हिंदी दिवस के अवसर पर
लॉर्ड मैकाले का
सपना
- हनुमान सरावगी
आचार्य विनोबा भावे ने १९७५ में आयोजित विश्व हिंदी
सम्मेलन में चिंता व्यक्त करते हुए कहा था- "केवल १६
करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा स्पेनिश को
संयुक्त राष्ट्र संघ ने मान्यता दी है और ४० करोड़
लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी भाषा को मान्यता
नहीं दी गयी है।" विडंबना की बात है कि विश्व स्तर पर
हमने हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने का असफल प्रयास तो
किया, किंतु अपने ही राष्ट्र में उसे प्रतिष्ठित नहीं
कर पाये। राष्ट्रभाषा का सम्मान तो हिंदी को प्राप्त
है, किंतु उसका प्रयोग राष्ट्र भाषा की मर्यादा के
अनुकूल नहीं हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अरबी
भाषा को भी छठी भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया है,
अतएव भारत सरकार द्वारा हिंदी को प्रतिष्ठित कराने का
कारगर प्रयास निरंतर किये जाने की आवश्यकता है।
विवाद राजनीति से जुड़े हैं
वर्तमान भाषायी स्थिति के कई कारण हैं। आमतौर से
भाषायी विवाद या आंदोलन राजनीतिक स्वार्थ के लिए खड़े
किये गये। विवादों का समाधान ढूँढने की जगह, विवादों
को स्थायित्व प्रदान किया गया और ये विवाद राजनीति के
साथ-साथ भावनात्मक मुद्दे बना दिये गये। इन मुद्दों या
इन्हीं विवादों पर कई राजनीतिक ताकतों का स्वार्थ
पनपता रहा है। इस प्रकार हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ
भारत में ही राजनीति का शिकार हो गयीं और अंग्रेजी हर
प्रभावी स्तर पर स्थापित होती रही। लार्ड मैकाले का
सपना उनके जीवन में और ब्रिटिश शासन में पूरा नहीं
हुआ, किंतु आजादी के बाद उनका सपना अवश्य पूरा हो गया।
हमारे लोकतंत्र ने ‘इंडिया दैट इज भारत’ संविधान में
अंकित कर भारत के नागरिकों को दस प्रतिशत अंग्रेजी
बोलने वाले ‘इंडिया’ के समक्ष बौना कर दिया।
जिन राष्ट्रीय नेताओं ने संयुक्त राष्ट्र संघ में
हिंदी को प्रतिस्थापित करने की नीति घोषित की थी,
उन्हीं नेताओं ने दक्षिण भारत में अपने भाषण अंग्रेजी
में दिये, चूँकि उन्हें वोट का महत्व राष्ट्रीय सम्मान
से अधिक प्रतीत हुआ। वोट की राजनीति के सामने आज
वस्तुतः संपूर्ण मानवीय मूल्य, सिद्धांत और परंपराएँ
गौण हो गयी हैं। आज भाषायी स्वाभिमान देश में
परिलक्षित नहीं होता। मारीशस के पूर्व प्रधानमंत्री
शिवसागर रामगुलाम ने कहा था- "हिंदी भाषा को लेकर
पिछले १५० वर्षों से हमने अपने बाप-दादा की परंपराओं
को मारीशस में जिंदा रखा है।" प्रश्न है कि क्या हम
भारतीय भी अपनी परंपराओं के प्रति सचेत, जागरूक एवं
संवेदनशील हैं?
राष्ट्रभाषा का कागजी दरजा
राजनीतिक कारणों से ही हमारी सक्षम राष्ट्र भाषा हिंदी
समर्थ एवं सृमद्ध भाषा नहीं लगती। इसे राष्ट्रभाषा का
मात्र कागजी दरजा मिला है, व्यावहारिक सम्मान नहीं। आज
सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के अधिकतर अधिकारी
हिंदी का प्रयोग करना या हिंदी में बोलना अपना अपमान
समझते हैं। हिंदी के नाम पर हर वर्ष विभिन्न सरकारी
कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में हिंदी दिवस या हिंदी
पखवाड़ा मनाया जाता है। हिंदी का प्रयोग जब तक हर दिन
नहीं होगा, हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ों का कोई लाभ या
औचित्य नहीं होगा। हिंदी को स्मरण करने की जगह इसे
प्रयोग में लाया जाना आवश्यक है।
आज स्थिति यह है कि कतिपय हिंदी वाले ही हिंदी की
अक्षमता को सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। हालांकि
उनके तर्क में कोई युक्तिसंगत तथ्य नहीं होते। उनकी
बात महत्वपूर्ण लगती है, क्योंकि प्रयोग के स्तर पर
भारत में सरकारी तंत्र हिंदी का विरोधी रहा है। सबसे
दुख की बात यह है कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के
विरुद्ध हम टिप्पणियाँ बर्दाश्त कर लेते हैं। रूस अभी
भी एक बहुभाषायी राष्ट्र है, लेकिन कोई भी रूसी नागरिक
रूसी या अन्य रूसी भाषाओं के विरुद्ध एक भी टिप्पणी
सुनना पसंद नहीं करता है। आज जर्मन, रूसी, फ्रेंच,
चीनी, जापानी, स्वीडिश आदि अनेक भाषाएँ अंग्रेजी की
तुलना में किसी भी विधा स्तर पर पीछे नहीं हैं, लेकिन
हिंदी इन भाषाओं से अग्रणी और सक्षम होते हुए भी
विज्ञान की अन्यान्य विधाओं के क्षेत्र में पिछड़ गयी
है या ऐसा कहें कि इसके विकास को सरकारी तंत्र ने
हमेशा हतोत्साहित किया है, यह कहकर कि हिंदी विज्ञान
या तकनीकी विधाओं की संवाहिका बनने की योग्यता नहीं
रखती। विश्व का उच्चस्तरीय गणित, रेखागणित, परमाणु
विज्ञान, धातुशोधन विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान आदि की
संवाहिका दस हजार वर्षों तक संस्कृत रही है। वर्तमान
परिदृश्य में यही भूमिका निभाने की पूरी योग्यता हिंदी
में भी है।
अब समय आ गया है कि हमें भारतीयता की रक्षा के लिए,
भारती की अस्मिता के लिए हिंदी सहित समस्त क्षेत्रीय
या आंचलिक भाषाओं के विकास की दिशा में सार्थक पहल
करनी चाहिए। अंग्रेजी परस्त लोग ऐसी आवश्यकता और उसके
लिए पहल करने की बात पर प्रश्न चिन्ह आदतन लगा सकते
हैं। उन्हें यह उत्तर दे दिया जाना पर्याप्त होगा-
हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाएँ मिलकर भारत की अस्मिता,
संस्कृति, परंपराएँ और संप्रभुता का आधार बनती हैं। इन
भाषाओं के वस्तुपरक विकास करने पर समाज में वे अपना
उचित स्थान स्वयं प्राप्त कर लेंगी।
हिंदी के साथ मातृभाषा भी
भारतीय भाषाओं के विकास की अनेक अन्य आवश्यकताएँ हमारे
समक्ष हैं- मनोवैज्ञानिकों एवं भाषा वैज्ञानिकों ने
अनेक शोधों के बाद यह सिद्ध कर दिया है कि दस वर्ष से
कम उम्र के बच्चों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी
जानी चाहिए। इस उम्र वर्ग के बच्चों को जब किसी अनजान
भाषा में शिक्षा दी जाती है तो उनके मस्तिष्क पर
अनावश्यक दबाव पड़ता है। उनकी मानसिक प्रखरता और विकास
बाधित होते हैं। आज विश्व भर में मातृभाषा में बच्चों
की प्रारंभिक शिक्षा बच्चों का अधिकार माना गया है,
क्योंकि मातृभाषा में विषयों की ग्राह्यता अधिक होती
है। यह भी जानने और स्मरण करने की जरूरत है कि
मातृभाषा के माध्यम से ही एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को अपनी
संस्कृति, संस्कार और विचार प्रेषित करता है और इस
प्रेषण के बाधित हो जाने के कारण ही समाज में अन्यान्य
विकृतियाँ और अपसंस्कृति का जागरण होता रहा है।
भारत में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा
में लागू की जानी चाहिए। उच्च शिक्षा, त्रिभाषा
फार्मूले पर ही दी जानी चाहिए। भारतीयों के लिए यह
फार्मूला अपनाना आसान है, क्योंकि अमूमन भारतीय
द्विभाषीय हैं। राजनीतिक स्तर पर सिर्फ हिंदी ही नहीं,
आंचलिक भाषाओं के साथ भी अन्याय हुआ है। संविधान की
अष्टम सूची में भाषाओं को राजनीति के आधार पर स्थान
दिया गया है, भाषाओं की स्थिति और कोटि के आधार पर
नहीं। कई राज्यों में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का
दर्जा दिया गया है। यह एक अच्छी पहल है, किंतु हम इस
संदर्भ में बिहार पर नजर डालें तो जिस वर्ग को उर्दू
बोलने वाला मान लिया गया है, उस वर्ग के लोग मिथिलांचल
में मैथिली, भोजपुर में भोजपुरी, अंग क्षेत्र में
अंगिका, वैशाली में वज्जिका, गया में मगधी, झारखंड
क्षेत्र में नागपुरी, पंचपरगनिया, संताली आदि भाषाएँ
जन्म से सीखते और बोलते हैं- ये भाषाएँ ही उनकी
मातृभाषाएँ हैं, उर्दू नहीं। वस्तुतः राजस्थान में
राजस्थानी, उत्तर प्रदेश में ब्रजभाषा, बिहार में
मैथिली और भोजपुरी को भी राज्य की दूसरी भाषा का दरजा
दिया जाना चाहिए। भारतीय भाषाओं को अष्टम सूची में
सहृदयता के साथ, भाषाओं को प्राप्त मान्यताओं के आधार
पर शामिल करने के लिए सरकार को निष्पक्षता से विचार
करना चाहिए, क्योंकि भाषा समाज और संस्कृति का दर्पण
होती है।
१ सितंबर २०१५ |