हाइकु में वर्षा वर्णन
- डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा
प्रकृति मानव की चिर सहचरी है जो ॠतुओं के द्वारा उसका
पालन, अनुरंजन और प्रसाधन करती है। परस्पर एकनिष्ठ
रहते हुए दोनों अपने-अपने क्रिया-कलाप से एक दूसरे को
प्रभावित करते हैं। उनका यह भाव साहित्य में भी
परिलक्षित होना स्वाभाविक ही है क्योंकि साहित्य समाज
से पृथक् नहीं। यही कारण है कि साहित्य में प्रकृति और
वसंत आदि सभी ॠतुओं का भरपूर वर्णन हुआ है। उनमें जीवन
की संजीवनी-रूप, वर्षा के भी कमनीय कल्पनाओं से
परिपूर्ण सुन्दर बिम्ब प्रचुर मात्रा में दिखाई देते
हैं। यदि भारतीय साहित्य की बात करें, वैदिक साहित्य
से लौकिक साहित्य तक प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण के
साथ वर्षा का मोहक, आलंकारिक चित्रण किया गया है।
निरुक्तकार यास्क ने ‘देवो दानाद्वा... निरुक्त ७.१५.
तथा ‘वायुर्वाइन्द्रोवान्तरिक्षस्थानः’ कहकर प्रकृति
की इन शक्तियों को देवों के रूप मे व्याख्यायित किया।
पर्जन्य, इंद्र आदि देवताओं के स्तुतिपरक मन्त्रों में
वर्षा, मेघ के क्रिया-कलाप और उनकी क्षमताओं का सुन्दर
वर्णन है। ‘इंद्र’वर्षा के अधिष्ठित देव हैं
‘अश्मनोरन्तरग्निं जजान’ अर्थात् दो प्रस्तरों (मेघों)
के बीच अग्नि अर्थात् विद्युत् को उत्पन्न करने वाले
इंद्र हैं। इंद्र ही जल वर्षा न करने वाले वृत्र का वध
करते है ‘यो हत्वाहिमहिणात्सप्तसिन्धून-२.१२.३.
और सप्त सिन्धुओं के अवरुद्ध जल को मुक्त कर देते हैं।
लौकिक साहित्य में महाकवि कालिदास ने ‘मन्दं मन्दं
नुदति ....(मेघदूत)में अनुकूल, पवन, पपीहे की पुकार,
बलाकाओं की पंक्तियों के साथ मेघ को यक्ष की प्रिया के
प्रति सन्देश वाहक बनाकर ही भेज दिया। हिन्दी साहित्य
जगत् में बचपन में पढ़ी ‘अम्मा ज़रा देख तो ऊपर, चले आ
रहे हैं ये बादल’ से लेकर ‘आए घन सावन के’- ‘निराला’,
‘काले बादल’-महादेवी वर्मा, ‘कैसा छंद बना देती
है’-माखन लाल चतुर्वेदी, ‘घन गरजे’ -बाल कृष्ण शर्मा
‘नवीन’, ‘भीगा दिन’- गिरिजा कुमार माथुर, ‘बूँद टपकी
नभ से’- भवानी प्रसाद मिश्र आदि तक और आगे भी अनवरत
वर्षा अपने रस से पाठकों के हृदय को आप्लावित कर रही
है। फिर भला हिंदी साहित्य में बड़ी तीव्रता से अपना
स्थान बनाता, सबका हृदय-हार बनता हाइकु कैसे इस सरस
ॠतु में अपना अंतर न भिगो लेता। प्रकृति का सुन्दर
चितेरा हाइकु अन्य ॠतुओं के साथ ही वर्षा के अत्यंत
रमणीय, अनूठे, विविधता पूर्ण बिम्ब लेकर उपस्थित हो
गया, इतने कि उन्हें एक लेख में समेटना संभव नहीं।
प्रकृति के नियत ॠतु चक्र में हिन्दी साहित्य का हाइकु
जगत् भी ज्येष्ठ माह की भीषण गर्मी से तप्त हो
वर्षागमन की कामना करता दिखाई देता है। धूप के अग्नि
बाणों से तप्त, उबाऊ दिन, तपती शाम, प्यासे पंछी, खेत,
सूखी नदियाँ और तिड़कती धरा एक स्वर से पुकार उठते हैं
-
ग्रीष्म-तपन
प्रतीक्षा करे मन
मेघदूत की।
- नीलमेन्दु सागर |
श्यामल घन
आओ,न तरसाओ
पिघलो तुम।
- पुष्पा मेहरा
|
जेठ की गर्मी
गौरैया तके मेह
रेत नहाए।
- सुशीला श्योराण
|
चटका कोना
बंजर धरती का
मेह निहारे।
- कृष्णा वर्मा
|
व्याकुल
जन-मन की पुकार व्यर्थ नहीं जाती। घिर आए मेघ और कुछ इस तरह कि
चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा। नभ में छाए मेघों के इतने
चित्ताकर्षक बिम्ब प्रस्तुत हुए कि कल्पना मात्र से रस की
वर्षा होने लगती है। सरस गया तन-मन, पुलक गया हाइकु-जगत् कहीं
खुलकर हँसती बदली धरा को नहला रही है तो कहीं बारिश की बूँदें
तार पर मोतियों की लड़ी-सी सजी लगती हैं। मेघ-पाहुने का स्वागत
करती धरा निहाल हुई जाती है। घटाओं की छोरियों की तो छटा ही
निराली है। कहीं नन्हें मेघ खो-खो खेलते, कुश्ती करते और
हिरन-सदृश कुलाँचे भरते दिखाई देते हैं तो कहीं बादल जैसे कजरा
हो गए। मोहक बिम्ब देखिए, डॉ. सुधा
गुप्ता के शब्दों में -
मेघों में सूर्य
नील सर में खिला -
स्वर्ण कमल। |
नीले घाघरे
घटाओं की छोरियाँ
इतरा रहीं। |
जोर से हँसी
सावन की बदली
नहला गई। |
बारिश बूँदें
तार पर लटकीं
मोती लड़ियाँ। |
धरा निहाल
नवरंग बादल
छक बरसे। |
और रामेश्वर कांबोज
हिमांशु के शब्दों में-
|
खेलते
खो-खो
मेघ-शिशु अम्बर
शोर मचाएँ।
१ |
भरें
कुलाँचे
न थकें तनिक भी
मेघा हिरना।
१ |
व्योम
अखाड़े
ढोल तिड़क-धुम्म
मेघों की कुश्ती। |
मेघों
के हाथी
चिंघाड़ें टकराएँ
अम्बर काँपे। |
|
डॉ.उर्मिला
अग्रवाल इसे कुछ इस प्रकार कहती हैं- काजल आँजे
/ सुरमई बादल /
निशा-आँख में । बीच-बीच में दमकती विद्युत् से युक्त
सन्देश वाहक बने मेघों की अद्भुत कल्पनाएँ देखिए -
मेघों की पीर
दिखाए दिल चीर
आग-लकीर।
१
- डॉ. सुधा
गुप्ता |
मेघ को पता
धरती -प्रेम-कथा
सन्देश भेजा।
१
- मंजुल भटनागर
|
द्युति-फ्लैश से
नभ ने खींचा फोटो
नहाती भू का।
१
- उर्मिला कौल |
मेघों की कूँची
आकाश कैनवास
उकेरे चित्र।
१
- ॠता शेखर ‘मधु’ |
श्यामल रंग
जैसे साँवरे पिया
घन चितेरे।
१
- तुहिना रंजन
|
आकाश मेघ
लुभाते-डराते-से
बहुरूपिए।
१
-ज्योतिर्मयी
पन्त |
वर्षा ॠतु के
नयनाभिराम सौन्दर्य ने प्रायः सभी भाषाओं के साहित्य में स्थान
पाया है तो फिर हिन्दी -हाइकु जगत् कैसे अछूता रह सकता था।
हरी, धानी धुली-धुली घास पर बिछी वर्षा की बूँदें हीरे की
कनी-सी सुशोभित हैं या फिर मोतियों की माला ही टूटकर घास पर
बिखर गई है। मेघों के घिरते ही धूप गिलहरी- सी दुबक गई।
घाटियों में गूँजता मेघ- नाद कुछ ऐसा लगता है मानो माँदल बज
रहे हों, वर्षा की बूँदें टीन की छत पर गिरती हैं, तो मेघ
मल्हार गाती सुनाई पड़ती हैं। बूँदे क्या गिरीं लगा पिपासाकुल
खेत बादलों की ओर लपक उठे -
दल के दल
बादल, बजा रहे
जोर मादल।
१
- नलिनीकान्त |
कौन-सा राग
टीन की छत पर
बजाती वर्षा।
१
-डॉ. भगवतशरण अग्रवाल |
बजा माँदल
घाटियों में उतरे
मेघ चंचल।
१
- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ |
हीरे की कणी
घास ने जो पहनी
खूब ही खिली।
१
-डॉ.भावना कुँअर |
मेघा घिरते
गिलहरी- सी धूप
भागी दुबकी।
१
-डॉ. शैलजा सक्सेना |
वर्षा
सुन्दरी का सौन्दर्य और निखर आया है इन हाइकुओं में, जहाँ
बूँदों का लहँगा पहने वह मतवाली चाल से गमन करती है या फिर
लगता है कि कहीं वह ॠतु पनिहारिन तो नहीं है, जिसकी गगरी
छलक-छलक जाए है। रचना श्रीवास्तव के शब्दों में- वर्षा पहने
/ बूँदों सजा लहँगा
/ मटक चले। भरे गागर
/ ॠतु-पनिहारिन
/ छलक जाए। क्या खेत-खलिहान, क्या घर-बाहर वर्षा की आहट
सब ओर व्याप्त है। उम्मीदों की बारिश ने जैसे सब ओर प्राण सींच
दिये। धान की रोपाई, उपले ढकती दादी, और तो और कपड़े समेटती,
विचारती माँ भी नन्हें हाइकु की दृष्टि से बच नहीं पाई-
बादल छाए
दादी चैन न पाए
उपले ढके।
१
-डॉ. हरदीप कौर सन्धु |
सोच न पाऊँ
बरखा री ! कपड़े
कहाँ सुखाऊँ?
१
-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा |
सावन घन
अनगिन प्राणों में
भरें जीवन।
१
-रेखा रोहतगी |
|
|
बादल तो
अच्छे, बुरे सबके लिए समदर्शी है। आकाश की आँखों में ममता
स्वरूप तैरते बादलों का बिम्ब अनोखा है, लुभावना है। कवि बादल
को धन्य मानता है और समतुल्य भी क्योंकि फ़सलों के रूप में वह
बादल खेतों में कविताएँ बोता है- समता-भरी
/ आकाश की आँखें हैं /
ममता-भरी -डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, या
फिर डॉ. भगवतशरण अग्रवाल के शब्दों में- धन्य है वर्षा
/ खेतों में कविताएँ
/ बोते किसान।
देखते ही देखते चहुँ दिशि जल ही जल। जल-थल सब एक समान हो गए।
गर्मी से कुम्हलाई धरा की प्रेम-लता फिर से हरी हो गई तो मानव
मन में भी नई आशाओं का संचार हुआ, नए स्वप्न जागे। लाख मना
करने पर भी मस्ती में डूबे बच्चे निकल पड़े कागज़ की नाव पानी
में तैराने। मेघ-मल्हार, दादुर-मोर, मगन मन नाच गा उठे। हिन्दी
- हाइकुकार की दृष्टि के कैमरे ने सबको क़ैद कर लिया है। पावस
ॠतु हो और जुगनू न चमकें, पानी बरसे और मेंढक अपना राग न छेड़ें
तो कैसी वर्षा! चाय-पकौड़ी का इससे बेहतर कौन-सा मौसम हो सकता!
वर्षा का होना बरस भर अन्न की प्रचुरता। यही तो किसान का काव्य
है-
धन्य है वर्षा
खेतों में कविताएँ
बोते किसान।
१
-डॉ. भगवतशरण अग्रवाल |
सड़कें गुम
जल ही जल भरा
डूबे चौंतरे
१
-पुष्पा मेहरा |
बरसीं बूँदें
कागज़-कश्ती थामे
बच्चे चहके।
१
-सुशीला श्योराण |
दादुर टेरा
बरसी जो बदली
मत्त मयूरा।
१
-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा |
फुदकें पक्षी
हरी हुईं शाखाएँ
वर्षा जो आई।
१
-सुदर्शन रत्नाकर |
मचल रहा
व्योम में मृगछौना
इन्द्रधनुष।
१
-नलिनीकान्त |
अस्तु, सब
कुछ मनोनुकूल ही लाई हो वर्षा, ऐसा भी नहीं। प्रासादों में
उत्सव मनाती है, तो दो जून रोटी के लिए संघर्ष करते दिहाड़ी
श्रमिकों के जीवन का राग बेसुरा कर देती है। प्रचंड जल-प्लावन,
पर्वतों पर टूटते बादल और विरही हृदयों के लिए अपने विनाशकारी,
अमंगल स्वरूप से यह वर्षा अवसाद का कारण बनती है -
वर्षा की शाम
दर्द जगाता कोई
गाके माहिया।
१
-डॉ.भगवतशरण अग्रवाल |
किसकी व्यथा
छा गई बन घटा
नभ है घिरा।
१
-डॉ.रमाकांत श्रीवास्तव |
आई जो वर्षा
पहुँची वियोगिनी
पिया के देश।
१
-पुष्पा मेहरा |
पिया उदास
सावन बहकाए
मीत न पास।
१
-गुंजन गर्ग अग्रवाल |
प्रचंड मेघ
लपलपाती जीभ
ग्रसे जीवन।
१
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ |
ठंडे हैं चूल्हे
टपके झुपड़िया
रोए बंसरी।
१
-डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा |
हाइकु जगत्
में यह वर्षा भावों की ऐसी वर्षा भी है, जो प्रत्येक मन को
आप्लावित करती ही है। यदि मनोनुकूल वर्षा हो जाए तो प्रेम की
कोमल सुगन्ध से मन का कोना-कोना महक उठता है- प्रेम की बूँदें
/ भीगे धरा-गगन
/महके मन
-डॉ.भावना कुँअर, झूले पवन
/ ॠतु है रसवन्ती
/ जागे मदन
-नीलमेन्दु सागर। खुशियों के पल में यदि नयन बरसें हैं,
तो वर्षों से जमी वेदना भी मन से उठती है और आँखों से बरस जाती
है। वह नेह की बौछार भी है तो पीड़ा-भरा रुदन भी है, मन पर छाई
यादें भी। एक सावन ऐसा भी है -
नन्हीं बदली
गिरि-शृंग पै शीश
चैन से सोई।
१
-डॉ.भगवतशरण अग्रवाल |
मेघ तो लौटे।
सन्देशे रास्ते में ही
बिखरा आए।
१
-डॉ.भगवतशरण अग्रवाल |
जब से पिता
छोड़ चले हैं घर
माँ है सावन।
-ज्योत्स्ना ‘प्रदीप’ |
भरी है नमी
जो इन हवाओं में
रोया है कोई।
१
-डॉ. हरदीप कौर सन्धु |
धरा के आँसू
बादल की आँख से
तेज़ाब झरे।
१
-मंजु मिश्रा |
मन के मेघ
उमड़े हैं अपार
नेह बौछार।
१
-कमला निखुर्पा |
प्रिय के पास
न होने से मन की व्याकुलता इस मौसम में बढ़कर और अधिक बह निकलती
है। नए-पुराने सब याद आकर द्रवित करने लगते हैं ।यादों के
मेघों को ढोने वाले काले कहारों का चित्र हृदय-पटल पर खिंच
जाता है। आँखों में मेघ घिरते हैं तो ओठों पर बिजली मचलती है।
भीगने और जलने के विकल्प खुले हैं। उद्दीपन के रूप में
नन्हे-से हाइकु में इतनी सारी सम्भावनाएँ एक साथ !
डॉ. सुधा गुप्ता के शब्दों
में यादों के मेघ / सागर ढो लाए हैं
/ काले कहार, इसी प्रकार डॉ.भगवतशरण
अग्रवाल कहते हैं- ऐसे बरसी /
बदली आज, भूले / याद आ गए,
नीलमेन्दु सागर इस ऊहापोह में हैं कि आँखों में मेघ
/ ओठों पर बिजली
/ भीगूँ या जलूँ। और डॉ.भगवतशरण अग्रवाल जीवन के दोनो
पक्षों को देखते हुए कहते हैं- सावन -झड़ी /
मन-आँगन भरे / फूल औ शूल। अनेक
भावनाओं के समेटे कुछ हाइकु इस प्रकार हैं-
छलक उठे
दोनों नैनों के ताल
मन बेहाल।
-कमला निखुर्पा |
मेघों का नाद
हृदय को बींधती
प्रिय की याद।
-डॉ. कुँवर दिनेश सिंह |
कैसा ये गीत
हवाओं ने छेड़ा, जो
रो पड़े मेघ !
-अनिता ललित
|
कैसी ये झड़ी
बूँदों के संग बही
अश्कों की लड़ी!
-अनिता ललित |
सिहरी काँपी
बदली-सी वेदना
आज बरसी।
-शशि पाधा |
जीवन न केवल
सुख है और न केवल दुःख। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार एक
वस्तु यदि किसी के लिए सुख का कारण है तो दूसरे के लिए दुःख का
कारण भी हो सकती है परन्तु यह शास्वत सत्य है कि जल बिना जीवन
सम्भव नहीं, तभी तो कवि मन कह उठता है-
देती जीवन / जल की हर बूँद
/ खोलो बंधन। -सुनीता अग्रवाल
और...हाइकु जगत् सरस मन गा उठता है पावस गीत-
साँसों की लय / गाए पावस-गीत
/ प्रीत मगन। -डॉ. नूतन गैरोला
भारत जैसा कृषि प्रधान देश हो या विश्व का कोई भी भौगोलिक भाग,
वर्षा से वर्ष का अटूट सम्बन्ध है। वर्षा नहीं तो वर्ष कैसा!
बिना वर्षा के कुछ ही दिनों में हर प्राणी त्राहिमाम् कर
उठेगा। वर्षा की अनुपस्थिति का अर्थ है दुर्भिक्ष। हरेराम समीप
के शब्दों में- पड़ा अकाल / पहाड़
जैसा खड़ा / सामने साल।
डॉ.भगवतशरण अग्रवाल
जलते हुए खेतों को देखकर कहते हैं- ले गई हवा
/ सावन के बादल
/ जलते खेत। अकाल का एक और दृश्य हरेराम समीप इस प्रकार
प्रस्तुत करते हैं- हलकान है / अकाल
में चिड़िया / दाना न पानी।
निष्कर्षतः कहूँगी कि-
‘नेह बादल
बरसाया तुमने
उगे सपने’
बादलों से बरसता नेह धरा को नवांकुरों से युक्त कर नूतन सृजन
की ओर प्रवृत्त करेगा तथा नेह की वर्षा मानव मन को परस्पर
प्रेम से परिपूर्ण सुन्दर, मधुर स्वप्नों का उपहार देती
रहेगी,हाइकु जगत् भी सतत रस-वर्षण से सहृदयों के हृदय को
आह्लादित करता रहेगा ।
१३ जुलाई २०१५ |