तभी से यह परिवार शापित है। भाभी
गौरादेवी की भी झील में डूबने से मृत्यु हो जाती है।
होली के दिन के रूमानी वातावरण में कुँवर जी की दूसरी
पत्नी मनसा ननद के बेटे की हो ली थी। यह रहस्य कोई
नहीं जानता। लेकिन होली का यह सान्निघ्य मनसा को माँ
बना देता है और बेटे का जन्म परिवार को शापमुक्त कर
जाता है। कहानी में होली के रंग फूलों से भरी
टोकरियों, इतर से भरी सुराहियों, अबरक़ गुलाल से भरी
थालियों, रंगों से भरे टबों, कच्चे अंडों के लेप,
ठंडाई से भरे जगों, मौज-मस्ती और मिठाइयों से महक रहे
हैं। यह एक ऐसी होली है, जिसने उनका पूरा जीवन ही
गुलाबी कर दिया है।
शैलजा सक्सेना की कहानी ‘नीला की डायरी’ की नायिका
अपनी डायरी में उस समय का भी उल्लेख करती हैं, जब
वाल-टु-वाल कार्पेटिंग खराब होने के डर से बच्चों को
वाश रूम में ले जाकर माथे पर गुलाल का टीका लगाकर होली
का शगुन कर लिया जाता था और आज (१० मार्च, २०२१) यहाँ
कितने सारे भारतीय मिलकर मंदिर में होली खेलते हैं।
कविता वाचक्नवी की कहानी ‘रंगों का पंचांग’ उस देश की
है, जहाँ छह महीने का दिन और छह महीने की रात होती है।
स्नो जल्दी ही आईस बन जाती है। नायिका नार्वे के
त्रोदहाइम नगर में लगभग एक वर्ष पहले आई थी। तब होली
के दिन थे और आज भी भारत से आए बहन के फोन से पता चलता
है कि होली के ख़त्म होने में नार्वे के हिसाब से पाँच
घंटे रह गए हैं। नायिका को लगता है कि यह देश कितना
बेगाना है। इसके पेड़ पौधे तक बेगाने हैं। न बसंत, न
कोयल की कूक, न अमराई, न लहलहाते खेत। होली के चटक रंग
और पिचकारियों की बौछारें उसे बेचैन कर देती हैं।
हंसा दीप के उपन्यास ‘केसरिया बालम’ की विवाहोपरांत
राजस्थान से अमेरिका पहुँची धानी का पसंदीदा त्योहार
होली है। उस देश में उसका सबसे पहला त्योहार यही आता
है। उसे याद आता है कि भारत में पूरा मुहल्ला, सारी
सखियाँ सहेलियाँ रंग-गुलाल अबीर के से सजे थालों के
साथ कैसे एक टेंट के नीचे एकत्रित होकर मस्ती करती थी।
पति बाली उसे न अबीर गुलाल लाकर देता है और न उसे जाने
देता है, बल्कि त्योहारों के बिना जीवन जीने की आदत
डालने का संदेश अवश्य देता है। कालांतर में बेटी आर्या
बड़ी होती है। भारत की होली के हुल्लड़ की तो अमेरिका
में कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इस
बहुसांस्कृतिक देश में भी हर संस्कृति के लिए स्पेस
है। शिक्षण संस्थाओं में ऐसे आयोजन होते रहते हैं।
आर्या को अपने स्कूल के ‘साउथ एशियन कल्चर डे’ का
उत्तरदायित्व सौंपा जाता है।
अर्चना पेन्यूली की कहानी ‘अपने पुराने घर में आखिरी
दिन’ की नायिका माता-पिता की मृत्युपरांत अमेरिका से
डेन्मार्क अपने पैतृक घर को बेचने के लिए आती है। घर
की एक-एक चीज़, एक-एक कोना उसे स्मृतिलोक की यात्रा पर
ले जाता है-“मम्मी बहुत जीवंत और खुशमिजाज़ थीं।
डेन्मार्क में वह क्रिसमस के इलावा हमारे भारतीय
त्योहार-दिवाली, होली भी बड़े जोश खरोश से मनाती थी और
अपने उत्साह में कईयों को सम्मिलित कर लेती थी। होली
पर गुझिया बनाने के लिए वह देशी दुकानों में खोये,
मावे, चिरोंजी, जायफल आदि सामग्रियों को ढूँढती । उनका
गुझिया और मठरी बनाने का अभियान बड़े पैमाने पर चलता।
सूजी मावा की गर्म-गर्म गुझिया तेल से उतरती। घर
भीनी-भीनी खुशबू से महक जाता। सबसे पहले भगवान को भोग
लगता। हम अबीर, गुलाल, पिचकारियाँ, मिठाई और अन्य
व्यंजनों के साथ किसी न किसी बाग में इकट्ठा होते और
पूरी मौज-मस्ती के साथ होली का आनंद लेते। पहले सूखी
होली खेलते, फिर पानी पर उतर आते।“
विदेश में जाकर प्रवासी ने जाना कि होली जैसे
मौज-मस्ती और हुड़दंग वाले त्योहार विदेशी संस्कृति में
भी मनाए जाते हैं। इला प्रसाद की कहानी बैसाखियाँ में
अमेरिका में मनाए जाने वाले एक आयरिश त्योहार सैंट
पेटरिक का उल्लेख है। यह भी होली जैसा ही त्योहार है।
लोग हरे रंग के कपड़े पहनते हैं। गाड़ियों में जलूस
निकलता है। दर्शकों पर तीन पत्ती वाला शैमराक, मोतियों
की माला, चॉकलेट फेंके जाते हैं। सुषमा इसमें भारतीय
संस्कृति की झलक पाती हर साल इसमें शामिल होती है।
पहली बार शैमराक मिलता है और उसका रिसर्च पेपर स्वीकृत
हो जाता है। दूसरी बार तीन पती मिलती है और अचानक लुईस
आकार उसके पैसे लौटा जाता है। तीसरी बार वह बूस्टन में
नौकरी लगने की आकांक्षा ले इसमें शामिल होती है। उनकी
‘पहचान’ में डेन्मार्क की धरती पर भारतीय ‘इंडिस्क
फ़ेवर’ मेले का आयोजन करते हैं। ‘वेयर डू आई बिलांग’
उपन्यास में लोग मंदिरों में व्रत-त्योहारों का आयोजन
कराते रहते हैं। अनेक स्थलों पर पात्रों के नाम ही
होली से जुड़े हैं। जैसे-फागुनी, धानी ।
प्रवासी महिला लेखिकाओं का कथा लेखन भारतीय उत्सव
त्योहारों की समृद्ध परंपरा सहेजे है। सुषम बेदी के
उपन्यास ‘हवन’ और कहानी ‘हवन उर्फ किरदारों के अवतार’
में गुड्डो हमेशा पहली जनवरी को हवन करती है। उनके
‘इतर’ में गुरु पूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है।
अर्चना पेन्यूली की ‘एक छोटी सी चाह’में गणतन्त्र दिवस
का आयोजन है। पूर्णिमा वर्मन की ‘उसकी दीवाली’ की
नन्दिता त्रिवेदी घर, ग्राहक, कारीगर, किन्नर-सब की
दीवाली में आभा भरने के प्रति सजग है।
‘वेयर डू आई बिलांग’ में अर्चना पेन्यूली लिखती हैं-“
सभी एशियाई देशों की तुलना में भारतवासी ऐसे हैं, जो
अपनी नई दुनिया की धारा में सरलता से घुलमिल जाते हैं,
साथ ही अपनी सांस्कृतिक पहचान भी बनाए रखते हैं।“
होली के रंग उदास मनों को प्रसन्नता देते हैं। चरमरा
रहे रिश्तों को जोड़ने की जादुई शक्ति रखते हैं। सूने
जीवन में रंग भर देते हैं। तनाव से मुक्ति देते हैं।
मैत्री के द्वार खोलते हैं। पराई धरती पर ऐसे आयोजन
लाईफ लाइन और ऑक्सीज़न का काम करते हैं। इला प्रसाद की
कहानी ‘चुनाव’ की नायिका सोचती है-
“पश्चिमी संस्कृति की आँधी में जो अभी तक पैर नहीं
उखड़े, तो इसलिए कि अपने देश, शहर की थोड़ी सी हवा-पानी,
नमी-खुश्की, सोच-संस्कार अपने साथ लेती आई।“
प्रवासी के लिए होली का रंगीन विजयोत्सव आस्था और
आवश्यकता दोनों से जुड़ा है। भले ही समय, स्थान और
स्थिति के कारण थोड़ा परिवर्तन आ गया हो, लेकिन होली की
मस्ती, हुड़दंग, संदेश वहाँ भी वैसे ही जीवित हैं।
भारतवंशियों को एक माला में पिरोने का काम कर रहे हैं।
१ मार्च २०२२ |