दीपक शर्मा की कहानियों में नारी विमर्श
- डॉ. स्वाती
तिवारी
हिन्दी साहित्य में कहानी विधा की एक महत्वपूर्ण
हस्ताक्षर हैं श्रीमती दीपक शर्मा। जिनकी अधिकांश
कहानियाँ स्त्री की सामाजिक विसंगतियों की कहानियाँ
हैं। दीपक शर्मा एक वरिष्ठ कथाकार हैं जिनके लगभग सोलह
कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कहानियों से
गुजरते हुए साहित्य में हमें समाज के सीधे सरोकार
दिखाई देने लगते हैं ऐसी साहित्य रचना गहन अनुभव और
समाज से गहरे जुड़ाव के बिना संभव नहीं। यदि हम पिछले
तीन दशक के हिन्दी साहित्य को खँगालते हैं तो महिला
कथाकारों की लंबी शृंखला में दीपक शर्मा का अपना अलग
महत्वपूर्ण स्थान है। सीधे सीधे कहूँ तो वे स्त्री
जीवन की चित्रकार हैं, उनकी कहानियाँ स्त्री जीवन का
अद्भुत कोलाज प्रस्तुत करती हैं।
अभिव्यक्ति विद्रोह का पहला अस्त्र है, स्त्री के
संदर्भ में विशेष रूप से, क्योंकि उसके लिए निर्धारित
आदर्श वाक्य है 'कुछ ना बोलना ही अच्छा है'। पर जब वह
बोलती हैं तो सुननेवालों के कान खड़े हो जाते हैं और जब
वह अपनी बात दस्तावेज के रूप मे रचती हैं तो न चाहते
हुए भी आज के आलोचकों के माथे पर बल आ ही जाता है।
स्त्री के लेखन को तीन कोटियों में रखा जाता है-
स्त्रियोचित, स्त्रीवादी लेखन और स्त्री द्वारा लिखा
गया लेखन। आज तीनों ही लेखन पूरी शिद्दत के साथ लिखे
जा रहे हैं। कहानीकार दीपक शर्मा की अभिव्यक्ति स्त्री
लेखन के तीनों खाँचों में फिट तो है ही पर यह केवल
स्त्री विमर्श को नहीं बल्कि सामाजिक विमर्श को भी
विस्तार देती है। उनकी कहानियाँ स्त्री की स्थिति,
उसके अंतरद्वंद, उसकी मनस्थिति, मूल्यों और मान्यताओं
से टकराकर पाठक के मन में अपने समय के सच की
प्रतिध्वनि उत्पन्न करती है। दीपक शर्मा अपने समय को
उसकी गत्यात्मकता से पकड़ने-परखने के साथ-साथ उसी से
समाज पर तीखा तंज भी करती हैं।
दीपक शर्मा एक ऐसी रचनाकार हैं जिनकी नज़र शहर, गाँव,
कस्बे सब पर सतत बनी हुई है इसीलिए वे समाज में मौजूद
उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग सभी की नब्ज़ टटोलती सधी हुई
शैली में अपनी कहानी कह डालती हैं पाठक आश्चर्य में
डूब जाता है जब वह मेंढकी जैसी कहानी को पढ़ता है और यह
जानता है कि दीपक शर्मा स्वयं उच्च मध्यम वर्ग की
लेखिका हैं और अंग्रेज़ी की प्राध्यापक रह चुकी हैं।
उनके लिए मेंढकी जैसी कहानी के परिवेश में जाने की
कल्पना नहीं की जा सकती। उनकी रचना इस बात का प्रमाण
है कि जिस प्रामाणिकता और प्रतिबद्धता के साथ वे लिखती
हैं उसका स्पष्ट अर्थ है उनकी सम्यक दृष्टि में स्त्री
संवेदना इस गहराई से रची बसी है कि वे पात्र को देख कर
भी परिवेश को रच देती हैं। दीपक शर्मा ने अपने लेखन से
यह प्रतिष्ठित किया है कि कहानीकार होने की पहली शर्त
उसका संवेदनशील होना है। उनके कहानी संग्रहों पर यदि
नज़र डाली जाए तो चर्चित संग्रहों में रण-मार्ग, तलघर,
परखकाल, घोड़ा एक पैर, हिंसाभार, बवंडर, लचीले फिटे,
ऊँची बोली, इत्यादि हैं। कहानी संग्रहों के शीर्षक ही
यह स्पष्ट कर देते हैं कि उनकी कहानियों में कोई
रूमानियत नहीं है वे ठोस यथार्थ पर रची गई हैं। जिनमें
तंज की धार भी है और पीड़ा का मर्म भी। समाज के
उपेक्षित, दलित, शोषित और पीड़ित वर्ग पर अपनी कहानी को
केन्द्रित करते हुए वे बेहद संक्षिप्त संवादों के
माध्यम से नपे तुले शब्दों में इतना व्यापक दृश्य रचती
हैं कि पाठक कहानी से उपजे प्रश्नों के हल खोजने को
बेताब होने लगता है।
उनकी लगभग २०० कहानियों का प्रकाशन विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में हो चुका है पर मैं यहाँ
भिन्न-भिन्न पत्रिकाओं से उनकी कुछ ऐसी कहानियों का
जिक्र कर रही हूँ जो अलग अलग समय में अलग अलग
पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं जिनमें स्त्री के
अलग-अलग सरोकार दिखाई देते हैं ये स्त्री संवेदना की
ऐसी कहानियाँ हैं जिनमें सामाजिक संबद्धता के साथ
स्त्री विमर्श का एक दूसरा ही स्वरूप हमारे सामने आता
है। उनकी एक कहानी ‘ऊँची बोली’ अपने आप में एकदम अलग
और अनूठी है। इस कहानी का कथा-तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म
है। इस कहानी में नायिका की हत्या हो जाती है। भारतीय
समाज में इस तरह की हत्याएँ प्रायः रोज ही होती रहती
हैं पर कहानी इस घटना की तरह सामान्य नहीं लगती। कहानी
का सूत्रधार नायिका का बेटा है जो माँ की मृत्यु का
आँकलन करते हुए कहता है कि “कुछ का अनुमान था कि अपनी
हत्या के पहले माँ किसी अपराधी गिरोह के सामूहिक
बलात्कार का शिकार हुई थी तथा उन्हीं अपराधियों ने
तिरसठ वर्षीय ब्रिजलाल को भी मार डाला था और एस. यू.
वी. के कलपुर्जे अलग-अलग करके बेच दिए थे। अटकलबाजी के
अन्य स्रोत कह रहे थे कि हत्या अवैध गर्भधारण का
परिणाम थी।”
सूत्रधार की माँ रजतसिंह नाम के व्यक्ति की सेक्रेटरी
बन गई थी जबकि इसके पहले वह एक डायग्नोस्टिक सेंटर पर
रिसेप्शनिस्ट थी जहाँ उसका पति भी टेकनिशियन था। कहानी
का मोड़ आता है जब नायिका रजतसिंह की सेक्रेटरी बनती
है। उसके बाद घर की कायापलट होने लगती है। नई
मोटरसाइकिल, नया फ्लैट, नया टी.वी., फर्नीचर, सब आने
लगता है। बेटा इस आवक पर माँ से प्रश्न करता है। माँ
कहती है-“जानती हूँ, जानती हूँ, मूल से ज्यादा अपनी
बोली लगवा रही हूँ। जब मौका लगा है तो क्यों थोड़े में
गुजारा करूँ? यह कहानी महत्वाकांक्षी होती उस स्त्री
की कहानी है जो उपभोक्ता वादी बाजार से प्रभावित है और
स्वयं को उस बाजार में एक वस्तु की तरह इस्तेमाल करते
हुए अपनी बोली लगाती है और अंतिम दुष्परिणाम तक पहुँच
जाती है। कहानी का कथाबीज नर्स भँवरीदेवी के हत्याकांड
से मिलता जुलता लगता है। ऐसी कई और नायिकाएँ भी समाज
में दबी छुपी चर्चाओं में आती हैं। यह कहानी स्त्री के
प्रति पुरुष की सनातनी सोच पर केन्द्रित है और
बाजारवाद उपभोक्तावादी दृष्टि से स्त्री को उसकी देह
के बाजार-मूल्य के प्रति सचेत होने वाले बदलाव की
कहानी है। कहानी इस्तेमाल करो और फेंको के सिद्धांत को
भी रेखांकित करती है जहाँ उपयोग के बाद अनुपयोगी वस्तु
नष्ट कर दी जाती है या फेंक दी जाती है। इसी तर्ज पर
नायिका की हत्या हो जाती है। पितृसत्ता के सदियों
पुराने समाज में पभोक्तावाद-पूँजीवाद-बाजारवाद स्त्री
को आकर्षित तो करते हैं पर उससे मुक्ति नहीं देते।
कहानी के अंतिम वाक्य में कहानी का सारांश है। “तो
क्या पापा सही कह रहे थे? माँ की सूरत ही उनको रजतसिंह
के पास लाई थी? दो सहायक नदियों की तरह पापा और दादी
भी माँ के साथ उस खुले सागर की ओर बढ़ लिए थे।” कहानी
की कहन अद्भुत है।
दूसरी उल्लेखनीय कहानी है “बापवाली” जो उस मजबूरी की
कहानी है कि एक लड़की जो नौकरानी है वह अपनी मालकिन
द्वारा भी छली जा रही है शोषित है और बदमिजाज बाप
द्वारा भी। कहानी बहुत संक्षिप्त है पर अपना व्यापक
प्रभाव छोड़ती है। कम उम्र की घरेलू काम करने वाली
नौकरानी कहानी की मुख्यपात्र है। कहानी के माध्यम से
एक लड़की जो बचपन की दहलीज से निकलकर किशोरावस्था में
प्रवेश करती है और एक आम लड़की की तरह अपने आर्थिक शोषण
के विरुद्ध अपने पिता की ओर विश्वास भरी दृष्टि से
देखती है और माँ की मृत्यु के बाद पिता को चुपचाप फोन
करती है कि वह आकर उसे ले जाए। पिता के जुल्म-अत्याचार
वह अपनी मृत माँ पर देख चुकी है बावजूद इसके वह पिता
के रूप में अपने लिए एक सुरक्षित छत की तलाश करती है।
एक घर जहाँ उसे ज्यादा नहीं पर थोड़ा स्नेह तो मिलेगा
ही इसी उम्मीद में। पिता आता है अपने पुलिस वाले
अन्दाज़ में। मालकिन घबराती है वह लड़की को किसी भी हाल
में छोड़ना नहीं चाहती क्योंकि घरेलू काम कौन करेगा?
उसके श्रम का कोई मोल नहीं है। पहले माँ जुटी रहती थी
अब बेटी केवल एक सुरक्षित छत के लिए। कहानी परिवार
संस्था को अभी तक के विकल्पहीन सन्दर्भों में प्रस्तुत
करती है। विशेषकर कहानी यह भी बताती है कि महिलाओं का
आर्थिक स्वावलम्बन यदि न हो तो स्त्री मुक्ति का कोई
अर्थ नहीं रह जाता, उच्च वर्ग रोटी-कपड़े के बदले निम्न
मध्यम वर्ग का कितना और कैसा शोषण करता है। श्रम का
अवमूल्यन ही कहानी का कथा बीज है। माँ जो एक मात्र
स्नेह की छाँव थी उसके मरने के बाद एक मात्र रिश्ता जो
पिता से है जैविक रिश्ता। बेटी उसे ही भूख, सुरक्षा,
स्नेह और एक अटूट विश्वास के रिश्ते के रूप में पहचान
कर उस पुरुष से जो उसकी माँ की दुर्दशा के लिए
जिम्मेदार था जो उसे कभी स्नेह नहीं दे पाया था बावजूद
इसके वह पिता के साथ जानकर समझौता करना चाहती है। पिता
आता है मालकिन से मिलता है बात करता है उसे डराता है
और अन्त में लड़की की पगार तय कर स्वयं ले जाता है।
लड़की के लिए भ्रम के टूटने की कहानी है। कहानी अपने
छोटे से कलेवर में बालश्रम, परिवार के भटकाव
असंवेदनशीलता, शोषण और असुरक्षा की बड़ी कहानी है। पिता
के नैतिक पतन की पराकाष्ठा की कहानी है जो पाठक को
झकझोर कर रख देती है।
दीपक शर्मा की कहानी मेंढकी के लिए आलोचक अर्चना वर्मा
ने लिखा है दीपक शर्मा ने अपनी बहुत छोटी सी कहानी
‘मेंढकी’ में पितृसत्ता के पूरे वितान को समेट कर बहुत
संक्षिप्त और सघन बनाया है। यह कहानी भी उनकी उसी
रचनात्मक विशिष्टता का उदाहरण है जिसके कारण ऊपर कहा
गया है कि वे गोली की तरह दागतीं और सीधे आघात करती
हैं। ‘मेंढकी’ की नायिका का नाम तो निम्मो है लेकिन
ससुराल में उसे मेंढकी पुकारा जाता है। सास के अनुसार
बड़ी और गोल आँखें, लम्बी ज़बान और छोटी बुद्धि। सुधा
अरोड़ा ने कहीं ऐसे व्यवहार के आशय की तरफ सही इशारा
किया है कि निरन्तर अपशब्द और उपहास स्त्री का मनोबल
तोड़ने और उसमें आत्महीनता का भाव भरने की अचूक विधि
है। लेकिन एक तो हमारी निम्मो का मनोबल इस विधि की
तुलना में ज़्यादा ताकतवर है, दूसरे, अभी उसे ससुराल
आये और मेंढकी कहलाये जाते हुए कुल छ: महीने हुए हैं
और अभी हद नहीं आई है। उसने अपने इस उपनाम यानी
उपहास-नाम को प्रशंसा की तरह ग्रहण कर लिया है-मेंढकी
की बुद्धि छोटी नहीं बहुत तेज़ होती है, उसे वह जाहिर
नहीं करती, जुगती वह बेजोड़ है और जब वह कूदने पर आती
है तब कोई अन्दाज़ा नहीं लगा सकता वह कितना ऊँचा कूद
लेगी। उसके मनोबल का आधार अपने बुनकर पिता के दरी
बुनने के कौशल की विरासत है-जहान छोड़ते समय हम बहनों
में से बप्पा मेरा ही हाथ पकड़े थे। मुझे ही बोले
थे-‘अपनी कारीगरी तेरे पास छोड़े जा रहा हूँ इसे बनाए
रखना’, ‘बप्पा के हाथ में जादू था जादू किसी भी रंग के
ताने पर अलग अलग रंगों का बाना वह ऐसा बिठलाते कि सूत
के अन्दर से फूल खिलखिलाते, पेड़ लहराते, मोर नाचते,
बाघ दहाड़ते’।
निम्मो ने भी दरी बुनना शुरू किया है। यह कौशल उसकी
रचनात्मक अभिव्यक्ति भी है, आमदनी का जरिया भी और
आत्मबल, मनोतोष और सार्थकता की अनुभूति का स्त्रोत भी,
छलाँग लगाने की उसकी ताकत भी जिसके सहारे कहानी उसे
हदें पार कराने की, अड़ंगे निपटाने की आशा जगाती है।
सास को इस सारे उपक्रम के आर्थिक पक्ष में रूचि है।
लेकिन पति नाम का पुरुष और उसका दुर्बल और अपर्याप्त
अहंकार भी वहीँ मौजूद है जो उग्र और आक्रामक बाना पहन
कर स्त्री को दबाना और खुद को विशाल जताना चाहता है।
उसका बड़प्पन दूसरे को छोटा साबित करने और नीचा दिखाने
से सिद्ध होता है। उसका अन्धा अहं आर्थिक लाभ जैसी
स्थूल रूप से प्रकट प्राप्ति को भी अनदेखा कर जाता है।
दरी की बुनाई में निम्मो इतना डूब जाती है कि पति की
तरफ से अपना ध्यान पूरी तरह से मोड़ लेती है, यह पति की
बर्दाश्त के बाहर है। उसका खेल वर्चस्व का है जो
स्त्री से अपेक्षित निर्बुद्धि, अयोग्यता, विनय,
प्रश्नहीन समर्पण, निर्भरता और आज्ञाकारिता से अपनी
अपर्याप्तता की क्षतिपूर्ति करना चाहता है।
पितृसत्ता की एक परम्परा पिता का चेहरा है-वत्सल और
संरक्षणशील। निम्मो ने उसे पिता से कला कौशल के
उत्तराधिकार की तरह पाया है, शायद इसलिए कि उसके पिता
की सात बेटियाँ थीं, पुत्र कोई नहीं इसलिए उत्तराधिकार
किसी बेटी को ही मिलना था, या शायद इसलिए कि वाकई वह
एक वत्सल पिता था। पितृसत्ता का दूसरा चेहरा वर्चस्व
के अहंकार का है जो उसके पति ने पाया है। निम्मो के
लिये कहानी का रूपक मेंढकी की छलाँग का है। उसके पति
के लिये भी कहानी के पास मेंढक का एक रूपक है। कुत्ते
के काटने से घायल उसके पिता अपने बेइलाज बेकाबू दर्द
को काबू करने के लिए मेंढक की खाल के जहरीले रिसाव का
सहारा लेते थे, उसे अपने घाव पर लगाते लगाते चाट भी
बैठते थे, कभीकभी मेंढक की खाल को सुखाकर धुंधाते भी
थे, अपने नशे की खातिर। पिता के नशे के लिए ताल से
मेंढक पकड़ना निम्मो के पति का काम था।
निम्मो और उसके पति का द्वंद्व कथा के रूपकीय स्तर पर
मेंढक की छलाँग-क्षमता और मेंढक की खाल के ज़हर का
द्वंद्व है जो कि दोनों ही पितृसत्ता की दो धाराएँ
हैं। एक की दिशा रचनात्मक है और दूसरी की ध्वंस लेकिन
दोनों का दायरा एक ही है। निम्मो के हिस्से में मेंढकी
की ‘कूद’ आई तो है जिसके सहारे वह बाधाओं के पार जाने
का हौसला बाँधती है लेकिन पति के जहरीले उत्तराधिकार
की चपेट में ‘निम्मो की छलाँग उसे ले डूबती है।’
बाधाओं के पार जाने का हौसला ज़िन्दगी के पार निकल जाने
वाली छलांग का पर्याय साबित होता है। रूपक का एक और
व्यंजनात्मक आयाम यह है कि वह उसी ताल में जा कूदी
जिसमें से उसका पति अपने पिता के लिए मेंढक पकड़ा करता
था-उन मेंढकों का ताल जिनकी खाल का जहर यहाँ
पितृसत्ता/पुरुषसत्ता/पतिसत्ता का प्रतीक बन गया है।
प्रसंगवश यहाँ इस ओर संकेत किया जा सकता है कि
मानव-प्रजाति की संरचना का प्रथम-चरण मेंढक ही है।
इसीलिए बायोलॉजी की कक्षाओं में पहली चीर-फाड़ मेंढक की
करवाई जाती है। प्रजातीय संरचना मेंढक से शुरू करके,
वानर से होते हुए मानव तक पहुँचती है। कहानी की इस
रूपकीय युक्ति में मेंढक की छलाँग और मेंढक की खाल का
जहर अर्थात वर्चस्व का जहर और उसका अतिक्रमण करने के
अभियान मानव की बुनियादी संरचना के बुनियादी सत्य हैं।
यहाँ ये बुनियादी लक्षण निम्मो और निम्मो के पति के
बीच बाँट दिए गए हैं और मानव समाज की पितृसत्तात्मक
संरचना के सच को अभिव्यक्त करने वाली कथात्मक युक्ति
में बदल गए हैं। निम्मो की मौत के हादसे का
निरूद्विग्न, निरपेक्ष बयान कुल दो वाक्यों में समेट
दिया गया है, दीपक शर्मा के व्यंजना कौशल का विशेष
गुण, अपने सपाटपन से मानो यह व्यंजित करता है कि उस
दुनिया में स्त्री के साथ यह व्यवहार कोई विशेष
व्यक्तिक्रम नहीं, एक दैनिक चर्या की तरह सामान्य,
साधारण घटना है।
आलोचक ओमप्रकाश लिखते हैं इस कहानी का अत्यंत
संक्षिप्त अंत जिस स्थिरप्रज्ञ-संवेदनहीन, निरपेक्ष
भाव से किया है। वह इस पुरुषसत्तात्मक समाज की ठंडी
क्रूरता के चरित्र को उतने ही प्रभावी तरीके से
अभिव्यक्त करता है। निम्मो की छलाँग दरअसल आत्महत्या
नहीं बल्कि उकसा कर की गई हत्या है। कहानी यह बताती है
कि स्त्रियों की आत्महत्याएँ अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष
किसी-न-किसी रूप में पुरुष सत्ता द्वारा की गई हत्याएँ
ही होती हैं। कथाकार ने स्त्री की देह की तुलना निम्मो
के बहाने मेंढकी से करते हुए यह रेखांकित किया है कि
मेंढकी की तरह स्त्री भी हर हाल में उभयचर हो कर जीना
सीख लेती है। साथ ही यह भी महसूस होता है कि पुरुष
सत्तात्मक समाज स्त्री की आतंरिक सृजन शक्ति को कैसे
कुंठित करता है और कैसे समाप्त करवा देता है।
वरिष्ठ कथाकार दीपक शर्मा कहानियों में मितकथन के लिए
जानी जाती हैं। उनकी कहानियाँ छोटी होती हैं। ‘पैदल
सेना' संकेतों और निहितार्थों से भरी बहुव्यंजक कहानी
है। कथावाचक की बहन और रंजन मुम्बई में 'लिव इन' में
रहते है। माँ की बीमारी में बहन अपने घर (माँ के घर)
आई है। घर में एक अजीब सा तनाव है। बहन की जीवन पद्धति
का प्रतिवाद करते हुए भाई सवाल उठाता है, हम लोगों के
लिए तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं? कोई जवाब-देही
नहीं? तुम्हें अपनी अभिव्यक्ति चाहिए, पहचान चाहिए,
स्वतंत्रता चाहिए? और मुझे? दंडाज्ञा? माँ और बाबूजी
के बने बाड़े में बने रहने की? कहानी में दीपक शर्मा
लिव इन या किसी भी 'स्वतंत्र निर्णय' को एक दायित्व से
जोड़ती हैं। वे कहना चाहती हैं कि स्वतंत्रता निरंकुशता
का पर्याय नहीं है। बहन अच्छी अभिनेत्री है, यह सत्य
एक विडम्बना के साथ प्रकट होता है। तब जब वह छत से कूद
कर आत्महत्या कर लेती है। यानी उसने अपने और रंजन के
बीच का तनाव एकदम भीतरी तहों में छिपाकर रखा था। वह
फोन पर रंजन से शादी करने की बात कर रही थी। कहानी बड़ी
सूक्ष्मता से कम शब्दों में भी स्पष्ट करती है कि
हमारे सामाजिक अचेतन में स्त्री के संदर्भ में रिश्तों
के ताने-बाने कुछ इस तरह विवाह और परिवार का पर्याय
हैं कि उसके बगैर स्त्री का प्रेम इस सदी में भी
अनुचित, अन्यायोचित और अनाधिकृत चेष्टा है जिसका उसे
अधिकार नहीं। भाई द्वारा बहन पर विवाह का दबाव इसी
मानसिकता को विश्लेषित करता है। यह कहानी एक बात
स्पष्ट करती है कि लिव इन की भी आखिरी मंजिल जैसे
विवाह ही है। फिर 'लिव इन' की सैद्धांतिकी का क्या
अर्थ है? अर्थ है भी तो विशिष्टता क्या है? विशिष्टता
है भी तो वह विवाह संस्था का कितना प्रतिपक्ष रच पाती
है? दीपक शर्मा ने बहुत कलात्मकता के साथ समस्या का
विश्लेषण किया है। साथ ही यह भी कि भाई कैसे उसे
प्रताड़ित करता है।
आँखें तब देखती हैं आकाश जब दीवारों के पार नहीं देख
पातीं। ये पंक्तियाँ याद आती हैं दीपक शर्मा की कहानी
'लोप-अलोप' को पढ़ते हुए। यह कहानी भी लड़की के अपहरण पर
केन्द्रित है। दीपक शर्मा जी का ग्राम कस्बापुर हमें
लाहोर के आसपास के परिवेश में भी ले जाता है। कस्बापुर
दीपकजी की इस कहानी में ही नहीं बल्कि कई कहानियों में
ज्यों का त्यों देखा जा सकता है। शायद यह उनकी
स्मृतियों में बसा कोई गाँव है जो कहानी रचना के समय
उनके मस्तिष्क में उभर आता है और रचते हुए एक कल्पित
क्षेत्र बन जाता है। स्मृति का गाँव यथार्थ है और
कहानी का गाँव एक कल्पना का सम्मिश्रण। कहानी इसी
कस्बापुर गाँव की घटना है परिवार इसे छोड़ रहा है और
उससे पहले छूट जाती है परिवार की किशोर उम्र की बेटी
कुंती, जो जाने से पहले अपनी सहेली से आखरी बार मिलने
के लिए ऊपर वाली मंजिल की सटी अड़ोस पड़ोस की खिड़की पर
दस्तक देती है और वहीँ से गायब हो जाती है। खिड़की वह
रास्ता है जहाँ से सहेलियाँ एक दूसरे के घर में प्रवेश
कर दोपहर की शगल कराती छुट्टियों का आनंद लेती हैं।
घरों के छज्जे से लगे निकासी पाइप पकड़ एक खिड़की से
दूसरी में कूदा जा सकता है। कुंती यहीं से अचानक गायब
हो जाती है। यह घर है कुंती की सहेली रानी के पिता
मेवालाल का।
कहानी की शुरुआत होती है चालीस साल बाद मेवालाल की
चिट्ठी से कि कुंती मिल गई है आकर ले जाइए। चालीस साल
बाद बीमार कुंती को लाला मेवालाल लौटाना चाहता है।
बेटी जैसी उम्र की कुंती को वह बिना ब्याहे अब तक अपनी
रखैल बना कर रखता है और कहता है कि अब मेरी उम्र का
कोई भरोसा नहीं आप कुंती को ले जाओ। मेरी बेटी दामाद
इसके दुश्मन हैं और इसकी जाने क्या गत बनायेंगे। मेरी
बेटी रानी इसे अपनी माँ की मौत का ज़िम्मेदार मानती है।
कुंती का भाई पूछता है कि आपने विधुर हो जाने के बाद
भी मेरी बहन से ब्याह नहीं किया? लालची मेवालाल अपनी
संपत्ति का कोई हिस्सा कुंती को नहीं देता, मजबूर पिता
कहता है कि मेरी पैंशन और एफ डी इसके जीवन निर्वाह में
काम आ जायेंगे। मैं ले जाता हूँ, वहीँ भाई अपनी पत्नी
और बेटियों की तानाकशी के चलते सोचता है कि पिता ने
पहली बार कोई निर्णय स्वयं लिया भी तो मेरे खिलाफ।
कहानी अपने संक्षिप्त रूप में प्रबल प्रहार करती है।
स्त्री विमर्श में स्त्री की अभिव्यक्ति का यह पक्ष
स्त्री को वस्तु की तरह समझने वाले समाज की असलियत को
उजागर करता है। स्त्री जिसे वस्तु की तरह चोरी से अपने
घर में रख लिया जाता है, स्त्री को वस्तु मान कर गुम
होने पर तलाशना भी उचित नहीं समझा गया, उसकी देह पर
लाला नन्हीं उम्र में भी जुल्म कर सकता है। ब्याह नहीं
करता, खुद विधुर होने के बाद भी? यहीं स्त्री जीवन के
गोपन अँधेरे कमरों और बंद खिड़कियों के पीछे का सच
उजागर होता है। कहानी मेवालाल के रूप में पुरुष की
आदिम प्रवृत्तियों को सामने लाती है तो पिता, भाई और
परिवार का भी स्त्री के प्रति उपेक्षित भाव ही दिखाती
है। बहन-बेटी का गायब होने पर उसे गंभीरता से ना लेते
हुए लाला मेवालाल से यह कहकर चले जाना कि मिले तो हमें
खबर दें की बात कह कर चले जाना उपेक्षा की पराकाष्ठा
ही कही जाएगी। चालीस साल कम नहीं होते, कोई भी कभी भी
कुंती को खोजने दुबारा कस्बापुर नहीं जाता? बिना
ब्याही स्त्री को कभी भी यों ही छोड़ा जा सकता है कानी
कौड़ी भी दिए बिना। कहानी यहीं स्त्री जीवन के अंत को
निशेष होते रहने के साथ साथ उसके जीवनाधिकार की
उपेक्षा की भी कथा कहती है।
कहानीकार दीपक शर्मा की ज्यादातर कहानियाँ सीधे सीधे
पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के प्रति होने वाले
अन्याय और अत्याचार की सामान्य समझी जाने वाली घटनाओं
के अनेकानेक पहलूओं और आयामों को पाठक के सामने
दृश्यायमान करती हैं। ये कहानियाँ कहीं कहीं सामाजिक
समीकरणों के साथ-साथ स्त्री-पुरुष के रिश्तों का
समीकरण भी खोल देती हैं। वे काल्पनिक कम घटनाप्रधान
कहानी रचती हैं जिनमें सूचनाएँ कम मात्र आटे में नमक
की तरह अर्थात् अल्प सूचनाओं और न्युनतम शब्दों में
वितान पर खींचे चित्र गहन गहराई में ले जाते हैं। उनकी
कहानियाँ पाठक को आघात के अंतिम बिंदु तक ले जाती हैं
और लेखिका जहाँ तटस्थ, निरपेक्ष रहती हैं वहीँ पाठक का
मर्म पीड़ा से कराह उठता है। वे सटीक वार की तरह कहानी
लिखती हैं और बात के साथ फट से कहानी बंद कर देती हैं,
ना व्याख्या, ना विश्लेषण, ना हाहाकार का कोई शब्द, ना
भावुकता का लिजलिजापन, ना आँसुओं का प्रवाह, फिर भी
बात तीर की तरह हृदय को भेद देती है। यही उनकी कहानी
की विशेषता है जो उन्हें औरों से अलग करते हुए खास
बनाती है। चमड़े का अहाता, माँ का दमा, बिगुल और मंथरा
को अविस्मरणीय बनाने का हुनर है।
मंथरा, नष्ट चित्त कहानी का शिल्प बहुत बारीकी से
तैयार किया गया है। मंथरा उनकी सबसे खास कहानी है।
कहानी में मंथरा और कैकई के मिथक गढ़े गए हैं। कहानी का
सूत्रधार राम का मिथक है। कहानी कुछ यों है कि
सूत्रधार अपनी सौतेली माँ की मृत्यु पर अपने पिता के
फोन आने पर अपनी पत्नी के साथ पिता के घर जाता है।
पिता के घर उसका कम ही आना जाना है पहले उसकी माँ के
बीमार होने पर उसकी मौसी को देखभाल के लिए घर लाया
जाता है। माँ की मृत्यु होने पर पिता उपेक्षित बगैर
माँ-बाप की बेटी चचेरी मौसी को एक छत देने के नाम पर
उससे दूसरा ब्याह कर लेते हैं। इस माँ को डेमेनशिया
रोगग्रस्त अवसाद का मनोरोग होने पर एक एजेंसी से काम
वाली मालती को लाते हैं। सूत्रधार की पत्नी मालती को
देख कर कहती है कि लगता है मंथरा अब कैकई बनने की
तैयारी में है, मालती घर छोड़ कर जाने की घोषणा करती है
तब एक राज उद्घाटित होते होते रह जाता है कि उसका पिता
किस हद तक क्रोधी है और सूत्रधार की माँ के मरने पर जब
उससे उम्र में बस कुछ साल बड़ी उसकी ये मौसी उसे रोते
हुए चुप करने के लिए अपने आलिंगन में लेती है तो उसके
पिता यह देख कर इस कदर भड़क जाते हैं कि वे मौसी को
धक्का देकर जमीं पर गिरा देते हैं और बेटे को गर्दन से
पकड़ कर टेबल पर सर पटक कर मारते हैं जिसमें उसकी नाक
पर विकृति आ जाती है और उसी दिन उसे होस्टल भेज दिया
जाता है और मौसी से पिता ब्याह कर लेते हैं।
कहानी बेहद संजीदा तरीके से कही गई भारतीय समाज की एक
सामान्य व्यवस्था के अन्दर का कड़वा सच उगलती है। कहानी
का शिल्प, शैली, भाषा की सटीकता अद्भुत बनी है। यह
कहानी स्त्री विमर्श के उस पक्ष को खोलती है जिसमें
सौतेली माँ नहीं बल्कि कई बार सगा पिता अपने बच्चों के
साथ कितना क्रूर होता है और अपनी आवश्यकतानुसार वह
लोगों को इस्तेमाल करना भी जानता है। यह कहानी कथाकार
की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है। ये मात्र कुछ सहज
उपलब्ध वे कहानियाँ हैं जो पत्र-पत्रिकाओं में उपलब्ध
हैं पर ये दीपक शर्मा के भीतर बैठे सजग-संजीदा उस
कथाकार को हमारे सामने लाती हैं जो प्रचार प्रसार के
बिना भी आज तक सतत कहानी लिख रहे हैं जिन्हें ना
वजीफों की जरुरत है ना पुरस्कारों की। उनका अपना पाठक
वर्ग ही उनके लिए लिखने का सबसे बड़ा कारण है। उनकी
कहानियों का कहानीपन यानी किस्सा गोई अपनी खास शैली
में सदा मौजूद है। मंथरा जैसी कहानी के जरिये स्पष्ट
होता है कि लम्बी मिथकीय पराम्पराओं वाले देश में
संज्ञाएँ अक्सर विशेषण बन कर फिर-फिर समाज में दिखाई
दे जाती हैं। दीपक शर्मा की कहानियाँ कहती हैं कि सोच
में हिंसा कितनी घातक होती है। आदमी अपनी कुंठा अपना
गुस्सा कहाँ निकाले, वह स्त्री को इसके लिए सबसे सहज
सुलभ पाता है।
१ जुलाई २०१६ |