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सोप ऑपेरा का इतिहास
- डॉ. शंकर सोनाने
 


अमेरिका की एक कंपनी ने अपने प्रॉडक्ट एक साबुन यानि सोप और पाउडर के प्रचार के लिए एक नाटकीय ढंग अपनाया और उसका विज्ञापन अमेरिकी दूरदर्शन से प्रदर्शित किया। अमेरिका में उस समय महिलाएँ अक्सर दिन में घर में ही होती थीं। उसे देखने वाली महिलाएँ इन विज्ञापनों से प्रभावित होतीं और इस कंपनी के प्रॉडक्ट को घर-घर बेचा करती थीं। विज्ञापन का यह तरीका काफी सफल रहा।

तमाशा, नाचा तथा पवाड़ा के रूप में भारत में ऑपेरा सदियों से प्रचलित है। इस विधा में किसी नाटक या गाथा को गा-गाकर एवं अभिनय के साथ दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। आज भी यह विधा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में खूब प्रचलित है। तत्कालीन प्रथा के परिप्रेक्ष्य में पांडवानी गायन भी इसका एक अच्छा उदाहरण है।

इस सोप के प्रचार यानि सोप-ऑपेरा के दौरान अमेरिकी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्णधारों को कुछ नया करने को सूझा। चिकने संगीतमय प्रॉडक्ट के विज्ञापन से प्रभावित होकर चिकने संगीतमय नाटक लिखे गये। कुछ ही वर्षों में अमेरिकी दूरदर्शन द्वारा पंद्रह मिनट का धारावाहिक प्रसारित किया जाने लगा, और यह काफी लोकप्रिय हुआ। अमेरिका में औद्योगिक संस्कृति के पनपने के कारण लेखकों तथा कलाकारों के लिए विज्ञापनों के अलावा और कोई प्रगतिशील राह नहीं थी। फलतः ये लोग अमेरिका से पलायन करने लगे। छठवें दशक के बाद औद्योगिक नीति में सुधार हुआ, जिससे लेखकों, पत्रकारों तथा कलाकारों को नया रचनात्मक कार्य मिलने लगा। आज स्थिति बेहतर है। पहले अमेरिका में सोप-ऑपेरा केवल महिलाओं तक ही सीमित था, किंतु अब यह पुरुषों के लिए भी काफी आकर्षक हो गया है। बंगाल में सत्यजीत राय ने ‘पाथेर-पांचाली’ फिल्म में बहुत कुछ हद तक सोप ऑपेरा का प्रयोग भी किया है। राय को अमेरिका में ऑस्कार पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।

यदि हम अपनी लोक-गाथाओं के कलाकारों से संपर्क करें, तो ज्ञात होगा कि वे सोप ऑपेरा शब्द को तो नहीं जानते, किंतु वे उसकी अभिव्यक्ति लोकगाथाओं के माध्यम से गा-गाकर, नाचकर, नाटकीयता के साथ खूब अच्छी तरह से करते हैं। मैंने स्वयं आज से ३० वर्ष पूर्व अपने बचपन में पवाड़ा, तमाशा के कलाकारों के साथ बाल-कलाकार के रूप में एक दशक तक कार्य किया, किंतु मुझे भी सोप ऑपेरा की जानकारी आठवें दशक के बाद हासिल हुई। स्पष्ट है कि भारत में सोप ऑपेरा का चलन लगभग सदियों पुराना है, जो सुषुप्तावस्था में हमारे जन-मन में किसी कोने में पड़ा था और छठवें व सातवें दशक में पनपकर आज पल्लवित-पुष्पित हो गया है।

भारत में नाटकीय सोप-ऑपेरा लाने में एस.एस.गिल का विशेष हाथ रहा है। गिल, जो आई ए एस मध्य प्रदेश मूल के अधिकारी हैं, दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने सोप-ऑपेरा से संबंधित जानकारी मनोहर श्याम जोशी को सौंपी थी। सोप ऑपेरा की शुरुआत सन् १९६२ में मनोहर श्याम जोशी द्वारा लिखे धारावाहिक ‘तीसरा रास्ता’ से हुई। यों कहा जाए तो मनोहर श्याम जोशी भारत में सोप ऑपेरा के जन्मदाता हैं। ‘तीसरा रास्ता’ के बाद उनके लिखे ‘बुनियाद’, ‘हम लोग’ तथा ‘हमराही’ जैसे सफलतम सोप-ऑपेरा धारावाहिक रूप में दिल्ली दूरदर्शन से प्रसारित हुए, और बेहद लोकप्रिय हुए। यह उपलब्धि दूरदर्शन के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से लिखी जाएगी।

सोप-ऑपेरा में वस्तुतः जीवन की सूक्ष्म भावनाओं का समावेश होता है। इसमें यथार्थ जीवन के सामाजिक परिवारों के दुःख-सुख की भाव-प्रवणता, नाटकीय एवं अति नाटकीयता होती है। इसमें चिकनी-चुपड़ी चापलूसी, प्रेमालाप को वास्तविकता का पुट दिया जाता है। संपूर्ण पटकथा में गहरी संवेदनशीलता का ध्यान रखा जाता है। इसे इस तरह कहा जा सकता है कि जिस तरह सोप यानि साबुन में झाग होता है, उफान होता है, चिकनाहट होती है। इसी तरह सोप ऑपेरा में ऐसा ही सब कुछ होता है यानि यह रूपक है, चापलूसी, जी-हुजूरी, चिकनी-चुपड़ी बातों का।

जिन पारिवारिक रचनाओं में साबुन के झाग के समान भावनाओं को उभारकर जो कड़ियाँ दूरदर्शन द्वारा प्रसारित की जाती हैं, उसे सोप-ऑपेरा कहा जाता है। ऑपेरा अर्थात, संगीतमय नाटक, जिसमें वाद्य-यंत्रों के साथ दर्शकों के समक्ष नाटकीय प्रहसन का प्रस्तुतिकरण होता है। रेडियो एवं दूरदर्शन के सोप-ऑपेराओं में पद्य के स्थान पर गद्य को प्राथमिकता मिली। पद्यात्मक गीतों के माध्यम से कथाएँ प्रस्तुत की जाती थीं, वह भी लोक-कथाएँ, किंतु सोप-ऑपेरा के आगमन से इसमें अब गद्य का प्रवेश हो गया है अर्थात संवादों का प्रवेश। यह परिवर्तन सन् १९७० के पास सोप-ऑपेरा के प्रादुर्भाव से हुआ।

सोप ऑपेरा विधा में लेखक को काफी सृजनात्मक स्वतंत्रता मिल जाती है। पटकथा में वह अपने पात्रों की रचना विभिन्न रूपों में कर सकता है। कोई भी नेगेटिव पात्र पॉजिटिव या हीरो पात्र की ओर लुढ़क सकता है। किस पात्र को प्राथमिकता दी जाए या एक से अधिक पात्रों को प्राथमिकता दी जाए, उसके लिए भी पटकथा लेखक स्वतंत्र है। कभी-कभी लेखक एक पॉजीटिव पात्र को प्राथमिकता दे सकता है और बाकी पात्र उसके इर्द-गिर्द मँडराते रह सकते हैं। हँसना, रोना, झगड़ना, मनाना, रूठना, अकड़ना, जिद्दीपन आदि भावों को पात्रों में कूट-कूट कर भरा जा सकता है।

इस विधा में जीवंतता आना अनिवार्य है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि सोप-ऑपेरा में थोड़ा रोना, थोड़ा हँसना, थोड़ी पारिवारिक कलह, आदर्श, स्वार्थीपन, जोशीलापन, रसिकता, थोड़ी उजड्डता, ताने, तू-तू, मैं-मैं, प्रेम-गुनगुनाना और कुछ सस्पेंस भी होना चाहिए। कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि सोप ऑपेरा को चौराहे पर लगे सार्वजनिक सूचना देने वाले होर्डिंग की तरह का होना चाहिए, जो चलते-फिरते आम व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर बरबस ही आकर्षित कर ले।

२७ अप्रैल २०१५

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