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साहित्यिक निबंध


नीति और चतुराई से भरी कहानियाँ
- जयप्रकाश भारती
 


ईरान के सम्राट खुसरों के विद्वान मंत्री बुर्जुए ने पुस्तक में पढ़ा कि भारत के किसी पहाड़ पर संजीवनी बूटी मिलती है। उसके सेवन करने से मृत व्यक्ति भी जी उठता है। बुर्जुए सन् ५५०ई. में संजीवनी की खोज में भारत आया। इधर-उधर काफी भटकता रहा, किंतु उसे सफलता नहीं मिली। बुर्जुए ने एक भारतीय विद्वान से अपनी उलझन का उल्लेख करते हुए पूछा, "यहाँ अमृत कहाँ मिलता है?" उसने उत्तर दिया- ‘विद्वान व्यक्ति ही वह पर्वत है, जहाँ ज्ञान की बूटी होती है। उसके सेवन से मूर्ख रूपी मृत व्यक्ति में नव-जीवन का संचार हो जाता है। इस प्रकार का अमृत हमारे पंचतंत्र नामक ग्रंथ में है।’ बुर्जुए ने पंचतंत्र की प्रति प्राप्त की और उसे ईरान ले गया।

विदेशी भाषा में पहला अनुवाद-

ईरान के सम्राट को जब यह सूचना मिली तो उसकी खुशी की कोई सीमा न रही। उसने बुर्जुए से कहा कि तुम सुबह से शाम तक सरकारी खजाने से जितना सोना ले जा सकते हो, ले जाओ। लेकिन बुर्जुए शास्त्रवेत्ता था, लालची नहीं था। उसने सोना तो नहीं लिया, हाँ, सम्राट के लिए पहलवी भाषा में ‘पंचतंत्र’ का अनुवाद कराया। पंचतंत्र को दो सियारों (करकट और दमनक) के नाम पर बुर्जुए ने पुस्तक का नामकरण ‘कलेलाह-व-दिमनाह’ रखा। किसी विदेशी भाषा में पंचतंत्र का यह पहला अनुवाद था। कुछ वर्ष बाद पहलवी पंचतंत्र से सीरिया की प्राचीन भाषा में इसका अनुवाद हुआ। इसके बाद आठवीं सदी में अब्दुल्ला इब्न-उल् मुकफ्का ने अरबी में अनुवाद किया, जिसका नाम है- कलीलः व दिमनः। अब्दुल्ला ने अनुवाद के अंत में कुछ कहानियाँ जोड़ दी हैं और एक भूमिका भी लिखी है। इसके बाद ‘पंचतंत्र’ के अनुवाद विश्व की प्रायः सभी भाषाओं में हुए।

ईसपः एक गुलाम ने लिखी

पंचतंत्र के अनुवादों की परंपरा लगातार चलती रही। यह आज भी रुकी नहीं है। पंचतंत्र विषयक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अध्ययन प्रसिद्ध जरमन विद्वान डॉ. हर्टेल ने किया है। उन्होंने पचास भाषाओं में इसके दो सौ अनुवादों का उल्लेख किया है। पंचतंत्र की कथाओं का संसार के कथा-साहित्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। संस्कृत व पाली की विदुषी डॉ. उषा सिंहल के अनुसार- ‘विश्व बाल-साहित्य की एक अनुपम कृति है- ‘ईसप की कहानियाँ’। यूनानी भाषा की यह कृति एक गुलाम ईसप ने लिखी थी। ईसप की कहानियाँ पंचतंत्र की कहानियों से मिलती-जुलती है। यह समानता कथानक, पात्र, उद्देश्य आदि सभी में है। पंचतंत्र की कहानियों के समान ये कहानियाँ भी जीवन-जंतुओं की कहानियाँ हैं और पंचतंत्र के समान इनमें भी नीति तत्व की प्रधानता है। इसी कारण सभी विद्वानों ने पंचतंत्र को ही इन कहानियों का मूल आधार माना है।

विष्णु शर्मा कौन थे?

इस अनुपम कृति की रचना कैसे हुई, इस बारे में भी विवरण मिलता है- दक्षिण जनपद में महिलारोप्य नाम का नगर है। वहाँ भिखमंगों के लिए कल्पवृक्ष के समान, सकल कलाओं में पारंगत अमरशक्ति नाम के राजा थे। उनके तीन परम मूर्ख पुत्र हुए। वे पढ़ नहीं सके। राजा बड़े चिंतित रहते। एक दिन उन्होंने अपने मंत्रियों से कहा, ‘देखिए, मेरे पुत्र शास्त्र विमुख और बुद्धि रहित हैं। इन्हें देखकर बड़ा राज्य भी मुझे सुखकर नहीं लगता। इनकी बुद्धि खुल सके ऐसा कोई उपाय कीजिए। यहाँ पर पाँच सौ पंडित विराजमान हैं जो राज्य से वेतन पाते हैं। ऐसा कीजिए जिससे मेरी मनोकामना पूरी हो।’

एक पंडित खड़े हुए और बोले, "देव, व्याकरण का अध्ययन बारह वर्ष करना पड़ता है। इसके बाद धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और अन्य शास्त्रों का अध्ययन करना होता है। तब कहीं बुद्धि जागती है।"
तभी सुमति नामक मंत्री बोल उठा- "यह जीवन नाशवान है। शब्द शास्त्र सीखने में बहुत बरस लग जाते हैं। राजकुमारों की शिक्षा के लिए किसी छोटे उपाय का विचार करना चाहिए। सब शास्त्रों में पारंगत विष्णु शर्मा हमारे राज्य में ही हैं। राजकुमारों को आप उन्हें सौंप दीजिए।"
राजा अमर शक्ति ने विष्णु शर्मा को बुलवाया और उससे बोले, ‘भगवन, मेरे ऊपर कृपा करके आप इन राजकुमारों को शास्त्रों का ज्ञान दीजिए। मैं आपको सौ गुनी जागीर भेंट करूँगा।’

विष्णु शर्मा राजा से बोले- ‘‘देव, सौ गुना जागीर के लोभ में मैं अपनी विद्या नहीं बेच सकता। हाँ, मैं छह महीने में ही आपके पुत्रों को नीति शास्त्रज्ञ बना दूँगा। अस्सी वर्ष का होने पर अब मुझे धन की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन आपकी प्रार्थना की सिद्धि के लिए मैं शिक्षा को मनोरंजक बनाऊँगा। यदि आज से छह महीने बीतने पर मैं आपके पुत्रों को दूसरों की तरह नीति-शास्त्र में कुशल न कर दूँ, तो मैं मोक्ष का भागी न बनूँ।’

विष्णु शर्मा के इस कथन से राजा प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने राजकुमारों को उन्हें सौंप दिया। विष्णु शर्मा उन कुमारों को अपने साथ ले गये। उनके लिए पाँच तंत्रों की रचना की यथा मित्र भेद, मित्र संप्राप्ति, काकोलूकीय, लब्ध-प्रमाश और अपरीक्षितकारक। इस प्रकार की पढ़ाई से छह महीनों में राजकुमारों की नीति-शास्त्र में अच्छी पकड़ हो गयी। राजकुमारों में जैसी चतुराई और समझ होनी चाहिए, वे उससे संपन्न हो गये। यह कहानियों के इतिहास में एक स्पष्ट तथा महत्वपूर्ण कदम था।

ज्ञान का अपूर्व भंडार

आख्यान परंपरा का हमारा वास्तविक स्त्रोत है- ऋग्वेद। बहुत से आख्यान बीज रूप में ऋग्वेद में मिलते हैं। बाद में उन्हीं का पल्लवन ब्राहमणो, उपनिषदों, सूत्र ग्रंथों, महाकाव्यों और पुराणों में हुआ मिलता है। ऋग्वेद में कोई आख्यान वर्णनात्मक रूप में नहीं है। वे देवताओं और ऋषियों की स्तुति के रूप में नहीं है। आख्यानों का संकेत मात्र उसमें मिलता है। वेदों के पंडित गंगेश्वरानंद उदासीन ने ऐसी कुछ कथाएँ सामान्य पाठक के लिए लिपिबद्ध की हैं। ‘वेदोपदेश चंद्रिका’ शीर्षक से उनका संकलन पुस्तक रूप में छपा है।

ऋग्वेद में हम पशु-पक्षियों की कथाएँ प्राप्त करने की आाशा नहीं करते, परंतु उसमें कुछ ऐसी बात मिलती है, जिससे हम यह सोच सकते हैं कि भारतीय चिंतन के लिए मनुष्य के पड़ोसी पशु-पक्षियों में मनुष्य की आदतों को स्थानांतरित कर देना कितना सरल था। ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध सूक्त का जिसमें यज्ञ के अवसर पर मंत्र-गान करते हुए ब्राह्यमणों की तुलना टर्र-टर्र करने वाले मेंढकों से की गयी है, उससे स्पष्ट है कि मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों के बीच एक प्रकार का संबंध स्वीकार कर लिया गया है। उपनिषदों में यह बात स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती है- वहाँ कुत्तों की एक रूपात्मक कथा आती है जो अपने भोजन के लिए चिल्लाने वाला एक नेता ढूँढते हैं, दो हंसों की बातचीत दी हुई है, जिनके वचनों से रैक्क का ध्यान आकर्षित होता है एवं सत्यकाम को पहले एक वृषभ, फिर एक हंस, तदनंतर एक जलचर पक्षी द्वारा उपदेश दिया जाना वर्णित है। जबकि पंचतंत्र के बारे में इंतना स्पष्ट है कि उसका उद्देश्य मात्र शिक्षा देना था।

पुराण-गाथा

डॉ. उमापति राय चंदेल पुराणों के अध्ययन के बारे में कहते हैं- "पुराणों की रचना का उद्देश्य सामान्य जन को रोचक एवं रूपकात्मक शैली में अध्यात्म, धर्मशास्त्र, नीति-शास्त्र, सृष्टि विज्ञान, इतिहास एवं खगोल आदि का ज्ञान कराना है इसलिए उनमें संकलित आख्यानों का अनेक दृष्टियों से अध्ययन किया जाना आवश्यक है, उनको कपोल-कल्पित अप्रामाणिक, मिथ्या और निरी गप्प मान बैठना अपने अज्ञान का ही परिचय देना है। पुराण-कथाओं के बाह्य आवरण को भेदकर उनके मूल तत्व तक पहुँचना निश्चय ही कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए अनुसंधाता का बहुज्ञ होना आवश्यक है। पं. माधवाचार्य के ‘पुराण दिग्दर्शन’ तथा श्री कालूराम शास्त्री के ‘पुराण-वर्म’ में इस दिशा में कुछ प्रयत्न हुआ है, परंतु अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। पौराणिक आख्यान का सीमित अर्थ अठारह पुराणों में वर्णित आख्यानों से है, परंतु ‘पुराण’ शब्द का प्रयोग हमारे यहाँ प्राचीन आख्यानों के अर्थ में होता रहा है। इस प्रकार वैदिक साहित्य और महाकाव्यों (विशेषकर रामायण और महाभारत) के आख्यान भी इसी में माने जाते हैं।

जैन और जातक

बौद्ध और जैन-कथाओं का उद्देश्य तो धर्म तथा राजनीति का प्रचार था किंतु समाज में अनेक स्तरों, रीति-नीति, धार्मिक, नैतिक और मानसिक धरातलों का उनसे पर्याप्त परिचय मिलता है। उस काल में तो इन कथाओं का मौखिक रूप ही प्रचलित रहा होगा, लिखित रूप बाद में सामने आया।
‘जातक’ शब्द का अर्थ है जन्म-संबंधी। गौतम बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए अनेक जन्म धारण करने पड़े। जातक में बौधिसत्व के पाँच सौ सैंतालीस जन्मों का उल्लेख है।

जातक कथाएँ व्यापक और मानव के समीप हैं। इनमें राजा, सेठ, साहूकार से लेकर दरिद्र, चोर, चांडाल, अपराधी आदि चर तथा नदी, पहाड़, पेड़-पौधे आदि अचर तथा सब प्रकार के जीवन-जंतु, पशु-पक्षी आदि सजीव पात्रों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। इनके माध्यम से हमारे जीवन के व्यापक रूपों को बाँधने का प्रयत्न किया गया है।

कथा-साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान भी उल्लेखनीय है। उन्होंने यों तो धार्मिक कथाएँ ही अधिक लिखीं, किंतु लौकिक-कथाओं की रचना भी इस प्रकार की कि उनमें कला और कल्पना का अनोखा पुट है। जैनों और बौद्धों की अनेक नीति कथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। भरहुत (तीसरी शताब्दी ई.-पू.) स्तूप पर कितनी ही नीति कथाओं के नाम खुदे हुए हैं।

शिव ने कथा सुनायी

संस्कृत और पालि साहित्य के अलावा आख्यायिका का रूप प्राकृत में भी सँवरता जा रहा था। गुणाढ्य की बृहत्कथा प्राकृत में प्रसिद्ध है। इसी समय अपभ्रंश की धारा बह चली। आठवीं सदी की रचना हरिभद्र सूरि की लिखी धूर्तख्यान है। इसमें पाँच धूर्तों द्वारा कही गयी कथाओं को गूँथा गया है। एक दिन पार्वती ने शिवजी से कहा कि कोई ऐसी कथा सुनायें, जो एकदम नयी हो और किसी ने न सुनी हो। शिव ने बृहत्कथा का सार पार्वती को सुनाया। पुष्पदंत नामक एक गण ने चुपके से वह सुन लिया। उसने अपनी पत्नी जया को वह कथा सुना दी। जया ने वही कथा पार्वती को सुनायी तो पार्वती बड़ी रुष्ट हुई। उन्होंने पुष्पदंत को शाप दिया कि वह अपने पद से वंचित हो जाएगा। उस पद को पुनः तभी पा सकेगा जबकि वह काणभूति (वह भी शापग्रस्त होगा) नामक यक्ष को नहीं सुना देगा। पुष्पदंत का एक साथी माल्यवान था। वह बीच-बचाव करने लगा तो पार्वती ने उसे भी स्वर्ग छोड़ने का तब तक शाप दिया, जब तक कि वह काणभूमि से मिलकर उस कथा को नहीं सुन लेता।

मात्र ‘पैशाची’ से प्रतिबद्ध

समय बीता- पुष्पदंत कौशांबी में वररुचि कात्यायन के रूप में उत्पन्न हुआ। वह नंद का मंत्री हुआ और अंत में अपने पद से अवकाश लेकर विंध्य में जाकर रहने लगा वहाँ काणभूति को विद्याधरों के सात सम्राटों की कथा सुनाकर शाप-मुक्त हो गया। माल्यवान ने गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठान में जन्म लिया और गुणाढ्य कहलाया। विद्यार्जन करके विख्यात पंडित हुए राजा सातवाहन ने अन्हें अपना मंत्री बनाया। परंतु सातवाहन-संस्कृत के अच्छे ज्ञाता नहीं थे और इसी कारण उन्हें जल-क्रीड़ा के समय स्त्रियों के बीच अपमानित होना पड़ा। उन्होंने संस्कृत में पारंगत होना चाहा तो गुणाढ्य ने कहा कि इसके लिए छह वर्ष का समय चाहिए। किंतु सातवाहन के दरबारी शर्व वर्मा ने उसकी हँसी उड़ायी और कहा कि वह छह मास में यह काम कर देगा। गुणाढ्य ने प्रतिज्ञा की कि यदि ऐसा हो गया तो वह संस्कृत, प्राकृत और लोकभाषा का प्रयोग करना छोड़ देंगे। यह कार्य संपन्न हो जाता है। पराजित गुणाढ्य खिन्न होकर विंध्य में घूमते-फिरते हैं। वहाँ काणभूति उन्हें मिलता है और वररुचि से सुनी हुई कथाएँ सुनाता है। गुणाढ्य उन्हें ‘पैशाची’ में लेख-बद्ध करते हैं, क्योंकि प्रतिज्ञा में बँधे होने के कारण अन्य किसी भाषा का उपयोग नहीं कर सकते थे।

सात लाख श्लोकों वाले उस ग्रंथ को उनके शिष्य सातवाहन राजा के पास ले जाते हैं परंतु राजा उसे स्वीकार नहीं करता। गुणाढ्य उसे पशु-पक्षियों को सुनाते हैं और ग्रंथ की पांडुलिपि को अग्नि की भेंट चढ़ाते जाते हैं। पशु-पक्षी उस मधुर कविता को अत्यंत तन्मय होकर सुनते हैं। राजा तक यह बात पहुँचती है, तो वह गुणाढ्य के पास आते हैं, किंतु ग्रंथ के सप्तमांश को ही बचा पाते हैं।

लोक-कथाओं का प्रथम संग्रहकर्ता

‘पैशाची’ में बड्डकहा (संस्कृत: बृहत्कथा) अनुपलब्ध है, किंतु भारतीय आख्यायिका साहित्य का अतीत बडडकहा से संयुक्त है। आचार्यों ने इसे सागर के समान विशाल बताया है जिसकी बूँदों से संस्कृत के परवर्ती-आख्यायिकाकार और कवि अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते आये हैं। इस दृष्टि से गुणाढ्य कथा-लेखकों के गुरु सिद्ध होते हैं। पुराणों, वेदों आदि में प्राप्त कथाओं की शिष्ट साहित्यधारा के ठीक समानांतर लोक प्रचलित कथाओं की धारा भी आदिकाल से संबंधित है। गुणाढ्य ने सर्वप्रथम इस द्वितीय धारा का संग्रह जनभाषा में किया। गोवर्धनाचार्य ने बडडकहा को व्यास और वाल्मीकि की कृतियों के पश्चात् तीसरी महान कृति मान कर गुणाढ्य को व्यास का अवतार कहा है। निश्चय ही गुणाढ्य लोक-कथाओं के प्रथम और महान संग्रहकर्ता हैं, उन्होंने जो आधार भूमि तैयार की, उसी पर बाल-साहित्य का भव्य भवन खड़ा हुआ है।
‘हितोपदेश’ नीति विषयक कथाओं का प्रख्यात ग्रंथ है, जिसके लेखक नारायण पंडित हैं। ग्रंथ के कुल चार परिच्छेद हैं- मित्रलाभ, सुहृद, भेद, विग्रह और संधि। इसकी लगभग आधी कथाएँ पंचतंत्र से ली गयी हैं। कहानियाँ पशु-पक्षियों से संबद्ध हैं। ‘हितोपदेश’ की कहानियाँ रोचक हैं और उनमें नीति संबंधी कोई-न-कोई सूत्र भी आता हैं। कथाएँ सूझ-बूझ और चतुराई से भरपूर हैं।

राजा विक्रम का सिंहासन और पुतलियाँ
(सिंहासन द्वात्रिशिका)


स्वर्ग में दो प्रमुख अप्सराएँ थीं- उर्वशी और रम्भा। एक दिन उन दोनों में विवाद छिड़ गया कि कौन सर्वश्रेष्ठ नर्तकी है। इंद्र उनका निर्णय नहीं कर सके। उन दिनों उज्जयिनी के महाराजा विक्रमादित्य अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध थे। इंद्र ने उन्हें बुलाने के लिए अपने दूत भेजे। राजा विक्रमादित्य इंद्र के दरबार में पहुँचे। विक्रमादित्य अपने साथ दो गुलदस्ते ले गये थे। उन्होंने उर्वशी और रम्भा को एक-एक गुलदस्ता भेंट कर दिया। इंद्र ने कहा कि वे दोनों हाथ में गुलदस्ता लेकर ही नृत्य करें। दो तरह दो मंच बने थे। उन दोनों ने अलग-अलग मंच पर एक साथ ही नृत्य आरंभ किया।

रम्भा के गुलदस्ते से एक मधुमक्खी निकली और उसने रम्भा को डंक मार दिया। रम्भा इससे तिलमिला उठी। उसने नृत्य रोक दिया। कुछ ही देर बाद, उर्वशी के गुलदस्ते से भी एक मधुमक्खी निकली और उसने उर्वशी को डंक मारा। लेकिन उर्वशी का ध्यान भंग नहीं हुआ और वह पूरी तन्मयता से नृत्य करती रही। राजा विक्रमादित्य ने उसे ही सर्वश्रेष्ठ नर्तकी माना। राजा के इस निर्णय से इंद्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा विक्रमादित्य को एक सिंहासन भेंट किया। सिंहासन में बत्तीस सीढ़ियाँ थीं और प्रत्येक सीढ़ी की रक्षक एक पुतली थी। विक्रमादित्य के साथ वह सिंहासन उज्जयिनी लाया गया। राजा विक्रमादित्य उसी पर बैठ कर आजीवन उचित-अनुचित का निर्णय किया करते। जब उन्होंने राजपाट छोड़ा, तो उस सिंहासन को धरती के भीतर गाड़ दिया गया।

पाँच सौ वर्ष बीत गये। राजा भोज को उस सिंहासन के बारे में पता चला। उन्होंने पृथ्वी में गड़े हुए सिंहासन को निकलवा लिया। उस सिंहासन पर बैठ कर राज्य करने का निश्चय किया। निश्चित दिन और समय पर ज्यों ही राजा भोज उस पर चढ़ने को पैर उठाते हैं, तभी पहली पुतली बोल उठती है, ‘महाराज, तनिक ठहरिए। क्या आप विक्रम के सिंहासन पर बैठने के योग्य हैं? ’पुतली विक्रम के पराक्रम की कथा उसे सुनाती है। राजा भोज विचार करते हैं और उन्हें लगता है कि वह इस योग्य नहीं हैं। वह इसके लिए तप और साधना करते हैं। इसके उपरांत, फिर सिंहासन पर आरूढ़ होने का निश्चय करते हैं। एक सीढ़ी तो वह चढ़ जाते हैं, किंतु दूसरी सीढ़ी पर पाँव रखते ही, दूसरी पुतली विक्रम की उदारता और दानशीलता का वर्णन करती है। राजा भोज फिर साधना करते हैं। इस प्रकार हर बार वह एक सीढ़ी चढ़ लेते हैं। प्रत्येक पुतली उन्हें एक नयी कहानी सुनाती है। इस प्रकार बत्तीस रोचक कहानियाँ कही गयी हैं, जो बच्चों और बड़ों को समान रूप से आकृष्ट करती हैं। राजा भोज उस सिंहासन पर नहीं बैठ पाते। स्वर्ग के देवदूत सहसा प्रकट होते हैं और सिंहासन को आकाश की ओर ले उड़ते हैं। राजा विक्रमादित्य का वह सिंहासन फिर से वहीं पहुँच गया, जहाँ से इस धरती पर लाया गया था।

विक्रमादित्य का अथाह ज्ञान

सम्राट विक्रमादित्य के बारे में राजशेखर व्यास कहते हैं- "भारतीय कल्पना को अत्यधिक स्पर्श करने का सौभाग्य जितना विक्रमादित्य को प्राप्त है, उतना केवल कतिपय महापुरुषों को ही प्राप्त हो सका है। सुभाषितों में, धार्मिक ग्रंथों में, कथा-साहित्य में एवं लोक-कथाओं में विक्रम चरित्र ओत-प्रोत है। भावुक एवं वीरपूजक भारतीय हृदयों में शकों के अत्याचार एवं अनाचार से त्राण दिलाने वाले इस महान वीर की मूर्ति सदा के लिए, अत्यंत महत्वपूर्ण रूप से स्थापित हो गयी। संस्कृत से लेकर प्राकृत, अपभ्रंश और वर्तमान भारतीय भाषाओं में विक्रम चरित्र संबंधी सैकड़ों ही ग्रंथ भरे पड़े हैं। विक्रम विषयक कुछ ग्रंथ हैं- गाथा सप्तशती, कालकाचार्य कथा, कथा सरित्सागर, वेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, राजतरंगिणी, प्रबंध चिंतामणि, ज्योतिर्विदाभरण तथा भविष्य पुराण आदि। पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी बालक के मित्र होते हैं। कभी भारत की कथाएँ या पूरब के अन्य देशों के कथा-साहित्य ने पूरी दुनिया को प्रेरित किया और एक-दूसरे से जोड़ा। आज आवश्यकता है कि जो कुछ विश्व के बाल साहित्य में श्रेष्ठ है, वह सभी बच्चों तक पहुँक सके, चाहे वे बालक कहीं भी दुनिया के किसी कोने में रहते हों। बाल-साहित्य के राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय मंचों पर अनेक बार यह बात उठती रही है, लेकिन इस दिशा में सार्थक प्रयास अधिक नहीं हो सके।"

१७ नवंबर २०१४

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