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संत कबीर का काव्य पंथ
- सुधाकांत दास
संत
कबीर का प्राकट्य (१३९८ ई.) काशी में और लीलावसान
(१५१८ ई.) मगहर में हुआ था। उनका प्राकट्य एक हिंदू
परिवार में और लालन-पालन एक मुस्लिम परिवार में हुआ
था, जो जुलाहे का काम करता था। इसीलिए कबीर के काव्य
में कातने-बुनने से संबंधित सबसे अधिक प्रतीक, बिंब और
उपमान मिलते हैं। स्वामी रामानंद उनके गुरु थे। कबीर
ने स्वयं कहा है:
काशी में हम प्रकट भए हैं,
रामानंद चेताए।
समरथ को परवाना लाए,
हंस उबारन आए।।
संत कबीर काशी में रहते थे और आरंभ से ही साधु-संतों
के सत्संग में रुचि रखते थे। पंडितों के बीच रहकर वह
हिंदू धर्म से परिचित हुए। उस धर्म में फैली
भ्रांतियाँ, रूढ़िवाद से उनको ठेस पहुँची। उसी तरह एक
मुसलमान से पले-जुड़े रहने के कारण उस धर्म में फैली
भ्रांतियों और रूढ़िवाद से भी उनको दुख हुआ। अतः
उन्होंने दोनों ही धर्मों मे फैली भ्रांतियों,
कमजोरियों और बाहरी आडंबरों का विरोध किया।
संत कबीर का प्राकट्य युग-संधि पर हुआ था। तब
जाति-पाँति, छूआछूत का बोलबाला था। नीचे तबके के लोग
ब्राह्मणवाद एवं मुल्लाओं के कारण उपेक्षित तथा
सामाजिक रूप से शोषित थे। उन्होंने नीचे समझे जाने
वाली उपेक्षित जातियों की सांस्कृतिक, सामाजिक चेतना
के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जाति-पाँति को
अस्वीकार करते हुए भक्ति, कर्म और ज्ञान को महत्व
दिया। कोई भी व्यक्ति जन्म से नहीं, कर्म से महान होता
है। उनकी यही धारणा थी और उन्होंने स्पष्ट कर दिया था-
जाति न पूछो साधु की,
पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का,
पड़ा रहन दो म्यान।।
संत कबीर आरंभ से ही प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। सिद्ध
पुरुष के रूप में उनकी ख्याति शीघ्र फैल गई। वह
क्रांतिद्रष्टा थे। उनकी वाणी गहरी सामाजिक चेतना से
उद्भूत हुई। राजा-प्रजा, जाति-पाति, ऊँच-नीच का भेदभाव
उन्हें बर्दाश्त नहीं था। वह ‘कागद की लेखी’ की जगह
‘आँखिन देखी’ को अधिक प्रमाणिक मानते थे। छूआछूत, घृणा
आदि के वह कट्टर विरोधी थे। इसीलिए वह सहज सत्य को बड़ी
सहज और बेलाग भाषा में अभिव्यक्त करते हैं।
संत कबीर में बौद्धिक ईमानदारी थी। अतः वह जहाँ जाते,
वहीं अनेक लोग उनके शिष्य हो जाते। हिंदू-मुसलमान
दोनों धर्मों के लोग उनके शिष्य थे। उन्होंने समता की
दृष्टि रखकर पंडितों-मुल्लाओं द्वारा लायी गई रूढ़ियों,
भ्रांतियों का बड़े जोरदार शब्दों में खंडन किया।
उन्होंने दोनों मजहबों में व्याप्त कुरीतियों,
प्रचलनों पर चोट की। हिंदुओं में व्याप्त बाहरी
आडंबरों, पूजा-पाठों पर उन्होंने व्यंग्य किया:
पाहन पूजे हरि मिले
तो मैं पूजूँ पहार।
यासे तो चाकी भली
जो पीस खाय संसार।।
और मुसलमान धर्म कमजोरियों पर बड़े निडर होकर कह दिया:
दिन को रोजा रखत हैं,
रात हनत हैं गाय।
यहाँ खून वह बंदगी,
कैसे खुशी खुदाय।।
संत कबीर आध्यात्मिक रुचि के मस्तमौला फक्कड़, अपने
निश्चय के प्रति दृढ़, कर्म के प्रति ईमानदार, समाज के
प्रति जागरूक और देश के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के
धनी थे। अतः वह पंडित-मुल्लाओं की आलोचना, विरोध और
छींटाकशी की कतई परवाह नहीं करते। वह निर्भीकता के साथ
-साथ एक विलक्षण मस्ती और अक्खड़पन से अपनी धुन में आगे
बढ़ते गए। वह अपने विश्वासों के इतने पक्के थे और
कर्तव्य पालन में इतने दृढ़ कि उन्हें किसी प्रकार के
परिणाम की चिंता नहीं थी। वह समझौता करने वाले व्यक्ति
नहीं थे। पाखंड और अज्ञानता के सामने वह कभी नहीं झुके
और उनके विरोध का भी भरपूर जबाब दिया:
हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ,
सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है,
भूकन दे झकमारि।।
मौखिक रूप से संत कबीर ने विशाल वाणियों की रचना की
जिनसे उनकी काव्य प्रतिभा का पता चलता है। इन रचनाओं
को साखी, शब्द और रमैनी- इन तीन श्रेणियों में विभाजित
किया जाता है। साखी में जीवन संबंधी उपदेश तथा कुछ
आध्यात्मिक बातें हैं। शबद में योग साधना और भक्ति भाव
के पद है। रमैनी में दार्शनिक विचार हैं। संत कबीर की
रचनाएँ मुख्यतः सिखों के धर्मग्रंथ गुरु ग्रंथ साहब
में संकलित हैं। उनकी साखियों की भाषा
राजस्थानी-पंजाबी मिली खड़ी बोली है जिसे साहित्यकारों
ने ‘सधुक्कड़ी’ कहा है, पर रमैनी और शबद में गाने के पद
हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी का
भी व्यवहार है। इससे उनका भाषा-ज्ञान तथा भारत के कई
क्षेत्रों से संपर्क सिद्ध होता है।
संत कबीर ने स्वामी रामानंद से राम-नाम की दीक्षा ली
थी, पर उनका ‘राम’ रामानंद के राम से भिन्न है। वह राम
के सगुण-साकार के रूप के उपासक नहीं थे, वरन,
निर्गुण-निराकाररूप में ब्रह्म को स्वीकार करते हैं।
कबीर के राम दशरथ के पुत्र न होकर निर्गुण ब्रह्म हैं।
उनके अनुसार ब्रह्म ही जगत में एकमात्र सत्ता है। उसी
से सबकी उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सब लीन हो
जाते हैं। कबीर का कथन थाः
दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम न जाना।।
और फिर इसीलिए कबीर ने राम और रहीम को एक मानकर
हिंदू-मुसलमान दोनों को सहयोग और एकता का पाठ पढ़ाया।
उनका निर्गुण-निराकार राम सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी
सूक्ष्म और विराट तत्व है। कबीर ने अपनी साधना द्वारा
इस राम की व्यापकता का अनुभव किया था। उन्होंने कहा:
घट-घट में वह साईं रमता,
कटुक वचन मत बोल रे।
संत कबीर ने सत्य-अहिंसा, सदाचार, त्याग, गुरु महिमा,
सत्संग आदि पर अधिक बल दिया। अपनी बात बड़ी निर्भीकता
से कहने वाले कबीर एक संत थे, महापुरुष थे, युगद्रष्टा
थे और थे समाज सुधारक क्रांतिद्रष्टा। उन्होंने धर्मों
की संकीर्णता और कट्टरता का खंडन करके मानव-प्रेम की
सामान्य भूमि पर सभी धर्मों के मेल-मिलाप का पथ
प्रशस्त किया। निःसंदेह उनमें ‘युग प्रवर्तक का
विश्वास’ और ‘लोकनायक की हमदर्दी’ थी। इस तरह वह
सद्गुरु थे।
संत कबीर सामाजिक असमानता के सख्त विरोधी तो थे ही, वह
आर्थिक असमानता से भी बहुत खिन्न थे। वह चाहते थे कि
समाज मे व्याप्त इस असमानता की खाई पटे, अंतर में कुछ
कमी आए। आवश्यकता से बहुत अधिक संचय की प्रवृत्ति की
आलोचना की और दुख प्रगट किया। संत कबीर के प्रति सच्ची
भक्ति होगी उनके द्वारा बताए गए सत्य पथ पर चलना,
अहिंसा पर बल और मानव-मानव में प्रेम और मेल-मिलाप का
समावेश कराने में सहयोग देना और ‘कबीर पंथ’ का असली
उद्देश्य भी यही है। अंत में प्रस्तुत है संत कबीर का
यह कथन:
साईं इतना दीजिए जामै कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
१ जून २०१५ |