शरदऋतु वस्तुतः पर्वों की ऋतु
-सुप्रिया
भारतवर्ष में वर्षा, शरद, शिशिर, हेमन्त, बसन्त और
ग्रीष्म ये छह ऋतुएँ प्रकृति में मनोरम और मनोहर
लावण्य भर जाती हैं। इन सबसे आनंदित और उल्लसित मानव
अपनी भावनाओं को कभी काव्य साहित्य में तो कभी नृत्य
संगीत के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। अपनी
लोक-संस्कृति को जीवन्त रखते हुए वह आमोद-प्रमोद के
साथ इन ऋतुओं का अभिनन्दन करता है। शरद ऋतु की मधुरम,
सुहावनी और गुलाबी रंगत को देखकर ही 'रामायण' में आदि
कवि वाल्मीकि ने राम के द्वारा शरद के सौन्दर्य का
वर्णन कराया है। 'नभ मेघमुक्त होकर निर्मल हो गया है,
वेगवती वायु शान्त है, क्रौंच पक्षी का स्वर गूँजने
लगा है, पके धान के खेतों द्वारा शरद ऋतु एक
तृप्तिदायक शोभा दे रही है।' सीता-विछोह में राम के
दुख को ये दृश्य और अधिक बढ़ा देते हैं।
कालिदास ने
भी ऋतुसंहार में शरद ऋतु का वर्णन बड़े मोहक ढंग से किया है:
'फूले हुए काँस के वस्त्र पहने, मस्त हंसों के स्वर के विछुए
पहने, पके हुए धान से मनोहर शरीर वाली और खिले हुए कमल के समान
सुन्दर सुखवाली शरद ऋतु नववधू की तरह आ गई है। बाँस की झाड़ियों
ने वसुंधरा को, चंद्रमा ने रात्रि को, हंसों ने नदियों के जल
को, कमलों ने तालाबों को, पुष्पों से आच्छादित वृक्षों ने जंगल
को और मालती के फूलों ने वाटिकाओं को उज्जवल और धवल बना दिया
है।'
शरद ऋतु में खिलने वाले फूल हरसिंगार, बंधूक, कमल आदि पुष्पों
का, सारस, हंस मछली जैसे जीव-जन्तुओं का वर्णन 'ऋतुसंहार' में
बहुत सुन्दरता से हुआ है। रघुवंश में कालिदास ने इसी शरद ऋतु
को उस समय के सामाजिक जीवन से जोड़ते हुए कहा है, 'यह ऋतु
दिग्विजयी यात्रा के लिए विशेष उपयुक्त है, क्योंकि नदियों में
पानी कम हो जाने से और मार्ग में कीचड़ सूख जाने से यातायात में
सरलता हो जाती है।' इसलिए संभवतः इस ऋतु में सबसे अधिक पर्व,
उत्सव, मेलों का आयोजन होता है।
वर्षों के बाद शरद ऋतु आई, साथ में उल्लास और उमंग भी ले आई।
तुलसीदास जी भी 'रामचरितमानस' में शरद के उज्जवल रूप को देखकर
उसके वर्णन का लोभ संवरण नहीं कर सके। उन्होंने भी राम के मुख
से कहलाया है-'बरखा विगत शरद रितु आई, लछिमन देखहु परम
सुहाई/फूले कास सकल महिछाई, जनु बरषा कृत प्रकट बुढ़ाई।।
इस ऋतु के आगमन का आभास पाकर खंजन पक्षी आ गए-'जानि सरद रितु
खंजन आए...।' अब देखिए न! जहाँ मेघयुक्त आकाश हो, नदी-नालों का
स्वच्छ जल हो, वन उपवन में विभिन्न जाति के पक्षियों का कलरव
हो, वाटिकाओं में फूलों के खिलने और भौरों के गुंजार करने का
मधुबन हो, खेतों में फसल तैयार हो, समूची प्रकृति वर्षा के जल
से नहाकर सजी-सँवरी उत्सव मनाने को तैयार खड़े प्राणियों का मन
मोह रही हो वहाँ कौन हाथ पर हाथ धरे चुप बैठा रह सकता है।
प्रकृति का ऐसा आनन्दमयी रूप भारत जैसे उत्सवप्रिय देश के
निवासियों में नवगति की नवस्फूर्ति का संचार कर देता है। यूँ
तो सभी ऋतुओं के अपने पर्व-त्यौहार हैं, किंतु शरद में मनाये
जाने वाले पर्वों, मेलों की बात ही निराली है।
शरदोत्सव का अभिनन्दन दुर्गा-पूजा या नवरात्र से होता है, जो
संपूर्ण भारत में बड़े हर्षोल्लास के साथ धूमधाम से मनाया जाता
है। बंगाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन के प्रांगण
में शरदोत्सव को बड़े हर्षोल्लास से मनाने की परंपरा डाली थी।
अभी तक वहाँ शरदोत्सव सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ व्यापक
रूप से मनाया जाता है।
भारतीयों का विश्वास है कि शरद के इन नवरात्रों में साक्षात
देवी दुर्गा धरती पर अवतरित होती है, जो सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण
करती है, अतः पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तरी भारत के लगभग सभी
प्रांतों में विशेषतः इनकी उपासना होती है। बंगाल में नौ दिनों
तक दुर्गा के नवरूपों की झाँकी प्रतिदिन एक-एक करके दिखाई जाती
है। रंग-बिरंगे नये परिधानों-आभूषणों से अलंकृत
स्त्री-पुरुषों, बच्चों-बूढ़ों में इस पर्व के प्रति इतनी आस्था
होती है कि प्रायः प्रत्येक व्यक्ति इन दिनों विधि-विधानों के
अनुसार देवी दुर्गा की आराधना करता है। कथा, व्रत, संगीत का
आयोजन प्रत्येक परिवार में होता है, जिसे सब सगे-संबंधी,
मित्र, बंधु परस्पर सौहार्दपूर्वक सम्पन्न करते हैं। इन्हीं
दिनों बंगाली परिवारों में शादी-विवाह, मुण्डन आदि के संस्कार
शुभ और मंगलकारी माने जाते हैं। घरों-मंदिरों में प्रतिदिन
अल्पना-रंगोली का बनाया जाना स्त्रियों की कला की अभिरुचि को
प्रकट करता है। भारत के मध्य प्रांतों में इस पर्व का श्रीगणेश
महालया आमावस्या के बाद प्रथमा के दिन, कलश रखकर किया जाता है।
नौ दिन तक द्वार को तोरण और देहरी को रंगोली से सजाया जाता है।
गुजरात तथा महाराष्ट्र में भी देवी-अर्चना की यही परंपरा है।
गुजरात में इस अवसर पर रात्रि को देवी की मूर्ति बीच में रखकर
रंग-विरंगे कपड़े पहने स्त्रियाँ गोल घेरे में 'गर्बा' नामक
नृत्य करती हैं ऐसा विश्वास है कि नवरात्र में नौ दिनों में
देवी प्रथम तीन दिन दुर्गा, मध्य के तीन दिन लक्ष्मी तथा अंतिम
तीन दिन सरस्वती के रूप में प्रकट होती हैं। इसीलिए प्रथम तीन
दिन शक्ति के रूप में, मध्य के तीन दिन ऐश्वर्य तथा अंतिम तीन
दिन कला के रूप में देवी की आराधना होती है। इन दिनों बहुत से
व्यक्ति व्रत भी रखते हैं, जो सात्विक गुणों के विकास और
मानसिक संतुलन और संयम में सहायक माना जाता है।
दशहरा, दीपावली, लक्ष्मी-पूजा, करवा-चौथ, अहोई, भाई दूज जैसे न
जाने कितने त्यौहारों से शरद ऋतु का एक-एक दिन सजा हुआ है। शरद
पूर्णिमा को पूरे भारत में एक निराला-उल्लास दिखाई देता है।
बंगाली इस दिन लक्ष्मी-पूजा करते हैं। व्रत-अनुष्ठान के बाद
रात्रि को सहभोज के समय रवीन्द्र संगीत का आयोजन होता है। शरद
पूर्णिमा में चंद्र-किरणों में रखे चिवड़ा-दूध की खीर उत्तर
भारत में अगले दिन पूजा के बाद प्रसाद रूप में खाने की परंपरा
है। भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी, भाई-बहन, माँ-बेटे के
संबंधों में और अधिक प्रगाढ़ता लाने में ये पर्व प्रतिवर्ष अपनी
विशेष भूमिका अदा करते हैं। पति की चिरायु की मंगल-कामना का
पर्व करवा चौथ उत्तर भारत में स्त्रियों के द्वारा व्रत और
कथा-पूजा करके संपन्न किया जाता है। अखण्ड सौभाग्य को प्राप्त
करने के लिए अपने घर के बड़े-बूढ़ों की सेवा, आदर-सम्मान करना
पारिवारिक सुख-शांति और सुव्यवस्था में सहायक होता है। अहोई
देवी की उपासना व व्रत बेटों के कल्याण के लिए माताओं द्वारा
किया जाता है तो भाई दूज का पर्व संपूर्ण भारत में बहन द्वारा
भाई को मंगल-तिलक लगाकर संपन्न होता है।
भारत के गाँवों-कस्बों में शरद ऋतु के पर्वों की ऊष्मा सबके
हृदयों में सुगबुगाहट और उत्साह भर देती है। महानगरों में
शरदोत्सव मनाने की परंपरा अब राष्ट्रीय पहचान बन गई है।
स्थान-स्थान पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित सांस्कृतिक
कार्यक्रम वहाँ के रहने वालों के हृदय में उमंग, उत्साह भर
देते हैं। दिल्ली में इन दिनों राजमार्गों, क्लबों, होटलों,
अकादमियों में कलाकार, नर्तक, संगीतज्ञ विशेष उल्लास लिए दिखाई
देते हैं।
पर्वों की लड़ी शरद ऋतु को व्यापक रूप से मनाये जाने की परंपरा
उत्तर प्रदेश में पहाड़ों की रानी मंसूरी में पिछले पचास वर्षों
से भी अधिक समय से आज तक विद्यमान है। वहाँ 'शरदोत्सव' पर्व पर
विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन सरकारी और गैर सरकारी
संस्थानों द्वारा किया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस
उत्सव में शास्त्रीय नृत्य, लोक नृत्य, संगीत, काव्य
प्रतियोगिता, फैन्सी ड्रेस, खेलकूद प्रतियोगिता आदि के विभिन्न
कार्यक्रम आयोजित होते हैं। आगरा में शरद पूर्णिमा के अवसर पर
ताजमहल के प्रांगण में शरदोत्सव मनाया जाता है।
शरद ऋतु वस्तुतः पर्वों की ऋतु है। यहाँ की पर्व-संस्कृति में
पले-बढ़े भारतीय लोग विदेशों में जाकर भी अपनी संस्कृति को नहीं
भूले हैं। अमरीका जैसे देश में भी वे अपने इन पर्वों को मनाने
की परंपरा बनाए हुए हैं। वहाँ के भारतीय शरद ऋतु से बहुत समय
पूर्व ही इन पर्वों को मनाने की तैयारियाँ आरंभ कर देते हैं।
वातानुकूलित भवनों में रहते हुए यद्यपि उन्हें कभी निर्मल
आकाश, वर्षा से धुली वनस्पति, शरद पूर्णिमा का प्रखर उज्जवल
चन्द्रमा, खेतों में पकी धान की फसल को निहारने का अवसर अपने
व्यस्त जीवन में शायद ही मिल पाता हो, जिससे वे शरद ऋतु का सहज
आभास पा लें। किंतु ज्योतिष विद्या के द्वारा गणना करके वे भी
मालूम कर लेते हैं कि अमुक पर्व कब है? वहाँ की चकाचौंध वाली
दुनिया में भारत की अपनी इन परंपराओं का निर्वाह करना वस्तुतः
भारतीय संस्कृति की गरिमा-महिमा है।
२१
अक्तूबर २०१३ |