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साहित्यिक निबंध

जन्माष्टमी के अवसर पर

ब्रजभाषा के अल्पज्ञात कवि और कृष्ण
-डॉ. हर गुलाल गुप्त
 


कृष्ण ब्रजभाषा और साहित्य की अनुपम थाती है। पौराणिक महापुरुषों में कृष्ण का व्यक्त्वि अत्यधिक आकर्षक और प्रभावशाली है। उनका अलौकिक व्यक्तित्व किसी-न-किसी रूप में हमारा पथ प्रदर्शन करता रहेगा एवं अनंतकाल तक हमें उन्नत पथ की ओर बढ़ने को प्रोत्साहित करता रहेगा। कृष्ण का समग्र जीवन आर्य संस्कृति के लोक रक्षक रूप का उन्नयन करने में व्यतीत हुआ। दूसरी ओर उनका शारीरिक सौंदर्य भी असीम था। उन्होंने अपनी चपल, चंचल बाल क्रीड़ाओं से माता-पिता एवं गोप-गोपियों के हृदय को वशीभूत कर लिया और केवल इतना ही नहीं इस मोर मुकुटवाले ने हाथ में रंगभरी पिचकारी लेकर कुछ ऐसी मोहिनी डाली है जिसे आधुनिकता का कोई भी रंग-रोगन आज तक मिटा नहीं पाया है।

कृष्ण के व्यक्तित्व के लोक रक्षक और रंजक रूपों को कृष्ण भक्ति परंपरा के नये-पुराने और ज्ञात-अज्ञात सभी कवियों ने ग्रहण कर जहाँ एक ओर ब्रजभाषा को समृद्ध किया है, वहीं दूसरी ओर उसे देशव्यापी बना दिया है। डॉ. ग्रियर्सन ने इसे पश्चिमी हिंदी की मुख्य बोली स्वीकरते हुए उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा आदि प्रांतों के कुछ जिलों तक इसका आधिपत्य स्वीकारा है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने कन्नौजी को ब्रजभाषा में रखकर पीलीभीत से कानपुर तक अड़तीस हजार वर्ग मील के क्षेत्रफल में लगभग दो करोड़ लोगों के बोलचाल की भाषा को ब्रजभाषा से संचालित माना है। कुछ विद्वानों ने ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से ब्रजभाषा का सीधा संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और शौरसेनी प्राकृत से जोड़कर वैदिक संस्कृत का मूलाधार शूरसेन जनपद की समकालीन बोली को माना है। ब्रज प्रदेश के मध्य में मथुरा को रखकर कृष्ण के व्यक्तित्व की प्रसरणशीलता ने जीवन की मधुरिमा को ब्रजबुलि और वारकरी संप्रदाय के माध्यम से बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र एवं दक्षिण के एक विशाल भू-भाग तक पहुँचा दिया है। कुछ भी हो पिंगल और भारवा के प्रारूपों से गुजरते हुए बारहवीं से सोलहवीं शती में गौड़ीय और पुष्टि मार्गीय भक्तों की साधना में ब्रजभाषा का साहित्यिक रूप निरंतर पनपता रहा और आगामी दो सदियों में कन्नौजी के प्रभाव को समेटते हुए वह आधुनिक काल में भारतेंदु बाबू, जगन्नाथ दास रत्नाकर और अनूप शर्मा तक सम-सामयिकता के अनेक प्रारूपों से संपृक्त हो जाता है।

ब्रजभाषा और मुगलकाल-

ब्रजभाषा को सर्वाधिक योगदान वल्लभ, राधावल्लभ और गौड़ीय संप्रदाय का है। पद्यात्मक परिष्कृत भाषा के आद्य कवि सूरदास, परिष्कृत ब्रजभाषा गद्य के आद्य पुरस्कर्ता गोस्वामी गोकुलनाथ और हरिरायजी, आधुनिक खड़ी बोली गद्य तथा उसमें ब्रजभाषा पद्य के सफल आयोजक भारतेंदु बाबू आदि वल्लभ संप्रदाय से संबद्ध थे, रास के प्रवर्तक हित हरिवंश और भक्ति के उद्दाम वेग में खोने वाले चैतन्य महाप्रभु कृष्ण भक्ति साहित्य की अमूल्य निधि हैं। अभी तक वल्लभ संप्रदाय में ऐसे अल्पज्ञात कवि गुजरात, दक्षिण और पूर्व प्रांत में अनेक हैं जिन्होंने अहिंदी प्रांतों में रहते हुए ब्रजभाषा में लिखकर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है, इन पर विश्वविद्यालयों में अथवा स्वतंत्र रूप से शोध कार्य होना चाहिए। देखने में आता है कि जहाँ कहीं पुष्टि मार्गीय मंदिर और वैष्णव जन हैं, वहाँ सर्वत्र ब्रजभाषा का प्रचलन है। विश्व में अनेक स्थानों पर वल्लभ संप्रदाय के मंदिर और उसके अनुयायी पाये जाते हैं। काबुल और अफरीका तक में इसके अनुयायी हैं और वहाँ अष्टछाप के कवियों के पद्य एवं वार्ता साहित्य का अध्ययन होता हैं वृंदावन से बाहर ऐसे अनेक ब्रजभाषा के कवि हैं जिनके नाम ब्रज के कवियों के नाम पर हैं, ऐसे कवियों में श्रीभट, गदाधर, अली खान पठान, चरणदास, कृष्ण जीवन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

इन कवियों के अलावा ऐसे और भी बहुत से कवि हैं जिन्होंने कृष्ण के सौंदर्य और उनकी विविध लीलाओं का क्षेत्रीय प्रभाव के साथ ब्रजभाषा में वर्णन किया है। ऐसे कवियों में अग्रदास, अद्भुत दास, कृष्णदास घघरी, गोपालदास, कटहरिया, कान्हर दास, कृष्ण दास (जाडा), जदुनाथ दास, धर्म दास, गोविंद दास, मदन मोहन, व्यंकट आदि प्रसिद्ध हैं। अकबरी दरबार के मंत्री, सभासद और कवि जैसे- बीरबल, टोडरमल, तानसेन, रहीम, ताज आदि काफी प्रख्यात हैं। अकबर के समय में ब्रजभाषा साहित्य, संगीत और दर्शन की भाषा होने के साथ-साथ घर पर आमलोगों के बोलचाल की भाषा थी, भले ही दरबार की भाषा फारसी रही हो। भारवा यानी ब्रजभाषा का मान निरंतर बढ़ रहा था और भावी मुगलवंश के वंशजों में भाषा का माधुर्य दरबारों में भी सम्मानित होने लगा था। इस रूप में ब्रजभाषा जादू अकबर से औरंगजेब के बाद तक निरंतर बना रहा। अकबर ने हिंदू धर्म, शास्त्र और संस्कृति का अध्ययन अबु फजल फैजी के माध्यम से किया। औरंगजेब, उसके मंत्री और उसके पुत्र आजमशाह ने ब्रजभाषा के काव्य का किसी-न-किसी रूप में संरक्षण किया। औरंगजेब के शासनकाल में कवि कालीदास त्रिवेदी का नाम मिलता है जो संवत् १७४५ में गोलकुंडा की लड़ाई में औरंगजेब के साथ गये थे। औरंगजेब के मंत्री फाजिल अली शाह ने कवि सुखदेव मिश्र का संरक्षण किया और औरंगजेब के पुत्र आजमशाह ने ब्रजभाषा, ब्रजभाषा काव्य और कवियों का संरक्षण करने के साथ-साथ नेवाज कवि से कालीदास के ‘शकुंतला’ नाटक का भाषा में अनुवाद कराया। आजमशाह की आज्ञा से ही ‘बिहारी सतसई’ का ‘बिहारी आजमशाही’ नाम से संपादन हुआ।

ब्रजभाषा की मधुरिमा -

यूँ तो ब्रजभाषा के व्याकरण पर डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, ग्राउज, किशोरी दास वाजपेयी आदि ने काफी महत्वपूर्ण कार्य किया है, पर ब्रजभाषा व्याकरण पर सबसे पुराना काम फारसी में लखा मिरजा खाँ का ‘तुहफत-उल-हिंद’ अर्थात ‘भारत का उपहार’ नामक ग्रंथ है। आजमशाह ने ब्रजभाषा सीखने के लिए इस ग्रंथ का प्रणयन मिरजा खाँ से कराया, डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने इसका रचनाकाल सन् १६७५ ई. माना है। इस व्याकरण का प्रथम उल्लेख सन् १७४४ ई. में सर विलियम जोंस ने अपने लेख ‘ऑन दि म्यूजिकल मोड्स ऑव हिंदूज’ में किया है। उन दिनों उर्दू अपनी यात्रा प्रारंभ ही कर रही थी और ब्रजभाषा की मधुरिमा जन-जन के मुख से दरबारों तक पहुँच रही थी। कहते हैं ईरान के एक कवि ब्रज की गलियों में साधारण बालिका के मुख से ‘एरी माँ मग साँकरी तो काँकरी चुभत हैं’ सुनकर ईरानी की कोमलता का अभिमान त्यागकर अपने देश को लौट गये थे ऐसे समय में ब्रजभाषा सीखने के लिए दरबारों में ‘तुहफत-उल-हिंद’ नितांत उपयोगी ग्रंथ था एवं इंशा अल्ला खाँ से पहले ब्रजभाषा तथा वर्तमान हिंदी, ध्वनिशास्त्र, व्याकरण तथा शब्दार्थ शास्त्र का क्रमिक अध्ययन करने के लिए इसकी उपादेयता निर्विवाद सिद्ध है। निश्चय ही हिन्दी पाठक के लिए अज्ञात इस ग्रंथ का विश्लेषणपरक अध्ययन नितांत आवश्यक है और अपरिहार्य भी।

सोलहवीं शती के प्रारंभ में आचार्य वल्लभ के पट्ट शिष्य कवि दामोदर हरसानी का उल्लेख मिलता है। ये श्री रंगपट्टनम में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम थिरदास, माता का नाम यशोदा, जाति के क्षत्रिय और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। वाणिज्य के लिए इनके पिता वर्धा (उन दिनों वृद्ध नगर) आकर बस गए थे। ये महाप्रभु के शिष्य (सेवक) संवत् १५४८ में बने। महाप्रभु इन्हें प्यार से ‘दमला’ कहकर पुकारते थे। महाप्रभु ने अपने संप्रदाय का संपूर्ण रहस्य इन्हें समझा दिया था और महाप्रभु के पुत्र विट्ठल नाथ ने संप्रदाय का संपूर्ण रहस्य इन्हीं से जाना। गोस्वामी जी ने अपने ग्रंथ ‘शृंगार रस मंडन’ में इसे स्वीकारा है। कहते हैं संवत् १६०५ में इनसे सत्संग कर संप्रदाय की विशिष्ट रहस्य वार्ताओं का ज्ञान प्राप्त कर गोस्वामी जी को कृष्णदास द्वारा श्रीनाथ के मंदिर में प्रवेश की आज्ञा मिली थी। ये पुष्टि मार्ग के स्तंभ माने जाते हैं और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में सर्वप्रथम इन्हीं का उल्लेख हें इन्होंने अपने और अपने पिता के नाम से कुछ पद रचे हैं-

मुरलिका अधर धरे श्याम ठाढ़े ब्रज जुवती मोंह
सप्रसुरन तीन ग्राम गोवर्धन राई।
निरखि रूप अति अनूप छाके सुरनर विमान
वल्लभ पद किंकर ‘दामोदर- बलि जाई।।

तथा
घर घरनि कहो ‘थिरदास’ सुनि, समुझि समुझि
चित लाइये।
द्विजवर नरेन्द्र गिरिवर धरन, श्री विट्ठलेश पै
जाइये।।

संस्कृति का बीज-समन्वय -

इन्हीं की तरह एक अन्य कवि पद्यनाभदास गुमनामी के अँधेरे में खो गए हैं। आज के कवि सम्मेलनों की तरह ब्रजभाषा में पढ़ंतों का प्रचलन था। इस परंपरा के अंतर्गत दामोदर चौबे ‘उरदास’, किशोर, भोलाराम भंडारी, किशन लाल, मनिक लाल और खड्ग कवि प्रसिद्ध हैं। कवि उरदास ग्वाल कवि के समकालीन और शेष सभी कवि ग्वालजी के परवर्ती हैं। किशोर लालकिशन लाल और मनिक लाल ग्वाल की शिष्य मंडली में आते हैं और उरदास ग्वाल के अभिन्न मित्र माने गये हैं। खड्ग कवि तो नवनीतजी के संबंधी थे। एक बार उरदास और ग्वाल ने अपने छंदों में आराध्य के चरणों में क्रमशः स्वर्ण और रजत के नुपुरों का उल्लेख किया। दोनों अपने-अपने छंदों को श्रेष्ठ मान रहे थे और मंदिर के द्वार खुलने पर आराध्य के चरणों में स्वर्ण नुपुरों के आधार पर ग्वाल कवि ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली, पर काव्य के परिमाण और परिणाम की दृष्टि से ग्वाल उरदास से कहीं भारी पड़ते हैं। उरदास यजमानी करते और आलम की तरह एक रंगरेजन में परम अनुरक्त थे। कवि ने प्रेमिका के नयनों का जो उत्कट वर्णन किया है वह हर दृष्टि से दृष्टव्य है-
नैन नवला के नैंक निरखे निहाल ह्येत
हेरे रह जात मृग मीन लट भये हैं
कहें उरदास काम बानन की नोंकन पै
कहों यह रंग कवि कोटि रट गये हैं।

आधुनिक खड़ी बोली के युग में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव के कारण राजेश दयाल, राम नारायण अग्रवाल, शरण बिहारी गोस्वामी, महेन्द्र कुमार, सत्य प्रभृति ब्रजभाषा के कवियों को पढ़ने वालों की संख्या निरंतर घटती जा रही है और व्रजभाषा को चाहने वाले सभी लोगों को भय है कि रास मंडलियों ने सिनेमा की तर्ज पर सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अपने गीतों का जो नवीनी करण किया है वह एक ओर तो हमारी लोक संस्कृति को क्षरित करेगा, दूसरी ओर ब्रज की गौरवमयी सांस्कृतिक संपदा को पूर्णतया नष्ट कर देगा। आवश्यकता इस बात की है कि ब्रजभाषा साहितय के अल्पज्ञात कवियों पर अनुसंधान किया जाए, जिससे कि वे गुमनामी के अँधेरे में न खो जाएँ। डॉ. बासुदेव शरण अग्रवाल की शब्दावली में मथुरा मध्यदेश के पश्चिमाभिमुखी ललाट पर सुंदर तिलक है। पूर्व और पश्चिम के समन्वय का मंत्र मथुरा के भाल पर लिखा गया था। समन्वय ही मथुरा की संस्कृति का बीज है। उससे जो अंकुर पल्लवित हुए उनसे समस्त देश का हित हुआ। मथुरा के बहुविध इतिहास का अंतर्यामी सूत्र अनेक संस्कृतियों का मेल या समन्वय है जिसके द्वारा अनेक प्रकार की विविधता को स्वीकार करते हुए जनता ने उसके भीतर से पारस्परिक प्रेम, सम्मिलन और एकता को प्राप्त किया।

१८ अगस्त २०१४

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