बुद्ध
पूर्णिमा के अवसर पर
गौतम बुद्ध- क्रांतदर्शी प्रवृत्तियाँ
-रामचंद्र सरोज
ईसा
पूर्व छठी शताब्दी तथा उसके आसपास का समय भारतीय
इतिहास का ऐसा काल-खंड है जिसमें राजनीति, धर्म, दर्शन
तथा समाज के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए और चिंतन
की नयी दिशाओं का अनावरण हुआ।
धर्म और
अध्यात्म के क्षेत्र में जिन धर्मों ने तत्कालीन जन-समाज को
बृहत्तर रूप में प्रभावित किया वे निम्न हैं-
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दास-पुत्र (शुद्र) मक्खलि गोशाल तथा उनके अनुयायिओं द्वारा
विकसित ‘आजीविक धर्म’। इसे ‘आजीवक’ तथा पाणिनी के अनुसार
‘दैष्टिक धर्म’ भी कहा गया है।
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-प्रागैतिहासिक ऋषभदेव से प्रारंभ होकर पार्श्वनाथ आदि
अनेक तीर्थंकरों द्वारा विकसित जैन धर्म का वर्धमान महावीर
द्वारा नव्यतम संस्कार।
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-तथागत
गौतक बुद्ध द्वारा प्रवर्तित बौद्धधर्म।
बुद्धपूर्णिमा तथा बुद्धत्व की प्राप्ति
बुद्ध पूर्णिमा को राजकुमार सिद्धार्थ को बुद्धत्तव की
प्राप्ति हुई। गया में, निरंतर सात दिनों तक अश्वत्थ (पीपल) के
नीचे समाधिस्थ रहने के बाद, आठवें दिन बैसाख की पूर्णिमा को
उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसे ‘संबोधि’ कहते हैं। इसलिए गया
को ‘बोधि गया’ तथा अश्वस्थ वृक्ष को ‘बोधि वृक्ष’ कहा जाता है।
इस बुद्धत्व की प्राप्ति के पूर्व उनके जीवन एवं तपस्या की
प्रारंभिक कड़ियाँ लुम्बिनी, कपिलवस्तु एवं उरूबेला से जुड़ी हुई
हैं।
कौशल राज्य के अधीनस्थ कपिलवस्तु राज्य के निर्वाचित शाक्यगण
मुख्य शुद्धोधन की पत्नी महामाया का मातृकुल का नगर देवदह था।
प्रसव के पूर्व वहाँ जाते समय, लुम्बिनी के शाल वन में, उन्हें
प्रसव-पीड़ा हुई और वहीं एक शाल वृक्ष के नीचे शिशु सिद्धार्थ
का जन्म हुआ। अशोक का प्रस्तर-स्तंभ अब भी वहाँ है, जिस पर
‘हिद बुधे जाते साक्य मुनीत’ अर्थात यहाँ शाक्यमुनि बुद्ध का
जन्म हुआ-अंकित है। ‘मज्झिम-निकाय’ के अनुसार जन्म के एक
सप्ताह बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया और उनका लालन-पालन
उनकी मौसी, जो शुद्धोधन की दूसरी पत्नी बनी- के द्वारा हुआ।
डॉ. उमेश मिश्र के अनुसार जन्म की तिथि ५६३ ई.पू. की
वैशाखी-पूर्णिमा है।
महाभिनिष्क्रमण
अनेक शास्त्रों के अध्ययन एवं शास्त्रों में निपुणता प्राप्त
कर लेने के बाद, ‘प्रब्रज्या ग्रहण करने के भय से’ उनका विवाह,
केवल सोलह वर्ष की अल्पायु में, शाक्यवंश की ही राजकुमारी
यशोधरा से कर दिया गया। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल रखा
गया। ‘ललित-विस्तार’ के अनुसार देवदूतों द्वारा क्रमशः
व्याधिग्रस्त व्यक्ति, जर्जर शरीर वाला वृद्ध, शव लेकर जाते
हुए लोग तथा काषायवस्त्रधारी साधु को देखकर, उनका महानिष्क्रमण
हुआ। उन्तीस वर्ष की अवस्था में, उन्होंने रात्रि में, अपने
परिवार का त्याग किया। इसके उपरांत उन्होंने अनेक स्थानों में
भ्रमण किया। अनेक सन्यासियों से, अनेक प्रकार से ज्ञान प्राप्त
करने का प्रयास किया, किंतु न तो उन्हें मानव की समस्याओं का
कोई उत्तर प्राप्त हुआ और न उन्हें संतुष्टि ही हुई। मगध जनपद
के ‘उरुबेला’ में निरंजना नदी के तट पर, लगभग छह वर्षों तक,
कठिन तपस्या की। शारीरिक यंत्रणा के इस दौर में वह अत्यंत
जीर्ण एवं अशक्त हो गये। अन्य-त्याग के साथ श्वास क्रिया को भी
अवरोधित किया और मृत्यु के निकट पहुँच गये। इतना सब कुछ होने
पर भी उन्हें ज्ञान की प्राप्ति में सफलता नहीं मिली।
संबोधि तथा धर्म-चक्र प्रवर्तन
उन्होंने तपस्या से विराम लिया। उरुबेला में ही सुजाता द्वारा
प्रस्तुत भोजन को स्वीकार किया। उनके साथ के अन्य तपस्वी
उन्हें पथ-भ्रष्ट समझकर उनका साथ छोड़कर चले गये। सिद्धार्थ
ऋषिपत्तन होते हुए गया पहुँचे और यहीं, जैसा कि कहा जा चुका
है, ‘संबोधि’ की प्राप्ति हुई। बोधि गया में बर्मा, चीन,
जापान, तिब्बत तथा थाइलैंड की विशिष्ट शैलियों वाले बौद्ध
मंदिर हैं। महाबोधि मंदिर में बुद्ध की स्वर्ण मंडित प्रतिमा
है, जो बौद्धों के आकर्षण का केंद्र है।
‘संबोधि’ के बाद उन्होंने निरंजना नदी में स्नान किया।
सर्वप्रथम उन्होंने शूद्रवर्गीय तपस्यु तथा भल्लि को उपदेश
देकर दीक्षित किया। इन अनुयायियों के साथ काशी के ऋषिपत्तन
(सारनाथ) में उन्होंने, उन पाँच तपस्वियों को भी दीक्षा दी, जो
उनका साथ छोड़कर चले गये थे। बौद्ध साहित्य में इस प्रसंग को
‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ के नाम से स्मरण किया जाता है। ‘संयुक्त
निकाय’ में ‘धर्मचक्र-प्रवर्तन’ अर्थात तथागत बुद्ध के प्रथम
उपदेश का तात्पर्य इस प्रकार है-
उनका भ्रमण जारी रहा। सामान्य जनता के अतिरिक्त अनेक
राजा-सम्राट भी उनके धर्म में दीक्षित हुए। वह अपने पिता के
राज्य कपिलवस्तु पहुँचे। उन्होंने अपनी मौसी गौतमी, पत्नी
यशोधरा, पुत्र राहुल तथा नवविवाहिता पत्नी सुंदरी के प्रेम में
आसक्त अपने चचेरे भाई नंद को दीक्षित किया। नंद के संदर्भ में
यह कहा जाता है कि बलात उसका सिर मुंडित कर उसे दीक्षित किया
गया। उसकी पत्नी प्रतीक्षारत रही। वह फिर लौटकर नहीं जा पाया।
अश्वघोष ने उस प्रसंग को अपने ‘सौदरनंद’ काव्य का विषय बनाया
है। मोहन राकेश ने इसी प्रसंग को लेकर ‘लहरों के राजहंस’ नामक
नाटक की रचना की।
वैशाली की गणिका आम्रपाली तथा श्रावस्ती के दुर्दात दस्यु
अँगुलिमाल को दीक्षित कर, उन्होंने अपने व्यक्तित्व के दिव्य
प्रभावलय का परिचय दिया। भिक्षु संघ, भिक्षुणी संघ, तथा
संघाराम की स्थापना तथा अनेकशः व्यक्तियों के दीक्षित होने के
साथ, उन्हें विरोध का भी सामना करना पड़ा। उनके चचेरे भाई
देवदत्त का विरोध इतना प्रबल था कि बौद्ध धर्म में दीक्षित
होकर भी, उसने भगवान बुद्ध की हत्या के लिए तीन बार प्रयास
किया, किंतु हर बार असफल रहा। दरअसल, वह बुद्ध का स्थान लेना
चाहता था।
जातिरहित बौद्ध संघ
बुद्ध के प्रधान शिष्यों में सारिपुत्र (ब्राह्मण), आनंद
(बुद्ध के चचेरे भाई), मौद्गल्यायन (चिंतक तथा विद्वान), उपालि
(नापित), सुनीति (भंगी,) बिम्बिसार (मगध के शासक), अजातशत्रु
(बिम्बिसार के पुत्र), जीवक (प्रसिद्ध वैद्य) तथा प्रसेनजित
(कोसल के राजा) आदि का नाम आता है। शिष्याओं में गौतमी (मौसी),
यशोधरा (पत्नी), नंदा (गौतमी की पुत्री), खेमा (बिम्बिसार की
पत्नी), आम्रपाली (वैशाली की गणिका) तथा विशाखा (अंग जनपद की
श्रेष्ठिपुत्री) के नाम प्रसिद्ध हैं।
महाप्रयाण
बुद्ध का देहावसान अस्सी वर्ष की अवस्था में हुआ (असीतिको में
वयो वत्तति-महानिब्बाण सुत्त)। जब वह वैशाली में थे, तभी
बेलग्राम में अस्वस्थ हो गये। मल्लों के शालवन में भिक्षुकों
को अंतिम उपदेश देकर प्राण त्याग किया। यह तिथि ४८३ ई.पू. की
वैशाख की पूर्णिमा थी।
क्रांतदर्शी धर्मों की भूमिका
बुद्ध के समकालीन, आजीवक धर्म के प्रवर्तक मक्खलि गोशाल,
वर्धमान महावीर के मित्र तथा नालंदा में छह वर्ष तक उनके
सहपाठी थे। उनके पिता गोशाले में नियुक्त थे और वहीं उनका जन्म
हुआ। तथागत गौतम बुद्ध की मृत्यु के एक वर्ष बाद संभवतः ४८४
ई.पू. में उनकी मृत्यु हुई। मक्खलि गोशाल निम्न जाति के थे और
प्रवज्या ग्रहण किया था। उनके सिद्धांतों का प्रचार पश्चिम
सौराष्ट्र से लेकर अंग देश तक था। अशोक तथा मौर्य सम्राट दशरथ
आदि ने आजीविकों के लिए गुफाओं का निर्माण कराया था। कालांतर
में जिस प्रकार बौद्ध धर्म भारत से तिरोहित हो गया, उसी प्रकार
आजीविक धर्म भी दक्षिण के कुछ स्थानों तक ही सिमट कर रह गया।
बुद्ध की मूर्तियों के संबंध में
तथागत के निर्वाण के बाद, लगभग छह सौ वर्षों तक उनकी मूर्तियाँ
नहीं बनीं। बाद में मूर्तियाँ बनाने की प्रथा चल पड़ी।
१२ मई २०१४ |