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साहित्यिक निबंध

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लाल डब्बे की आत्मकथा
-शिवरचण चौहान


स्थान- भारत का कोई एक शहर
दिनांक- कोई एक तिथि

प्रिय मित्र, नमस्ते!
मैं सचल डाक विभाग का एक अचल प्राणी, काफी दिनों से आपको पत्र लिखना चाह रहा था। मैं यानी ‘पत्र पेटिका', अंग्रेजी का ‘लैटर बॉक्स’ आपके लिए अपरिचित नहीं हूँ। भले ही आप मुझे भूल गये हों किंतु मैं आपको कैसे भूल सकता हूँ! कई बार आप मेरे करीब आये हैं और अपने महत्वपूर्ण संदेश, समाचार, दुःख-दर्द एक पत्र की शक्ल में सौंप गये हैं, और मैंने बखूबी यथास्थान उन पत्रों को पहुँचाने में अपनी पूरी जिम्मेदारी निभायी है। आपके पत्रों को मजबूरन पढ़कर मुझे अनेक बार अपने दुःख-दर्द बौने लगे हैं।

आप सोच रहे होंगे कि मैं लोहे का एक डिब्बा जड़ होकर अपने को प्राणी (चेतन) कैसे कह रहा हूँ? बंधु! मेरे पास, समाज के सभी वर्गों के सुख-दुःखों का इतना ढेर है कि में निर्जीव कैसे हो सकता हूँ? पिछले एक हफ्ते से डाकिया मेरे पेट का ताला खोलने नहीं आया है। मेरे अंदर एक नव-विवाहित को दहेज के लिए ससुराल में दी जा रही यातना की करुण गाथा, एक बीमार बूढ़ी माँ का एक दूर बसे बेटे को अंतिम बार देखने का संदेश। एक बरोजगार का नौकरी पाने के लिए आवेदन पत्र, बस्ती में पुलिस उत्पीड़न से बचाने की फरियाद, एक लेखक की ताजा कहानी के पात्र, असमय दम तोड़ रहे हैं। न जाने कितनों के दर्द, सुख, राजी-खुशी समेटे मैं इन्हें डाकिये को सौंपकर इन्हें पंख लगा देना चाहता हूँ। मैंने डाकिये को कई बार इधर से निकलते देखा किंतु उसने एक हफ्ते से भी ज्यादा समय से हमारी तरफ देखा ही नहीं।

पिछली बार वह थैला लेकर आया था पूरे पंद्रह दिन बाद, तब तक तमाम पत्रों की उपयोगिता खत्म हो गयी थी किंतु कुछ पत्र अभी भी जीवित थे और ये जानकर मुझे खुशी हुई थी कि चलो ये तो अपने प्रिय का संदेश पहुँचा सकेंगे, किन्तु डाकिये ने मुझसे थैलेभर पत्र लेकर उन्हें पास ही ‘मेनहोल’ में उलट दिया था। सचमुच मैं बहुत छटपटाया था उस दिन, अगर मेरे हाथ होते तो मैं उसे पकड़कर विभाग के बड़े अफसरों को सौंप देता कि ये देखो अपने कर्मचारी की करतूत, किंतु संदेह होता है कि विभाग के अफसर मेरी बात मानते भी, कहते, लिखकर शिकायत करो, दो गवाह लाओ तब जाँच कराएँगे, मैं अधिकारियों पर संदेह बेवजह नहीं कर रहा हूँ। पिछले पाँच साल से मेरी रँगाई नहीं हुई है। मैं कई जगह से टूट-फूट गया हूँ। एक अनाड़ी कार चालक ने मुझे बड़ी बेरहमी से धक्का मार दिया था और मैं थोड़ा विकलांग भी हो गया हूँ किंतु किसी ने भी मेरा इलाज नहीं किया। तमाम बार अधिकारी आकर देख गये, मेरी मरम्मत, रँगाई का बजट भी बना गए, किंतु बाद में पता चला कि मरम्मत के लिए आया पैसा मिल-बाँटकर डकार लिया गया और मैं जैसा का तैसा बना रहा। टूटा डाक का लाल डिब्बा।

उस दिन रामबहादुर काका आये थे। उन्होंने बत्तीस साल अपनी जिंदगी के डाक विभाग की सेवा में बिताए। डाकिये से लेकर पोस्टमास्टर तक के पदों पर कार्य किया। हरदम समय पर दफ्तर गये और देर तक कार्य किया। कभी एक पैसे का गुनाह नहीं किया किंतु जब दो साल पहले रिटायर हुए तो अधिकारियों ने उनकी पेंशन रोक दी। काका बता रहे थे कि पेंशन पाने के लिए वह पी. एम. जी. की अदालत तक गये, पर कुछ नहीं हुआ किंतु बाबू को ढाई सौ रुपये घूस दे दी तो पेंशन मिलने लगी।

काका कह रहे थे कि विभाग चार सौ करोड़ रुपये घाटे में है। सन् ८५ में भर्तियों को छोड़कर सारी भर्तियाँ बंद हैं किंतु अधिकारियों की भर्तियाँ खुली हैं। कहते हैं चार सौ करोड़ रुपये के घाटे में हैं। सबसे ज्यादा घाटा पंद्रह पैसे के पोस्टकार्ड को बेचने से हो रहा है। पंद्रह पैसे वाला पोस्टकार्ड ड़ेढ़ रुपये से अधिक की लागत में छपकर आता है। सरकार ने सन् ७५ से इसके दाम नहीं बढ़ाये हैं किंतु इधर टी.वी. रेडियो, अखबारों के इनामी कार्यक्रम पहेलियाँ शुरू कर जवाब पोस्टकार्ड में मँगवाने शुरू किये तो पोस्टकार्ड पर शामत आ गयी और डाक विभाग को हर साल एक सौ करोड़ का घाटा बढ़ने लगा। १४ नवंबर, ९६ से सरकार ने पहेलियों की प्रतियोगिता के लिए अलग से दो रुपये वाला प्रतियोगिता पोस्टकार्ड निकाला है किंतु ये प्रयोग भी सफल होता नहीं दिखाई दे रहा है। दो रुपये वाले पोस्टकार्ड की जगह अब भी पंद्रह पैसे वाले पोस्टकार्ड का प्रयोग हो रहा है। अब पंद्रह पैसे वाला पोस्टकार्ड पच्चीस पैसे का हो गया है। काका कह रहे थे कि घाटे की वहज पोस्टकार्ड ही नहीं और भी हैं। भारत में एक लाख ५२ हजार ३१० डाकघर हैं किंतु अभी भी एक लाख से अधिक गाँवों व नगरों की नई बस्तियों में डाकघर नहीं हैं। ‘विभाग के पास पैसा नहीं है’ का बहाना बनकार नये डाकघर खोलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।

घाटे का एक कारण डाक विभाग के अधिकारी भी हैं। पहले एक प्रदेश में एक पोस्टमास्टर जनरल होता था, अब सात-सात हो गये हैं। डाक सेवा निदेशकों, सहायक निदेशकों, डाक अधीक्षकों की लंबी-लंबी फौजें हैं किंतु व्यवस्था सुधार के नाम पर पैसे कमाने पर ही अधिकारियों का ध्यान ज्यादा है।

कहने को तो डाक विभाग के पास छह लाख कर्मचारी हैं किंतु इनमें से आधे करीब तीन लाख दिहाड़ी पर काम करते हैं। बंधुआ मजदूरी के खिलाफ कानून बनानेवाली सरकार, इनसे तीस रुपये से भी कम दैनिक मजदूरी पर गाँव में डाक बँटवाने का काम लेती है। इन्हें अतिरिक्त विभागीय (ई. डी., ग्रामीण डाकिया) कहा जाता है। इन कर्मचारियों द्वारा तमाम हो-हल्ला मचाने पर सरकार ने इनकी सेवा-शर्तों में सुधार के लिए जस्टिस तलवार कमेटी का गठन किया है जिसने अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दी है किंतु सरकार इसे लागू नहीं कर रही है।

दोस्त, यों तो, दुनिया में चिट्ठी-पत्री भेजने की कथा पुरानी है विदेशी यात्री ह्वेनसांग ने अपने संस्मरण में १३३६ की भारत की डाक व्यवस्था का जिक्र किया है। मुगल सम्राट अकबर के समय शाही डाक लाने ले जाने के लिए हरकारे लगे हुए थे। जगह-जगह डाक चौकियाँ बनी थीं। ईसा पूर्व भी डाक व्यवस्था का जिक्र मिलता है। कबूतर द्वारा जरूरी संदेश भेजने की कहानियाँ कही-सुनी जाती हैं। चंद्रकांता की चिट्ठी और लैला का खत आज भी मशहूर है। भारत में शाही डाक के अतिरिक्त, रियायती, महाजनी, ब्राह्मणी तथा मिर्धा डाक का उल्लेख मिलता है।

सन् १४५० में इटली के राजकुमार फ्रांसिस ने कालासागर से ब्रिटिश नहर तक जनसाधारण के लिए पहली बार डाक सेवा शुरू की थी। ब्रिटेन के सम्राट हेनरी चतुर्थ ने छोटी-छोटी डाक सेवाएँ आम जनता के लिए शुरू की थीं। भारत में सन् १६८८ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहली बार बंबई में डाकघर खोला। यह भारतीय डाक व्यवस्था से अलग था। धीरे-धीरे अंगरेजों ने भारतीय डाक व्यवस्था पर एकाधिकार कर लिया। १५ अगस्त, १९४७ तक भारत में २२ हजार ११६ डाकघर खुल गये थे। आजादी मिलने के बाद सरकार ने संसद में घोषणा की थी कि आगामी पच्चीस वर्षों में सभी गाँवों में डाकघर खोल दिए जाएँगे किंतु आजादी के पचास साल बाद भी भारत सरकार अपना वायदा न निभा सकी। अभी भी एक लाख स अधिक गाँवों में डाकघर नहीं हैं।

मित्रवर! ऐसा नहीं कि डाक विभाग ने इतने सालों में तरक्की न की हो। आज भारतीय डाक विभाग दुनिया का सबसे बड़ा संचार तंत्र है। डाकघर बचत बैंक, भारत का सबसे बड़ा बैंक है। डाक जीवन बीमा, महिला समृद्धि योजना, किसान विकास पत्र, इंदिरा विकास पत्र जैसी योजनाएँ लोकप्रिय हुई हैं। महानगरों के डाकघरों को कंप्यूटरीकृत करके उन्हें अत्याधुनिक बना दिया गया है। छह अंकों वाली पिनकोड प्रणाली, एक्सप्रेस मेल सर्विस, स्पीड पोस्ट, राजधानी चैनल, उपग्रह चैनल, कारपोरेट मनीऑर्डर सेवा, मैट्रो चैनल, ई-मेल सर्विस जैसी सेवाएँ महानगरों के डाकघरों में शुरू की जा चुकी हैं।

कापोरेट मनीऑर्डर से लाखों रुपये एकमुश्त एक शहर से दूसरे शहर में कुछ घंटों में वितरित कर दिये जाते हैं। उपग्रह चैनल तथा ई-मेल द्वारा मुद्रित प्रष्ठ या कंप्यूटर फ्लॉपी से कुछ ही मिनटों में पूरी फाइल या जरूरी कागज, समाचार, संदेश या किताब देश या विदेश के बड़े महानगरों में पहुँचायी जा सकती है। डाक विभाग पहले तीन दिन में चिट्ठी पाने वाले तक पहुँचाने का दावा करता था किंतु अब एक शहर की चिट्ठी उसी शहर के दूसरे मोहल्ले में पहुँचने में हफ्तों और कई बार महीनों लग जाते हैं।

बंधुवर! डाक विभाग की छवि खराब करने में विभाग के कर्मचारी भी कम दोषी नहीं हैं। किसी जरूरतमंद के लिए आये मनीऑर्डर की रकम खुद हड़प जाना, बीमाकृत पत्रों से रुपये उड़ा देना, पार्सलों से कीमती सामान निकाल लेना, रजिस्टर्ड पत्रों से चैक, ड्राफ्ट निकालकर हड़प कर जाना, अब आम बात हो गई है। सबसे ज्यादा खराब हालत तो गाँवों की है, जहाँ डाकघर नहीं हैं। वहाँ चिट्ठी पहुँचने के पुरसाहाल नहीं हैं। डाकघरविहीन गाँवों में डाकिया नहीं जाता। ‘लैटर बॉक्स’ महीनों बंद रहता है, महीने में दो-तीन बार डाक बँट गयी तो ठीक, वरना डाकियों की बला से।

बंधु मेरे, क्या कहूँ! एक समय था जब डाक बाबू की गाँव में प्रतिष्ठा थी, डाकिया, विश्वास का प्रतीक माना जाता था। गाँव की पंचायत में डाक बाबू की कही बात पत्थर की लकीर मानी जाती थी और अपनी ईमानदारी के लिए डाक विभाग की सर्वत्र धाक थी किंतु आज हालात बदल गये हैं। अब तो राम भरोसे विभाग चल रहा है। काका कह रहे थे कि केंद्र सरकार डाक अधिनियम १८३३ के आमूल-चूल परिवर्तन करने जा रही है। इसके लिए एक कमेटी बना दी गयी है। आखिर ड़ेढ़ सौ साल बाद किसी को पुराने कानून-नियमों को बदलने की सुधि तो आयी। शायद, तभी कुछ सुधार हो। भारी घाटे और सस्ती कीमत में सेवाएँ उपलब्ध कराने के कारण डाक विभाग को कोई निजी कंपनी लेने को तैयार नहीं है तो सरकार को इसकी ओर ध्यान देना ही पड़ेगा। वरना नैया डूबी तो फिर उबर नहीं पाएगी। अब बस !

थोड़ा लिखा, ज्यादा समझना। सबको राम-राम, सलाम, जयहिंद।
- आपका अपना डाक का लाल डिब्बा

३० जून २०१४

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