७ मई जन्म जयंती के अवसर पर
पांडुरंग वामन काने
- नवीन पंत
पांडुरंग वामन काने असाधारण प्रतिभा से सम्पन्न
व्यक्ति थे। वह भाषाविद और संस्कृत के प्रकांड पंडित
थे। उनके द्वारा लिखित धर्मशास्त्र का इतिहास एक
अमूल्य रचना है। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन और
आधुनिक विचारों का अदभुत संगम था। वे जहाँ, प्राचीन
संस्कृति की रक्षा करने को कटिबद्ध रहते थे, वहीं वे
छूआछूत, विधवाओं के उत्पीड़न और जातीयता के विरुद्ध थे।
भारत सरकार ने उन्हें १९६३ में भारत रत्न से सम्मानित
किया था।
उनका जन्म एक साधारण मध्यम वर्गीय रूढ़िवादी चित्तपावन
ब्राह्मण परिवार में ७ मई १८८० को हुआ था। काने के
पिता वामन शंकर काने तालुका वकील थे। वामन नौ भाई बहन,
तीन बहनें और छह भाई थे। काने ने १९०४ से १९११ तक
मुम्बई में अध्यापन किया। पांडुरंग की शिक्षा मिशन
हाईस्कूल दमली में हुई। उन्होंने १८९७ में मैट्रिक
परीक्षा पास की। इसके बाद अगले छह वर्षों के दौरान
उन्होंने बीए, एमए, एलएलबी और एलएलएम की परीक्षाएँ
सम्मान के साथ पास कीं। उन्होंने सात वर्ष तक सरकारी
स्कूलों में अध्यापन किया। लेकिन जब पदोन्नति में
पक्षपात किया गया तो उन्होंने सरकारी सेवा से
त्यागपत्र दे दिया।
वे धर्मशास्त्र के इतिहास पर लिखी पुस्तक के लिए
विख्यात हैं। उन्होंने ३२ वर्षों में इस महान ग्रंथ की
रचना की। उनकी इस महान रचना में पिछले दो हजार चार सौ
वर्षों के दौरान हिन्दुओं के धार्मिक और दीवानी
कानूनों की विकास यात्रा का वर्णन है। यह पुस्तक अपने
ढंग की अनूठी है क्योंकि काने ने कानूनों की विकास
यात्रा का वर्णन करते हुए उनकी गहन समीक्षा की है।
इसके अलावा इसमें महाभारत, पुराणों और कौटिल्य के
अर्थशास्त्र से संबंधित उपयोगी सूचना है।
काने का दृष्टिकोण उदार, आलोचनात्मक और आधुनिक है।
उनका मानना था कि धार्मिक नियम स्थायी नहीं होते। वह
छूआछूत, विधवाओं के मुंडन की निंदा करते थे। वह
धर्मान्तरण और अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन करते थे।
उनका नजरिया आलोचनात्मक और आधुनिक था। उनका मानना था
कि हमें बदलते समय के साथ अपना आचार, व्यवहार और विचार
बदलने चाहिए। उनके अनुसार धार्मिक ग्रंथ और नियम
स्थायी नहीं हैं।
जब १९११ में उनकी वरिष्ठता की उपेक्षा करके किसी अन्य
को पदोन्नत किया गया तो उन्होंने त्यागपत्र दे दिया।
इसके बाद वह मुम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
इसी के साथ वह कानून के छात्रों को उनकी पढ़ाई में
सहायता देने के लिए लॉ की प्राइवेट क्लासेज’ चलाते थे।
उन्होंने मुम्बई विश्वविद्यालय में ‘विल्सन फिलोलोजिकल
लेक्चर (१९१३) दिया। वह १९१५-१७ के दौरान यूनिवर्सिटी
स्प्रिंगर रिसर्च स्कॉलर नियुक्त किए गए। उन्हें
१९१७-२३ के दौरान गवर्नमेंट लॉ कालेज में प्रोफेसर
नियुक्त किया गया।
उनकी प्रमुख रचनाओं, साहित्यशास्त्र और धर्मशास्त्र का
आधार १९०६ में रचित अलंकार साहित्य का इतिहास था।
मुम्बई विश्वविद्यालय ने इसके लिए उन्हें मांडलिक
स्वर्ण पदक प्रदान किया। १९२६ में उन्होंने संस्कृत
भाषा के एक आलोचनात्मक ग्रंथ, व्यवहारमयूख की रचना की।
इस पुस्तक का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद किया गया
है। ‘अंलकार साहित्य का इतिहास उनकी एक अन्य रचना
‘साहित्य दर्पण’ का परिशिष्ट है। १९५१ और १९६१ में
इसका पृथक संस्करण प्रकाशित किया गया। काने असाधारण
विद्वान थे। वे मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी में समान
रूप से बात करते थे।
धर्मशास्त्र का इतिहास उनकी विशाल और सर्वोत्तम कृति
है। पाँच खंडों की इस विशाल रचना में ६५०० पृष्ठों में
भारत के प्राचीन और मध्ययुगीन धार्मिक और दीवानी
हिन्दू कानून का विवेचन किया गया है। इसमें ईसा पूर्व
६०० से १८०० ई. तक न केवल इस विषय पर अनेक विद्वानों
के लेखों पाठों और आँकड़ों संबंधी बहुमूल्य सामग्री है,
बल्कि दी गई समस्त सामग्री की कठोरता से निरीक्षा
करके, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उसकी आलोचना की गई
है। काने ने अपने गहन अध्ययन से हिन्दू समाज के
युक्तिपूर्ण पुनर्गठन की योजना तैयार की। उन्होंने
धर्मशास्त्र संबंधी सभी विषयों यथा ज्योतिष, गणित और
फलित, सांख्य, योगतंत्र, पुराण, मीमांसा का विवेचन
किया है। उनकी यह रचना भारतीय संस्कृति के विपुल भंडार
के द्वार खोल देती है। इसका पहला खंड १९३० में
प्रकाशित हुआ और अंतिम पाँचवाँ खंड (दो भागों में)
१९६२ में प्रकाशित हुआ।
(((काने के सर लल्लूभाई शाह भाषण मुम्बई विश्वविद्यालय
ने १९५० में हिन्दू कस्टम्स एंड मार्डन लॉ शीर्षक से
प्रकाशित किए।))) काने का व्यक्तित्व धार्मिक साहित्य
के गहन और आलोचनात्मक अध्ययन से विकसित हुआ था। समाज
सुधार के मामले में उनका दृष्टिकोण उदार था। उन्होंने
कई विदेश यात्राएँ की थीं। इस महान विद्वान का ९२ वर्ष
की उम्र में १९७२ में निधन हुआ।
काने को अपनी विद्वता के लिए महामहोपाध्याय उपाधि से
सम्मानित किया गया था। यह किसी संस्कृत विद्वान को दी
जाने वाली सर्वोच्च उपाधि है। वे मुम्बई विश्वविद्यालय
के कुलपति भी रहे। उन्होंने कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय
की रूपरेखा तैयार की और उसकी स्थापना में महत्वपूर्ण
योगदान किया। साहित्य अकादमी ने १९५६ में उन्हें
धर्मशास्त्र के इतिहास खंड चार के लिए संस्कृत से
अनुवाद वर्ग में पुरस्कृत किया। वे भारतीय विद्या भवन
के सम्मानार्थ सदस्य थे। प्राच्य साहित्य के क्षेत्र
में उल्लेखनीय योगदान के लिए सरकार ने उनको राज्य सभा
का सदस्य नामजद किया था।
उनका मानना था कि भारतीय संविधान में केवल अधिकारों की
चर्चा करके भारत में प्रचलित इस मान्यता की उपेक्षा की
गई है कि हर व्यक्ति के कुछ अधिकारों के साथ कुछ
कर्तव्य भी होते हैं। अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरा उपयोगी नहीं हो
सकता।
काने के अति विस्तृत ज्ञान और उनकी रचना के आधिकारिक
स्वरूप को देखते हुए शासनतंत्र की बहस में दोनों पक्ष
अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए काने के विचारों का
सहारा लेते रहे हैं। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेई
के शासन काल के दौरान जब यह विषय बहस में उठा कि क्या
वैदिक काल में भारतीय गोमांस खाते थे?... दोनों पक्षों
ने अपने तर्क के समर्थन में काने की राय उद्धृत की थी।
इसी तरह दूसरा विषय, जिस पर दोनों पक्षों ने काने को
उद्धृत किया, वह था क्या वैदिक काल में लड़कियाँ जनेऊ
धारण करती थीं?
काने की स्मृति में बम्बई की एशियाटिक सोसाइटी ने १९७४
में डॉ. पी. वी. काने इस्टीच्यूट फार पोस्ट ग्रेजुएट
स्टूडीज एंड रिसर्च की स्थापना की। इंस्टीट्यूट
प्राच्य भाषा, साहित्य के अध्ययन अनुसंधान को सुगम
बनाने, बढ़ावा देने के लिए प्रयत्नशील रहता है। इसी के
साथ हर तीसरे वर्ष वैदिक धर्मशास्त्र, अलंकार साहित्य
में उल्लेखनीय योगदान करने वाले छात्र को डॉ. पी. वी.
काने स्वर्ण पदक दिया जाता है।
१ मई २०१६ |