रामराज्य और
उसकी विशेषताएँ
- डॉ. शोभा निगम
एक
ऐसे आदर्श राज्य की कल्पना तथा धरा पर उसका अवतरण,
जहाँ हर ओर धर्ममय वातारण और तत्जन्य सुख-समृद्धि का
वातारवण हो, प्रारंभ से ही मानवमन की लालसा रही है।
अवध के सिंहासन पर राज्याभिषेक के बाद राम के शासन को
वाल्मीकि ने एक ऐसा ही आदर्श राज्य बताया है। इसे
उन्होंने रामराज्य की संज्ञा दी है।
किसी भी देश में राजा अथवा शासक को राज्य की खुशहाली
का जिम्मेदार माना जाता रहा है। इसके विपरीत यदि राज्य
में कहीं कोई बदहाली है तो इसका उत्तरदायी भी राजा ही
रहता है। 'यथा राजा तथा प्रजा' अर्थात जैसा राजा वैसी
प्रजा, यह उक्ति लोक में प्रसिद्ध भी है। किंतु संभवत:
अभी तक कोई राजा इतना अच्छा नहीं हुआ कि उसके राज्य
में सारी प्रजा पूर्णत: प्रसन्न और संतुष्ट हो, राज्य
में चारों ओर खुशहाली हो। भारतीय परिप्रेक्ष्य में
देखें तो संभवत: एकमात्र राम के शासन में रहा राज्य
आदर्श राज्य कहा गया है। रामराज्य का अर्थ ही हो गया,
एक आदर्श राज्य, सुशासित राज्य। रामकथा में रामराज्य
का प्रत्यय अत्यंत महत्वपूर्ण है। रामकथा की
लोकप्रियता और सर्वस्वीकृति का एक महत्वपूर्ण कारण
रामराज्य की अवधारणा भी है। राम सचेत शासक तो थे ही,
पर मुख्य बात यह है कि स्वयं अपने चरित्र के माध्यम से
उन्होंने परिवार, समाज एवं देश का अच्छा सदस्य बनने की
प्रेरणा भी अपनी प्रजा को दी थी।
रामायण में रामराज्य का उल्लेख
वाल्मीकीय रामायण में तीन स्थानों पर रामराज्य का
उल्लेख है। सर्वप्रथम इसका वर्णन बालकांड (सर्ग १) में
मिलता है। यहाँ नारद वाल्मीकि को संक्षेप में रामकथा
सुनाते हैं जो राम के जन्म से लेकर अयोध्या वापसी पर
राम के राज्याभिषेक तक चलती है। इस तरह यह कथा भूत से
लेकर वर्तमान तक की है। फिर आगे छह श्लोकों में नारद
भविष्य की कथा बताते हैं कि अब जो राम अयोध्या पर
राज्य करेंगे, वह राम-राज्य कैसा होगा। यहाँ संक्षेप
में रामराज्य की विशेषताएँ बताई गई हैं। दूसरी बार
वाल्मीकि युद्धकांड (सर्ग १२८) में रामराज्य का वर्णन
करते हैं जिसमें रामराज्य कैसा था, यह बताया गया है।
अंत में उत्तरकांड (सर्ग ४१) में भरत के मुख से पुन:
रामराज्य का वर्णन सुनने मिलता है। उल्लेखनीय है कि
रामराज्य को लेकर तीनों वर्णनों में अधिकांश तथ्य समान
हैं। परवर्ती रामकाव्यों, जैसे अध्यात्मरामायण और मानस
आदि में यह वर्णन वाल्मीकि रामायण के समान ही है। हाँ,
आधुनिक युग में 'रामराज्य' के नाम से बलदेवप्रसाद
मिश्र, हरिशंकर शर्मा एवं सुरेशचंद्र शर्मा द्वारा तीन
कृतियाँ रची गई हैं। ये तीनों ही रामायण की विचार-धारा
के साथ गांधीजी की विचारधारा से प्रेरित हैं। यहाँ
भारतीय धर्म और संस्कृति का आदर्शरूप चित्रित किया गया
है।
रामराज्य की छह प्रमुख विशेषताएँ हैं। इस काल में सभी
सुखी है, सभी कर्तव्यपरायण हैं, सभी दीर्घायु है, सभी
में दाम्पत्य प्रेम है, प्रकृति उदार है और सभी में
नैतिक उत्कर्ष देखा जा सकता है।
सभी सुखी-
रामराज्य की बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ सभी प्रसन्न,
सुखी, संतुष्ट, हृष्ट-पुष्ट है। सुख या संतुष्टि तन-मन
दोनों की होती है। शरीर के स्वस्थ होने का अर्थ है कि
वह रोगव्याधि से, जो हमें दुख देते हैं, मुक्त हैं।
स्वस्थ शरीर सुख का बड़ा कारण होता है। मन के विभिन्न
प्रकार के विकार जैसे लोभ, ईर्ष्या, असंतोष आदि भी
हमारी प्रसन्नता में बाधक होते हैं। ये मानवीय संबंधों
में तरह-तरह की कटुता और विकृतियों को भी जन्म देते
हैं जिससे समाज और व्यक्ति दोनों ही प्रभावित होते
हैं। रामराज्य में सभी के सुखी होने का तात्पर्य है कि
किसी को किसी प्रकार का दु:ख नहीं है। वस्तुत: यहाँ
कोई किसी को दु:ख पहुँचाता नहीं है। स्पष्ट है कि समाज
में ऐसी स्थिति की कामना हर मनुष्य करता है। वाल्मीकि
के शब्दों में निरामया विशोकाश्च रामे राज्यं प्रशासति
(वा.रा.यु.कां.१२८.१०१) अर्थात रामराज्य में रोग और
शोक से रहित थे तथा सर्वे मुदितमेवासीत् अर्थात सभी
प्रसन्न रहते थे। इस समय की स्थिति सत्युग के समान थी
(वही, बा.कां.१.९३)।
तुलसीदास की रामराज्य में सर्वसुखी होने को दर्शाने
वाली प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं-दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहि व्यापा।।(मानस,उ.कां.२१.१) यहाँ
व्यक्ति स्वयं तो सुखी है ही दूसरों से भी उसके प्रेम
संबंध है। सभी मनुष्य परस्पर प्रेम से रहते हैं। सब नर
करहिं परस्पर प्रीति। (बा.कां २१.१) यहाँ तक कि हाथी
और सिंह जैसे पशु भी परस्पर प्रेम से रहते हैं। रहहिं
एक संग गज पंचानन। रामराज्य में सुखसंपदा इतनी है कि
बरनि न सकइ फनीस शारदा। अर्थात शेषनाग और सरस्वती भी
उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं है। पर्वत स्वयं
मणियों की खानें प्रगट करते हैं और समुद्र लहरों के
द्वारा डारहिं रत्न तटहिं नर लहहिं अर्थात किनारों पर
रत्न डाल देते हैं जिसे लोग पा लेते हैं। वृक्ष माँगने
से ही मधु टपका देते हैं और गौएँ मनचाहा दूध देती हैं।
धरती सदा हरी भरी रहती है। यहाँ कोई दरिद्र, दुखी और
दीन नहीं है। नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
सभी कर्तव्यपरायण-
किसी भी राज्य में खुशहाली तभी आती है जब सभी
अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करें। यदि 'मैं' अर्थात
हर व्यक्ति अपने-अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन
करने लगे तो किसी भी समाज में रामराज्य आने में समय
नहीं लगेगा। श्रेष्ठ सामाजिकता एवं नैतिकता यही है।
रामायण-काल में हमारे देश में व्यक्तियों के कर्तव्य
निर्धारित करने के लिये वर्णाश्रम व्यवस्था रही है।
हमारे देश की प्राचीन व्यवस्था में भी व्यक्ति के वर्ण
और आश्रमिक स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों के पालन
पर बल दिया गया है। इस व्यवस्था की आदर्श स्थिति यह है
कि सभी व्यक्ति अपने-अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार
कार्य करें। वाल्मीकि लिखते हैं-ब्राह्मणा: क्षत्रिया:
वैश्या: शूद्रा: लोभविवर्जिता:।...अर्थात रामराज्य में
चारों वर्ण के लोग लोभरहित होकर अपने-अपने
वर्णाश्रमानुसार कर्म करते हुए संतुष्ट रहते थे
(वा.रा.यु.कां.१२८.१०४)।
रामराज्य की इस व्यवस्था के विषय में वाल्मीकि के समान
तुलसी भी कहते हैं-
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।
(मानस,उ.कां.२०)
अन्य स्थान पर तुलसी कहते हैं-चलहिं स्वधर्म निरत
श्रुति नीति।। अर्थात लोक श्रुति और नीति के अनुसार
अपने अपने धर्म में रत रहते थे। यहाँ उल्लेखनीय है आज
हमें प्राचीन वर्णव्यस्था में अनेक दोष दिखाई देते
हैं। यह हमें अमानवीय लगती है किंतु हमें स्मरण रखना
चाहिये कि वर्ण जन्म के आधार पर नहीं कर्म के उसकी
प्रकृति के आधार पर तय होते थे। किसी भी देश का कल्याण
तभी संभव है जब उस देश का शासक दार्शनिक हो। इससे
स्पष्ट है कि मनुष्य की प्रकृति के अनुसार उसका वर्ण
निर्धारित होना चाहिये। जब वर्ण जन्म के आधार पर होता
तभी इस व्यवस्था में विकृति आती है।
पूर्ण आयु-
रामराज्य में सभी पूर्ण आयु प्राप्त करते थे। पूर्ण
आयु प्राप्त व्यक्ति की मृत्यु शोकप्रद नहीं होती।
मृत्यु का दु:ख परिजनों के लिये तब अत्यंत कष्टकारी
होता है जब वह अकाल आती है। किसी भी पिता के लिये
पुत्र की अर्थी को कंधा देना अपने मरण से अधिक
पीड़ादायक होता है। रामराज्य की विशेषता है कि इसमें न
पुत्र की मृत्यु होगी न स्त्रियाँ विधवा होगी।
वाल्मीकि कहते हैं-राम राज्य में विधवाओं का विलाप
नहीं सुनाई देता था। बूढ़ों को बालकों के अन्त्येष्टि
संस्कार नहीं करने पड़ते थे न च स्म वृद्धा बालानां
प्रेतकार्याणि (वा.रा.यु.कां.१२८.९९)।
रामायण के अनुसार रामराज्य में अकालमृत्यु होने पर
उसका कारण ढूँढा जाता था तथा फिर उसका निवारण भी किया
जाता था। इस संदर्भ में शंबूक-वध का प्रसंग दृष्टव्य
है। शंबूकवध यद्यपि आलोच्य रहा है, किंतु एक बात
ध्यातव्य है कि अच्छे शासक को अकालमृत्यु का कारण ढूँढ
कर उसका निवारण करना चाहिये। अकालमृत्यु का एक कारण
अन्य जंतुओं का उत्पात भी होता है। रामराज्य में सर्प
आदि दुष्ट जंतुओं का भय नहीं था और रोगों की आशंका भी
नहीं थी (वा.रा.यु.कां.१२८.९८)।
तुलसी ने इस संदर्भ में रामराज्य का कितना सुंदर चित्र
खींचा है-
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज
सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं काउ अबुध न लच्छन
हीना।। (मानस,उ.कां.२१.३)
दाम्पत्य प्रेम-
किसी भी समाज में पति-पत्नी के बीच परस्पर प्रेम,
सौहार्द्र और विश्वास परिवार की और साथ ही समाज की
खुशहाली का मुख्य कारण होता है। रामराज्य में
स्त्रियाँ तो पतिव्रता थी ही, पुरुष भी एकपत्नीव्रती
थे।
एकनारि व्रतरत सब झारी।
ते मन बचन क्रम पति हितकारी।।
स्वयं राम तथा शेष तीनों भाइयों के एकपत्नीव्रती होने
का उदाहरण प्रजा के सामने था।
प्रकृति की उदारता-
मनुष्य प्रकृति से बँधा है। उससे अलग वह नहीं रह सकता।
बल्कि कहा जाये तो उसे प्रकृति की दया की नितांत
आवश्यकता होती है। रामराज्य में प्रकृति भी मनुष्य पर
मेहरबान थी। वहाँ दुर्भिक्ष का भय नहीं था। आग और पानी
भी नुकसान नहीं पहुँचाते थे। सभी नगर धनधान्य संपन्न
थे। यहाँ वृक्षों की जड़ें मजबूत होती थीं। वृक्ष सदा
फूलों फलों से लदे रहते थे। मेघ आवश्यकतानुसार बरसते
थे। वायु मंदगति से सुखद स्पर्श देते हुए चलती थी।
नित्यमूला नित्यफलास्तरवतत्र पुष्पिता:।
कामवर्शी च पर्जन्य: सुखस्पर्शश्च मारुत:।।
(वा.रा.यु.कां.१२८.१०३)।
अध्यात्मरामायणकार कहते हैं-राघवे शासति भुवं लोकनाथे
रमापतौ। वसुधा शस्यसम्पन्ना फलवन्तश्च भूरुहा:
(अ.रा.उ.कां ४.२१) अर्थात त्रिलोकीनाथ लक्ष्मीपति राघव
के राज्य में धरती धन-धान्य से सम्पन्न थी और वृक्ष
हमेशा फलों से लदे दिखाई देते थे। मानस में तुलसीदास
रामराज्य में उदार प्रकृति का वर्णन इन शब्दों में
करते हैं- फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। वनों में वृक्ष
सदा फूलते और फलते हैं। सीतल सुरभि पवन बह मंदा। गुंजत
अलि लै चलि मकरंदा।। अर्थात शीतल मंद सुगंधित पवन बहती
रहती है और भौंरे पुष्पों का रस लेकर गुंजार करते जाते
हैं।
नैतिक उत्कृष्टता-
नैतिकता ही समाज को मजबूती और श्रेष्ठता प्रदान करती
है। वाल्मीकि के अनुसार रामराज्य में चोर-लुटेरों का
भय नहीं था। नानर्थं कश्चिदस्पृशत् अर्थात अनर्थकारी
काम कोई करता ही नहीं था (वा.रा.यु.कां.१२८.९९)। सारी
प्रजा धर्म में तत्पर रहती थी। कोई झूठ नहीं बोलता था।
(वही, १०५) उदारता, परोपकारिता, अचौर्य, और विप्रों की
सेवा करना यह गुण सभी व्यक्तियों में होना आवश्यक है।
तुलसी के शब्दों में-
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।।
नैतिक उत्कृष्टता के लिये ज्ञान का होना आवश्यक है।
रामराज्य में सभी ज्ञानी थे इसीलिये दंभरहित कृतज्ञ और
अकपट की भावना मन में रखते थे।
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी । नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कृतज्ञ नहिं कपट
सयानी।। (मानस,उ.कां.२१.४)
रामनाम की गूँज-किसी भी शासक का चरित्र दृढ़ हो एवं
उसके कार्य प्रजा के अनुकूल हो तो स्वाभाविक ही प्रजा
उसका नामजप करती है। रामराज्य में प्रजा केवल राम की
ही चर्चा होती थी। सारा जगत राममय हो रहा था। रामो
रामो राम इति प्रजानामभवन् कथा
(वा.रा.यु.कां.१२८.१०२)।
पुरी के लोग कहते थे कि हमारे लिये चिरकाल तक ऐसे ही
प्रभावशाली राजा रहें (वही, उ.कां.४१.२१)।
मानस में तुलसी ने प्रजा को रामभक्ति में रत बताया है-
राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परमगति के अधिकारी।।
तो ऐसा था रामराज्य। राम ने इस तरह स्थापित किया था
अपने साम्राज्य में आदर्श का प्रतिरूप।
१ नवंबर २०२१ |