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१ अप्रैल जन्म जयंती के अवसर पर

केदारनाथ अग्रवाल के गीत
- रामनिहाल गुंजन


केदार प्रायः स्वतःस्फूर्त ढंग से अपनी कविताओं में गीत-तत्वों का समावेश करते हैं तो सहज ही उनमें गीतात्मकता का आना स्वाभाविक लगता है। उन्होंने ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (१९६५) की काव्य रचना के दौर में
‘धीरे उठाओ मेरी पालकी
मैं हूँ सुहागिन गोपाल की’
या फिर
'न बजाओ वंशी
मेरा मन डोलता’
जैसी गीत-पंक्तियाँ लिखी थीं। इससे स्पष्ट होता है कि वे उस दौर की कई रचनाओं को लिखते समय एक प्रकार की गीतात्मक मानसिकता से गुजर रहे थे, जिसे रामविलास जी के शब्दों में यदि कहें तो वह स्वतः स्फूर्त गीतों की प्रेरणा हो रही है। इसी प्रकार की गीतात्मक अभिव्यक्ति ‘वसंती हवा’ आदि कविताओं में भी हुई है, जो स्वाभाविक है। केदार की कविताओं पर लिखते हुए एक जगह रामविलास जी ने उल्लेख किया है कि केदार के एक गीत में, जो बाँदा के सौंदर्य को उकेरता है, लोक गीत का नया रूप निखर उठा है-
‘फूटे कटोरे सी मुस्काती
रूप भरी है नगरी।’
यों केदार ने ऐसे कई गीत लिखे हैं, जिनमें से लोकगीत की धुनों और लोकजीवन की गंध का सहज अहसास होता है, जिसकी चर्चा आगे की पंक्तियों में की जाएगी।

कवियों के कवि शमशेर बहादुर सिंह ने अपने एक लेख में केदार की रोमानी कविताओं को लक्षित कर उन्हें ‘नार्मल रोमांटिक कवि’ कहा है। यह सही भी है। वैसे केदार सौंदर्य बोध के कवि उस अर्थ में नहीं हैं, जिस अर्थ में पंत, प्रसाद, शमशेर, अंचल, नरेन्द्र शर्मा और अज्ञेय को याद किया जाता है। केदार का सौन्दर्यबोध प्रकृति और मनुष्य के सहज सजीव चित्रण पर आधारित है। जहाँ नारी के सौंदर्य का वर्णन उनकी रचनाओं में उपस्थित होता है उनमें स्वकीया नारी का सौंदर्य वर्णन ही प्रमुख है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि केदार का सौंदर्य-बोध रोमानीपन में भी है, जो प्रकृति और नारी-सौंदर्य की ओर उन्मुख है। कवि केदार में यह प्रवृत्ति दोनों रूपों में विद्यमान है। कहीं-कहीं प्रकृति और नारी एक दूसरे की पूरक के रूप में भी प्रस्तुत हुई है इसलिए उनकी सौन्दर्य दृष्टि की एकरूपता और समानता उनके वस्तुगत दृष्टिकोण और चेतना को सूचित करती है। यही कारण है कि प्रकृति और नारी उनके गीतों और कविताओं में सर्वोत्कृष्ट रूपों में मौजूद हैं। केदार की प्रेमपरक रचनाएँ जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, ज्यादातर उनके स्वकीय प्रेम तक सीमित है। अतः उनकी प्रेमपरक रचनाओं के केन्द्र में कवि-पत्नी का निर्मल प्रेम-रस प्रवाहित होता देखा जा सकता है, जो आकस्मिक भी नहीं है। केदार ने इस प्रकार के जो भी गीत और कविताएँ लिखे, वे उनके ‘हे मेरी तुम’ तथा ‘जमुन जल तुम’ नामक संग्रहों में संकलित हैं। यों रामविलास शर्मा ने केदार को ‘कामचेतना का आंचलिक कवि’ कहा है। किन्तु, केदार की उस आंचलिकता में प्रकृति, मनुष्य, नारी, गाँव तथा आस-पास का परिवेश भी शामिल है। यही कारण है कि केदार व्यापक अर्थ में प्रकृति और सौंदर्य के ही कवि ठहरते हैं। चूँकि उन्होंने गीत और प्रगीत दोनों प्रकार की गीत-रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। अतः यहाँ उन पर समवेत रूप से विचार करना समुचित होगा।

जैसा कि ऊपर संकेत किया गया है, केदार के प्रगीत- काव्यों अथवा गीतों में गाँव, खेत, पहाड़, नदी, पेड़-पौधे, किसान, मजदूर, कृषक बालाएँ, मजदूरिनें आदि का चित्रण बहुतायत में मिलेगा। चूँकि किसान धरती को अपना श्रम और पसीना एक करके आबाद और उपजाऊ बनाता है तथा समाज और देश के लिए उसमें फसलें उपजाता है, इसलिए केदार उसे धरती का सच्चा हकदार मानते हैं। वे एक गीत में लिखते हैं-
जो मिट्टी का पूर्ण पारखी
जो मिट्टी के संग-साथ ही
तप कर, जल कर
जी कर, मर कर
खपा रहा है जीवन अपना
देख रहा है मिट्टी में सोने का सपना
(यह धरती है उस किसान की)

दूसरी और केदार मानते हैं कि किसान का संबंध धरती से सनातन है, इसलिए कि घरती राधा बनकर नाचती है और किसान कृष्ण की भूमिका में उपस्थित होता है-
आसमान की ओढ़नी ओढ़े
धानी पहने फसल घघरिया
राधा बनकर धरती नाची
नाचा हँसमुख कृषक सँवरिया।

इस प्रसंग में जिन्दगी को गढ़ने वाले उन मजदूरों को केदार नहीं भूल पाते, जिनके शक्ति-श्रम के आधार पर ही किसी रामराज्य की कल्पना की जा सकती है। अतः श्रम की मर्यादा की श्रेष्ठता को केदार अपनी रचनाओं में पूरी ताकत के साथ प्रतिष्ठित करते देखे जा सकते हैं। इस प्रसंग में ‘जब जब मैंने उसको देखा’ अथवा ‘एक हथौड़ा वाला घर में और हुआ’ जैसी प्रगीत काव्य-पंक्तियों का सहसा स्मरण हो आना स्वाभाविक है। बहरहाल श्रम की श्रेष्ठता के प्रसंग में कुछ और पंक्तियाँ देखे-
जिन्दगी को वे गढ़ेंगे जो खदानें खोदते हैं
लौह के सोये असुर को लौह रथ में जोतते हैं
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम को
श्रेष्ठतम मैं मानता हूँ।

बावजूद इसके केदार इस बात को लेकर ज्यादा चिन्तित और दुखी हैं कि जो कृषक मजदूर जी कर और मर कर खेतों में समाज के लिए अनाज पैदा करता है, खुद उसे भरपेट भोजन नहीं मिल पाता और उसे आजीवन अभाव में जीवन व्यतीत करना पड़ता है। इसका फल उसकी संतानें भी भोगती हैं। यह क्रम पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी रहता है इस प्रसंग का एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत है-
जब बाप मरा तब यह पाया
भूखे किसान के बेटे ने
घर का मलवा, टूटी खटिया
कुछ हाथ भूमि वह भी परती
(अब पेट खलाये फिरता है)

ऊपर की पंक्तियों में जिस स्थिति का वर्णन है, वह कोई नई नहीं है। हिन्दुस्तान के छोटे किसानों और मजदूरों को विरासत में प्रायः अभाव, कर्ज, टूटी झोपड़ी और परती जमीन (अधिकांश की तो जमीन भी नहीं) ही मिलते रहे हैं। इसलिए जिस रामराज्य की कल्पना स्तंत्र भारत में कांग्रेस राज में की गई थी, उसकी सही परख मजदूरों और किसानों के जीवन के आधार पर आसानी से की जा सकती है। यों भी हिन्दुस्तान की व्यापक जनता जिन स्थितियों से गुजरती है, उनमें बेकारी तथा भुखमरी की समस्याएँ आम और प्रमुख हैं। एक ओर देश में बेकार युवकों की लंबी कतारें हैं तो दूसरी ओर श्रम करने के बावजूद भरपेट भोजन नहीं पाने वाला मजदूर-वर्ग है, जिनके लिए रामराज्य की कल्पना निरर्थक है। ऐसे रामराज्य पर केदार प्रखर व्यंग्य करते हैं-
आग लगे इस रामराज्य में
रोटी रूठी कौर छिना है
थाली सूनी अन्न बिना है
पेट धँसा है रामराज में
आग लगे इस रामराज में

जिस कांग्रेस राज में कभी वसंत नहीं आया, उसका गुण-गान करने वाले कवियों की कमी नहीं है। उसी कांग्रेस राज पर कभी व्यंग्य-प्रहार करते हुए निराला ने लिखा था-
गाँधीवादी आये
कांग्रेस मैन टेढ़े थे
देर तक गाँधीवाद क्या है समझाते रहे।
देश की भक्ति से
निर्विरोध शक्ति से
राज अपना होगा
जमींदार साहूकार अपने कहलायेंगे
शासन की सत्ता हिल जायेगी
हिन्दू और मुसलमान
बैर-भाव भूलकर जल्द गले मिलेंगे
जितने उत्पात हैं
नौकरों के लिए
जब तक इनका कोई
एक आदमी भी होगा
भूल नहीं बैठने की
इस प्रकार जब बघार चलती थी
जमींदार का गोड़इल
दोनाली लिये हुए
एक खेत फासले से
गोली चलाने लगा
कांस्टेबल खड़ा हुआ ललकारता रहा।
(झींगुर डटकर बोला)

उसी रामराज्य की कल्पना करते हुए कविवर सुमित्रानन्दन पंत ने अपने प्रबंध काव्य ‘लोकायतन’ की रचना की, जिस पर कांग्रेसी रामराज्य का प्रभाव स्पष्ट है। इसी को लक्ष्य कर केदारनाथ अग्रवाल पंत जी पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूके। उन्होंने लिखा-
कांग्रेस के राज में
आयो नहीं वसंत।
अपत कंटीली डार के
गावत है गुन पंत।
(कांग्रेस के राज में)

तथाकथित रामराज्य की मारी हुई एक नारी-पात्र रनिया भी है, जिसका चित्रण केदार ने ‘रनिया मेरी देख बहन है’ शीर्षक एक प्रगीत-काव्य में की है। यों केदार की रनिया निराला की कविता ‘तोड़ती पत्थर की मजदूरिन से ज्यादा भिन्न नहीं है। कारण कि वह भी श्रम करती है। हँसिया लेकर घास काटती है, फिर भी वह दुखी है। निराला की उक्त नारी-पात्र की तरह केदार की रनिया की हालत भी लगभग वही है। यानी ‘मार खा रोयी नहीं।’ उसके जीवन में भी कभी वसंत नहीं आया। केदार एक सुखी व्यक्ति से उसकी तुलना करते हुए आज के हिन्दुस्तान की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाजन्य विषमता को रेखांकित करते हैं। फिर भी वे इस बात को लेकर आश्वस्त भी हैं कि गरीब मजदूरों का हक आने वाले दिनों में सुरक्षित होगा, जिसके लिए हिन्दुस्तान और पूरी दुनिया के स्तर पर मजदूरों के पक्ष में एक व्यापक वातावरण निर्मित और परिवर्तित हुआ है। इस प्रसंग में इस कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें-
रनिया मेरी देस बहन है
अति गरीब है, अति गरीब है
मैं रनिया का देस-बंधु हूँ।

रनिया मेरी दुखी बहन है
वह निदाध में मुरझ रही है
मैं रनिया का सुखी बंधु हूँ
चिर वसंत में भी हँस रहा हूँ.

किन्तु आज मेरे विरोध में
पूरा हिन्दुस्तान खड़ा है
अब रनिया के दिन आये हैं
जग उसके माफिक बदला है
(रनिया मेरी देस बहन है)

दरअसल केदारनाथ अग्रवाल निराला के बाद दूसरे बड़े कवि हैं, जिन्होंने मानव-मन के विविध चित्र अपने गीतों और कविताओं में उकेरे हैं। जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, केदार ने प्रेमपरक कविताएँ और गीत भी लिखे हैं, जो उनकी परवर्ती रचनाओं में शामिल हैं। उन्होंने अपनी पत्नी को संबोधित जो रचनाएँ लिखी हैं, उनमें ज्यादातर दाम्पत्य-प्रेम ही व्यक्त हुआ है। वास्तव में केदार संपूर्णता में प्रेमपरक स्थितियों का चित्रण उपस्थित करते हैं। यथा-
मैं गया हूँ डूब
इतना डूबा
तेरे बाहुओं में
लोचनों में
कुन्तलों में
गिरि गया है डूब जितना
सिन्धु में संपूर्ण
सदियों पूर्व
और अब भी
मग्न हैं वे ऊबे
(हे मेरी तुम)

दूसरी ओर प्रेम में बाधक बनने वाले ‘क्रूर काल’ को भी केदार चुनौती देते हैं। काल से होड़ लेने वाले कवि शमशेर की भाँति केदार भी एक दूसरे कवि सिद्ध होते हैं-
हे मेरी तुम!
काल कलूटा बड़ा क्रूर है
उसका चाकू और क्रूर है उससे ज्यादा
लेकिन अपना प्रेम प्रबल है
हम जीतेंगे काल क्रूर को
उसका चाकू हम तोड़गें
और जियेंगे
सुख-दुख दोनों साथ पियेंगे
काल क्रूर से नहीं डरेंगे
नहीं डरेंगे, नहीं डरेंगे।
(हे मेरी तुम)

केदार की यह शकित, जो काल से नहीं डरती तथा उसे पराजित करने के लिए कृतसंकल्प है, काल द्वारा लिखे भाग्य रेखा को मिटा कर उस पर नये सिरे से जीवन रेखा अंकित करने के निमित्त अपने कवि के बाहुबल और लेखनी पर भरोसा करती है-
शक्ति मेरी बाहु में है
शक्ति मेरी लेखनी में
बाहु से निज लेखनी से
तोड़ दूँगा मैं शिलाएँ।
(शक्ति मेरी बाहु में है)

चूँकि केदार का अटल विश्वास मनुष्य के उदात्त जीवन के प्रति है, जिसमें भय, संत्रास, कुंठा, अशुभ आदि भावों का कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि केदार इनको विजित करने के लिए अपने प्रबल आत्मविश्वास का सहारा लेते हैं। इसलिए जहाँ मानव-समाज जीवन की आस्था के बजाय शुभ-अशुभ की अंध धारणाओं से ग्रस्त होता है, वहाँ केदार उस पर चोट करते हुए कहते हैं-
काटो काटो काटो कटवी
साइत और कुसाइत क्या है!
जीवन से बड़ा साइत क्या है!

चूँकि केदार श्रम-शासन के पक्षधर कवि और गीतकार हैं- ‘हम स्रष्टा हैं श्रम-शासन के’ -इसलिए वे व्यापक जीवन के भाष्यकार भी हैं। उनके गीतों और कविताओं में श्रम-शक्ति के अविराम गत्यात्मक चित्र विविध रूपों में अंकित हैं। चूँकि इसके पीछे कवि का अपने विश्वास-बल के साथ-साथ जनता का नेह भी निहित है, इसलिए कवि को इस बात में प्रबल आस्था है कि वह इसी जीवन में हिन्दुस्तान की धरती पर आस्थामूलक गीतों की खेती करने में कामयाब होगा-
मार देखो
गीत टूटेगा न धन से
यह बना है प्राण पन से
दाव-दव से शुद्ध मन से
नेह के नाते वचन से
(गीत टूटेगा न धन से)

इसी जन्म में
इसी जीवन में
हमको तुमको मान मिलेगा
गीतों की खेती करने को
पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा
(पूरा हिन्दुस्तान मिलेगा)

यह सही है कि केदारनाथ अग्रवाल जनता के पक्षधर लेखक हैं। इसी का प्रमाण है कि उन्होंने जो भी गीत और कविताएँ लिखे, उनमें व्यापक जनता की छवि स्पष्ट रूप में अंकित हैं। केदार दरअसल उस परंपरा में आते हैं, जो संद्रियों से जनवादी गीतकार, कवि, लेखक और कलाकार को प्रगतिशील चेतना और अजस्त्र ऊर्जा प्रदान करती आयी है। इसलिए केदार उसे अपने गीतों और कविताओं के जरिये विविध विस्तार और विकास प्रदान करते हैं। इस अर्थ में केदार उसे बनाने और सँवारने में अपनी छोटी भूमिका को भी अहमियत देना नहीं भूलते-
हम बड़े नहीं-
फिर भी बड़े हैं
इसलिए कि
लोग जहाँ गिर पड़े हैं
हम वहाँ तने खड़े हैं।
(हम बड़े नहीं है फिर भी बड़े हैं)

कहने की आवश्यकता नहीं कि इस भूमिका का महत्व कवि केदार की कलम और कविता पर टिका है जो उनके लिए बहुत बड़े आधार का काम करती है। वह धर्म और भाग्य के बजाय अपनी नेक कलम और कविता का सहारा लेकर बराबर गिर-गिर कर उठते रहे हैं। कहना न होगा कि उनकी कलम पूरी ईमानदारी के साथ जन-जीवन के चित्र उकेरने में समर्थ होती रही है। इसलिए वे उसे ‘नेक कलम’ कहना ज्यादा जरूरी समझते हैं-
नहीं सहारा रहा
धरम का और करम का
एक सहारा है
बस मुझको नेक कलम का
(एक सहारा नेक कलम का)

दुख ने मुझको जब-जब तोड़ा
मैंने अपने टूटेपन को
कविता की ममता से जोड़ा
जहाँ गिरा मैं
कविताओं ने मुझे उठाया
हम दोनों ने प्रात का सूर्य उगाया।
(दुख ने मुझको जब-जब तोड़ा)

इस प्रकार देखें तो केदारनाथ अग्रवाल अपने गीतों और प्रगीत काव्यों के माध्यम से हिन्दी गीत-विधा को समृद्ध करने के साथ-साथ उसे एक नया जनवादी तेवर, नया स्वर और नया आयाम देते नजर आते हैं। केदार के गीत और प्रगीत इस अर्थ में निश्चय ही जनवादी गीत-परंपरा की महत्वपूर्ण विरासत के रूप में सामने आते हैं। इसलिए कहने की जरूरत नहीं कि केदार के गीतों की भाव-भूमि चूँकि जन-भावनाओं और जन-आकाँक्षाओं के अनुरूप विविध विषयों की प्रस्तुति में सहायक हैं, इसलिए उनके गीत और कविताएँ आने वाले समयों में अपनी प्रासंगिकता नये सिरे से प्रमाणित करने में समर्थ होंगे, इसमें सन्देह नहीं।

१ अप्रैल २०१६

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