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१२ जुलाई पुण्यतिथि के
अवसर पर
शमशेर की कविताई
-शैलेन्द्र चौहान
शमशेर प्रयोगशील लेकिन प्रगतिशील कवि हैं। वे मार्क्स
के द्वंदात्मक भौतिकवाद से प्रभावित हैं पर अनुभवों
में वे रूमानी एवं व्यक्तिवादी जान पड़ते हैं। उनकी
काव्यदृष्टि सुदीर्घ एवं बहुआयामी है, किंतु उनमें एक
तरह का अंतर्द्वंद्व विद्यमान है, इसीलिए उनका काव्य
जगत बहुत ही अमुखर तथा शांत है। सूरज पालीवाल ने इस
सम्बन्ध में संगत बात कही है - 'शमशेर में वस्तुतः
रोमांटिक विदग्धता के सूत्र जब तक हमारे हाथ में नहीं
आते, कवि की काव्यानुभूति तक किसी भी स्थिति में हमारी
पहुँच संभव नही।' "शमशेर की पहचान कवि रूप में है और
कवि भी सामान्य नहीं, दुरूह कवि, जिसे उनकी कविताओं
में आए शब्दों से नहीं, शब्दों के पीछे कवि की संवेदना
और उसके गहरे जीवनानुभवों की अनुभूति के साथ ही समझा
जा सकता है।'
शमशेर की रचनात्मकता का लक्ष्य है - अपने आपको देख
पाना। उनकी 'बात -बोलेगी' कविता इस तथ्य का उदाहरण है
-
बात बोलेगी
हम नहीं
भेद खोलेगी
बात ही।
सत्य का
क्या रंग
पूछो, एक रंग
एक जनता का दुःख एक
हवा में उड़ती पताकायें अनेक
दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि : मजदूर घर भर
एक जनता का अमर वर :
एकता का स्वर
अन्यथा स्वातंत्र इति।
कला विषेशकर कविता की कला, कलाकार को, कवि को नितांत
व्यक्तिगत, निजी मानवीय स्थितियों और संवेगों से
परिचित कराती है। फिर भी कविता एकालाप नहीं अत्यंत
अंतरंग किन्तु सक्रिय संवाद है। शमशेर का निज उन्हें
एकाकी नहीं बनाता। कविता के निजी पलों में कवि के साथ
सम्पूर्ण संसार भी श्वांस लेने लगता है और इसी से
हरियाती है शमशेर की कविताई। उनके पास कवि की आँखें,
शिल्प का विवेक, मनुष्य होने की प्रतिबद्धता तथा
रचनाकार के स्पष्ट सिद्धांत भी हैं- ’एक अच्छे कवि के
लिए यह ज़रूरी है कि वह अपने देश की और भाषा की काव्य
परम्परा से अच्छी तरह परिचित हो और इस परम्परा में
आनेवाले श्रेष्ठ कवियों का उसने बार-बार और अध्ययन
किया हो। ’(शमशेर: कुछ और गद्य रचनाएँ)
युवाकाल में शमशेर वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशील
साहित्य से प्रभावित हुए। उन्होंने स्वाधीनता और
क्रांति को अपने निज में आत्मसात कर लिया था।
इंद्रिय-सौंदर्य के सबसे संवेदनापूर्ण चित्र देकर भी
वे अज्ञेय की तरह सौंदर्यवादी नहीं हैं। उनमें एक ऐसा
कड़ियलपन है जो उनकी विनम्रता को ढुलमुल नहीं बनने
देता, साथ ही किसी एक चौखटे में बंधने भी नहीं देता।
वे खुद मानते हैं कि इलियट-एजरा पाउंड-उर्दू दरबारी
कविता का रुग्ण प्रभाव उनपर है, लेकिन उनका स्वस्थ
सौंदर्यबोध इस प्रभाव से ग्रस्त नहीं है। वे सौंदर्य
के अनूठे चित्रों से स्त्रष्टा के रूप में हिंदी में
सर्वमान्य हैं -
मोटी धुली लॉन की दूब,
साफ मखमल-सी कालीन।
ठंडी धुली सुनहली धूप।
बादलों के मौन गेरू-पंख, संन्यासी,
खुले हैं/ श्याम पथ पर/ स्थिर हुए-से, चल।
आश्चर्य नहीं कि शमशेर के मौलिक कवित्व ने ‘अपने स्वंय
के शिल्प’ का निर्माण किया है। उनकी कविताई व्यक्तित्व
विकास से जुड़ी हुई है उनकी कविता में भाव, शिल्प,
भाषा, बौद्धिकता का अनुपम संयोग है, जीवन के
सुलझे-अनसुलझे, कहे-अनकहे पहलुओं से कोई परहेज नहीं।
वहाँ सारा का सारा आवश्यक है, चुपचाप ही सही, ज़रूरी
है। शमशेर के शिल्प की विशेषता को बारीकी से रेखांकित
करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा -’अपने स्वयं के शिल्प का
विकास केवल वही कवि कर सकता है, जिसके पास अपने निज का
कोई मौलिक विशेष हो, जो यह चाहता हो कि उसकी
अभिव्यक्ति उसी के मनस्तत्वों के आकार की, उन्हीं
मनस्तत्वों के रंग की, उन्हीं के स्पर्श और गंध की
हो।’ (शमशेर: मेरी दृष्टि में)
शमशेर सन् १९४५ में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने।
उनकी कविताओं में मार्क्सवादी आग्रहों को लेकर अटकलें
भी लगाई जाती रहीं हैं। जबकि सच्चाई यह है कि शमशेर
मानव-जीवन के सत्य, सुख-दुख, सौंदर्य-प्रेम से जुड़े
कवि हैं और निरन्तर कष्टसाध्य सृजन उनका कर्म है। उनकी
कविताई ‘ह्यूमैनाइजिंग इफेक्ट’ से भरपूर है।
(मुक्तिबोध)
विजयदेव नारायण शाही ने शमशेर की काव्य -कला का
विश्लेषण करते हुए लिखा है -" तात्विक दृष्टि से शमशेर
की काव्यनुभूति सौन्दर्य की ही अनुभूति है। शमशेर की
प्रवृति सदा ही वस्तुपरकता को उसके शुद्ध और मार्मिक
रूप में ग्रहण करने में रही है। वे वस्तुपरकता का
आत्म-परकता में और आत्म-परकता का वस्तुपरकता में
अविष्कार करने वाले कवि हैं। जिनकी काव्यानुभूति बिम्ब
की नहीं बिम्बलोक की है।" वह शमशेर को विचारधारा के
प्रचारात्मक प्रभाव से इतर मानते हैं-’आरंभ में जिसे
शमशेर मार्क्सवाद कहते थे उसके लिए दस वर्ष बाद कुछ
अधिक ढीली शब्दावली ‘समाज सत्य’ या उससे भी अधिक ढीली
शब्दावली ‘समाज सत्य का मर्म’, ‘इतिहास की धड़कन’ आदि
का प्रयोग करते हैं। यह हाशिए की लिखावट को सूक्ष्म या
धुँधला बनाने की कोशिश है। वस्तुत: शमशेर ने
मार्क्सवादी दर्शन को पूर्णत: आत्मसात कर लिया था
इसीलिए उनमें अपने को मार्क्सवादी कहलाने का
प्रचारात्मक आग्रह नहीं पाया जाता।’ शमशेर की कविता
मूल्यों, जनपक्षधरता तथा संघर्ष की बातें करती है-
‘एक – जनता का
दु:ख : एक।
हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।
दैन्य दानव। क्रूर
कंगाल बुद्धि : मजूर घर-भर।
एक जनता का – अमर वर
एक का स्वर
-अन्यथा स्वातंत्र्य-इति (बात बोलेगी)
शमशेर के ‘दूसरा सप्तक’ की कविताएँ, ‘उदिता’, ‘कुछ
कविताएँ’, ‘कुछ और कविताएँ’, ‘चुका भी नहीं हूँ
मैं’,'इतने पास अपने’,'काल तुझसे होड़ है मेरी’ जैसे
काव्य-संग्रह हैं। उनके काव्य के प्रथम चरण में एक ओर
छायावाद का प्रभाव और दूसरी ओर छायावाद से हटकर नए
भाव, विषयों और शिल्प के निर्माण की कोशिश दिखाई देती
है। आगे वामपंथ में पूरी आस्था के साथ उन्होंने
सृजनकर्म के प्रति गहरे सरोकारों को व्यक्त किया। इसके
बाद के चरण में शमशेर की काव्य कला का सर्वोत्तम रूप
दिखता है जहाँ उनकी गहरी दृष्टि, समृद्ध भाव-बोध,
प्रखर संवेदनशीलता, शिल्प एवं भाषा सौंदर्य स्वत:
आकर्षित कर लेते है। इसी काल में लिखी कविता ‘अमन का
राग’ बकौल मुक्तिबोध ‘क्लासिकल ऊँचाई’ की कविता है-
‘सब संस्कृतियाँ मेरे सरगम में विभोर हैं
क्योंकि मैं हृदय की सच्ची सुख-शांति का राग हूँ।
बहुत आदिम, बहुत अभिनव। ’
शमशेर की सबसे बड़ी खूबी उनकी ग्रहण शक्ति है जो सभी
प्रभावों, प्रक्रियाओं को हजम कर उसे पुनर्सृजित कर
अभिनव रूप में कविता के माध्यम से सामने लाती है। उनकी
कविताई में छायावादी काव्य-परम्परा की झलक है तो उर्दू
शायरी, हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी साहित्य का गंभीर
अध्ययन, समकालीन भाषा के साथ ही साथ यूरोपीय परम्परा
का ज्ञान भी परिलक्षित होता है। उन्होंने अपने कई
पसंदीदा रचनाकारों से भी प्रभाव ग्रहण किया जिनमें
कबीर, शेक्सपियर, मीर, गालिब, नज़ीर, फ़ानी, इकबाल,
निराला का नाम प्रमुख है। निराला को महत्वपूर्ण मानने
के कारणों को रेखांकित करते हुए शमशेर कहते हैं- ’एक
बड़े कवि में जिस गुण को मैं महत्व देता हूँ वह है एक
आंतरिक फोर्स, एक तरह का फोर्स, ऊर्जा, जो कि निराला
में है, फोर्स। और एक सेल्फ कानफीडेन्स जो उनकी कविता
में बोलता है।’
शमशेर की कविताएँ यथार्थ के धरातल पर मनोभावों के
तारों से बुनी गई हैं जिनकी मनोवैज्ञानिकता उन्हें
कहीं अधिक गहन, संश्लिष्ट बना देती है। कई बार दुरूह
भी। उनकी कविताएँ सहज कथन मात्र न होकर तीव्र
प्रतिक्रियाएँ हैं। जीने, सोचने और लड़ने को मजबूर
करती हुईं। शमशेर बहादुर उन कवियों में रहे जो लगातार
अपनी कविता के प्रति सजग और समर्पित रहे। राजनीति की
दृष्टि से बहुत ज्यादा सक्रिय तो वह नहीं रहे और उनकी
कविता में निहित मूल्य-दृष्टि में, और उनकी घोषित
राजनीति में, राजनीतिक दृष्टि में, लगातार एक विरोध भी
रहा और अभी तक है। वह प्रगतिवादी आंदोलन के साथ रहे
लेकिन उनके सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले कभी
नहीं रहे। उन सिद्धांतों में उनका पूरा विश्वास भी कभी
नहीं रहा। उन्होंने मान लिया कि हम इस आंदोलन के साथ
हैं, और स्वयं उनकी कविता है, उसका जो बुनियादी संवेदन
है, वह लगातार उसके बाहर और उसके विरूद्ध भी जाता रहा
और अब भी है।
उपधारा के रूप में तो नहीं कह सकता क्योंकि वह शायद
एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, उनके जीवन का, उनके कवि का,
विकास इस तरह से हुआ। पहले वह चित्रकार थे या उन्होंने
दीक्षा चित्रकर्म में ली। उसमें भी लगातार उनकी
दृष्टि, बिंबवादी दृष्टि रही और काव्य में भी उनका बल
इस पक्ष पर रहा। उनके प्रिय कवि भी ऐसे ही रहे हैं।
इससे कभी मुक्त होना न उन्होंने चाहा है, न वह हुए
हैं। वैसी प्रवृत्ति ही नहीं तो मुक्त होने का सवाल भी
नहीं था। (अज्ञेय)
प्रकृति के विविध शेड्स, बिम्ब, चित्र शमशेर के काव्य
में प्रमुखता से लक्षित किए जा सकते हैं। भोर, शाम,
पर्वत, बारिश, बादल कई बार कवि की ‘इम्प्रेषनिस्ट कला’
में घुलकर महत्वपूर्ण बिंदुओं पर मुखर तो अन्य पर
धुंधले आकारों में सामने आते हैं। कहीं वाचाल प्रकृति
है तो कहीं मूक किन्तु सजीव प्रकृति आँखों के सामने
तैरने लगती है। पाठकों की संवेदनाओं को ललचाती,
उद्दीप्त करती हुई।
‘जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था, वो पत्थर
सजग-सा होकर पसरने लगा
आप से आप।’
शमशेर की कविता के संगीत के बारे में हिंदी कविता के
संदर्भ में ज्यादा कहना मुश्किल है। वह इतना अलग है।
वह उनकी कविता में नहीं है। वह उस कविता से पैदा होता
है-ऐसा भी नहीं है। जब आप उनकी पंक्तियाँ पढ़ते हैं वह
अलग कहीं पैदा होता है, समानांतर, हाँ पर इसी संसार की
ध्वनियों और गतियों से। आप उसे इसी संसार के पदार्थों
में चलता देख भी सकते हैं, वह कोई चीज है। कई साजों के
अनमेल से पैदा एक हाहाकार सी कोई चीज, एक पवित्र हृदय
से मुस्कराता और कुछ न माँगता चेहरा- न दया-न देह,
यहाँ तक कि प्रशंसा भी नहीं। (रघुवीर सहाय)
छायावादी कवियों से इतर शमशेर प्रेम में शरीर के
आकर्षण को नैतिकता के बाड़ों से मुक्त कर सहर्ष
स्वीकारते है। यह प्रेम का कुंठित और अमर्यादित रूप
नहीं है बल्कि मनुष्य की कामुक वृत्तियों की
निर्द्वन्द, सुन्दर, आवश्यक अभिव्यक्ति है। प्रिय के
सौंदर्य और प्रेम में डूबा कवि अपराधबोध और झूठी
नैतिकता का बोझ नहीं उठाता। वायवीय फंतासियों से अलग
मन और शरीर की इच्छा, कामना व तृप्ति की बात करता है।
यहाँ गौरतलब है कि शमशेर तथाकथित पुंसवादी मानसिकता से
ग्रस्त होकर सतही चित्रण नहीं करते वरन् प्रेम की
दृष्टि से सौंदर्य की छवि अंकित करते हैं। वे कहीं भी
निरंकुश नहीं होते वरन् स्वत: निर्मित सेंसर के साथ
सक्रिय होते हैं। कहते हुए भी एक अनकहापन, गोपन रखने
या मूक हो जाने की प्रवृत्ति वस्तुत: कवि की सचेत
दृष्टि है जो भाव, अनुभूतियों को उनके सम्पूर्ण
आरोहों-अवरोहों के साथ स्पेस देती है, जहाँ केवल प्रेम
महत्वपूर्ण रह जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो नई
कविता को छायावादी काव्य परम्परा का नवीन विकास माना
जा सकता है-
ऐसा लगता है जैसे
तुम चारों तरफ़ से मुझसे लिपटी हुई हो
मैं तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थायी ग्रास…हूँ मूक।’
शमशेर की कविता में, वे सारे गुण एवं लक्षण है, जो की
प्रगतिशील कविता में उपलब्ध होते है। जैसे - लोकमंगल
की भावना, जनतांत्रिकता, प्रेम और सौन्दर्य, मानवीय
करुणा एवं संवेदना आदि, किंतु उसे व्यक्त करने का उनका
जो ढंग है, शैली है, उस कारण उनकी कविता सामान्य
पाठकों के लिए ही नहीं, विशिष्ट पाठकों के लिए भी
दुरूह हो जाती है। वास्तव में इनकी कविता के दो छोर
हैं - कुछ बोधगम्य सरल कवितायें और कुछ नितांत जटिल
कवितायें। जटिल कवितायें इनकी अवचेतन मन की सृष्टियाँ
हैं। बिम्ब चित्रों, प्रतीकों और अत्यन्त असम्बद्ध
स्थितियों के चित्रण से इनकी कविता साधारण पाठक की समझ
एवं पकड़ से बहुत दूर चली जाती है। कुछ विद्वानों ने
इन्हे भले ही कवियों का कवि कहा हो,इसका कारण यह भी हो
सकता है कि कवि ह्रदय संपन्न मनीषी वर्ग भी,शमशेर को
समझ पाने में अपने आपको असमर्थ पाता है। एक उदाहरण
देखिये :-
सींग और नाखून
लोहे के बख्तर कन्धों पर।
सीने में सुराख हड्डी का।
आंखों में :घास काई की नमी।
एक मुर्दा हाथ
पाँव पर टिका
उलटी कलम थामे
तीन तसलों में कमर का घाव सड़ चुका है।
जड़ों का भी कड़ा जाल
हो चुका पत्थर।
प्रश्न यह है कि शमशेर की प्रधान उपलब्धियाँ कौन-सी
हैं? मेरे मत से, प्रणय-जीवन के जितने विविध और कोमल
चित्र वे प्रस्तुत करते हैं, उतने चित्र शायद और किसी
नए कवि में दिखाई नहीं देते। उसकी भावना अत्यंत स्पर्श
कोमल है। प्रणय जीवन में भावप्रसंगों के अभ्यंतर की
विधि, सूक्ष्म संवेदनाओं के जो गुणचित्र वे प्रस्तुत
करते हैं, वे न केवल अनूठे हैं वरन अपने वास्तविक
खरेपन के कारण, प्रभावशाली हो उठे हैं।
सूक्ष्म संवेदनाओं के गुणचित्र उपस्थित करना बड़ा ही
दुष्कर कार्य है किंतु शमशेर उसे अपनी सहानुभूति से
संपन्न कर जाते हैं। विशिष्ट भावप्रसंगों की मौलिक
विशिष्टता के अंतर्गत इन सूक्ष्म, कोमल किंतु
महत्वपूर्ण संवेदनाओं के ये वास्तवचित्र कहीं ढूँढने
पर भी नहीं मिलेंगे। बाख के संगीत की स्वर-लहरियों
द्वारा उत्तेजित संवेदनाओं का चित्रण, जो शमशेर ने
किया है, वह उनके अनुपम काव्य-सामर्थ्य तथा
वास्तवोन्मुख भावना का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। शमशेर ने
संवेदनाओं के गुणचित्र उपस्थित करने के क्षेत्र में जो
महान सफलताएँ प्राप्त की हैं, वे उस क्षेत्र में
अन्यत्र दुर्लभ हैं।
हम चाहें तो उन्हें रूमानी और बिंबवादी कवि भी कह सकते
हैं। अभी तक और कभी इसके बाहर वह नहीं गए। लेकिन अगर
उनसे पूछा जाता कि आप राजनीति में किस दल के साथ हैं
तो वह कहते हैं कि मैं प्रगतिवादियों के साथ हूँ। अब
इसका आप जो चाहे अर्थ लगा सकते हैं। इसे विभाजित
व्यक्तित्व मैं तब कहता जबकि उनकी चेतना में उसका असर
होता, उसमें भी दो खंड हो जाते। वैसा शायद नहीं हुआ।
उस स्तर पर वह अब भी रूमानी बिंबवादी संवेदन के कवि
हैं। (गजानन माधव मुक्तिबोध)
शमशेर उन कवियों में हैं, जिनके लिए मार्क्सवाद की
क्रांतिकारी आस्था और भारत की सुदीर्घ सांस्कृतिक
परंपरा में विरोध नहीं था। प्रात नभ था बहुत नीला शंख
जैसे- भोर के नभ को नीले शंख की तरह वही देख सकता है
जो भारतीय परंपरा से ओत-प्रोत है। शमशेर सूर्योदय से
डरने वालों में नहीं हैं, न सूर्यास्त से कतराने वालों
में हैं। वैदिक कवियों की तरह वे प्रकृति की लीला को
पूरी तन्मयता से अपनाते हैं-
जागरण की चेतना से मैं नहा उट्ठा।
सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता
सूर्य मेरी पुतलियों में स्नान करता
केश-तन में झिलमिला कर डूब जाता।
१३ मई
२०१३ |