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जयंती के अवसर पर
संत
रविदास की अमृत वाणी
-डॉ.
बलदेव सिंह 'बद्दन'
मध्ययुगीन सन्तों में रविदास का महत्वपूर्ण स्थान है।
सन्त रविदास कबीर के समसामयिक कहे जाते हैं। अतः इनका
समय सन् १३८८ से १५१८ ई (सं. १४४५ सं १५७५ ई.) के
आस-पास का रहा होगा।
नाभादासकृत ’भक्तमाल’ (पृ. ४५२) में रविदास के स्वाभाव
और उनकी चारित्रिक उच्चता का प्रतिपादन मिलता है।
प्रियादासकृत ’भक्तमाल’ की टीका के अनुसार चित्तौड़ की
झालारानी उनकी शिष्या थीं, जो महाराणा सांगा की पत्नी
थीं। इस दृष्टि से रविदास का समय सन् १४८२-१५२७ ई.
(सं. १५३९-१५८४ वि.) अर्थात् विक्रम की सोलवीं शती के
अन्त तक चला जाता है। कुछ लोगों का अनुमान है कि यह
चित्तौड़ की रानी मीराबाई ही थीं और उन्होंने रविदास
का शिष्यत्व ग्रहण किया था। मीरा ने अपने अनेक पदों
में रविदास का गुरु रूप में स्मरण किया है-’’गुरु
रविदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी। सत गुरु सैन ई
जब आके, जोत रली।’’ रविदास ने अपने पूर्ववर्ती और
समसामयिक भक्तों के सम्बन्ध में लिखा है। उनके निर्देश
से ज्ञात होता है कि कबीर की मृत्यु उनके सामने ही हो
गई थी। रविदास की अवस्था १२० वर्ष मानी जाती है।
रविदास अनपढ़ कहे जाते हैं। सन्तमत के विभिन्न संग्रहों
में उनकी रचनाएँ संकलित मिलती हैं। राजस्थान में
हस्तलिखित ग्रन्थों के रूप में भी उनकी रचनाएँ मिलती
हैं। इसके अतिरिक्त इनके बहुत से पद ’गुरु ग्रन्थ
साहिब’ में संगृहीत मिलते हैं। ’गुरु ग्रन्थ साहिब’
में संगृहीत पदों को प्रमाणिक मानने में कोई
आपत्ति नहीं होनी चाहिए। रविदास के कुछ पदों पर अरबी
और फारसी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
रविदास की विचारधारा और सिद्धान्त सन्तमत की
परम्परा के अनुरूप हैं। उनका सत्यपूर्ण ज्ञान
में विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य
अनिवार्य माना है। परम तत्व सत्य है, जो अनिर्वचनीय
है-’’जस हरि कहिए तस हरि नाहीं। है अस जस कछु तैसा।’’
यह परमतत्व एकरस है तथा जड़ और चेतन में समान रूप से
अनुस्यूत है। वह अक्षर और अविनश्वर है और जीवात्मा के
रूप में प्रत्येक जीव में अवस्थित है।
सन्त रविदास अपने समय के प्रसिद्ध महात्मा थे। कबीर ने
’सन्तनि में रविदास सन्त’ कहकर उनका महत्व स्वीकार
किया है। इसके अतिरिक्त नाभादास, प्रियादास, मीराबाई
आदि ने भी रविदास का ससम्मान स्मरण किया है। इनकी कुछ
प्रसिद्ध रचनाएँ प्रस्तुत हैं-
रविदास राम के नाम बिन मन लागी जलन न जाय। जलन अधिक
बढती गई ज्यों ज्यों कीआ उपाय।
रविदास कहते हैं कि राम के गुणगान किए बिना, मन की जलन
समाप्त नहीं होती, जब-जब इस जलन का कोई और उपाय किया
जब-तब वह और बढ़ती गई।
जब माँग तब देत हैं, साहब मेरो आप। काहे बाँध गाठड़ी,
सहूँ चिंता का ताप।
जब मैं माँगू तभी मेरे स्वामी मुझे दे देते हैं, इसलिए
रविदास जी कहते हैं कि मैं गाँठ में इकट्ठा करके धन को
क्यों बाँधू, क्यों संग्रह करूँ तथा क्यों धन संग्रह
करके चिंता के कष्ट को सहूँ।
हरि सा हीरा छाड़ि कै, करैं आन की आस। ते नर जमपुर
जाहिंगे, सत भाषै ’रविदास’।
हीरे के सदृश हरि के निर्मल नाम का परित्याग करके
किसी और में मन लगाते हैं, संत रविदास जी कहते हैं कि
उन्हें नकर की प्राप्ति होगी। अर्थात प्रभु का नाम
स्मरण नहीं छोड़ना चाहिए।
का मथुरा का द्वारिका, का कासी हरिद्वार। ’रविदास’
खोजा दिल आपना, तउ मिलिया दिलदार।
मथुरा, द्वारिका, काशी अथवा हरिद्वार सब क्या है,
अर्थात क्या वहाँ ही प्रभु रहता है। रविदास जी कहते
हैं कि वास्तव में जब अपना दिल खोजा, तो वह प्रभु
प्राप्त हुआ, वह प्रभु बाहर नहीं परन्तु मन में रहता
है।
जात पात के फेर मँहि, उरझि रहइ सभ लोग। मानुषता कूँ
खात हइ, ’रविदास’ जात कर रोग।
जाति पाति के चक्र में सभी लोग उलझे रहते हैं, संत
रविदास जी कहते हैं कि यह जाति पाति का रोग असल में
मनुष्य जाति को हानि पहुँचा रहा है अतः हमें
जाति-पाँति के चक्र में नहीं आना चाहिए।
बाहमन खत्तरी बैस सूद, ’रविदास’ जन्त ते नाँहि। जो
चाहन सुबरन कउ, पावई करमन माँहि।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रविदास जी कहते
हैं जन्म से नहीं होते अगर कोई सुवर्ण जाति का बनना
चाहता है तो वह उसे अच्छे कर्मों से ही मिल सकती है
अर्थात अच्छे कर्म से मनुष्य ऊँचा और बुरे कर्मों से
नीचा बनता है।
’रविदास’ जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच। नर कूँ नीच
करि डारि है, ओछे करम की कीच।
गुरु रविदास जी कहते हैं कि मात्र जन्म के कारण कोई
नीच नहीं बन जाता हैं परन्तु मनुष्य को वास्तव में नीच
केवल उसके कर्म बनाते हैं।
धन संचय दुख देत है, धन तयागे सुख होय। ’रविदास’ सीख
गुरुदेव की, धन मति जोरे कोय।
धन-सम्पत्ति का संग्रह दुःख देने वाला होता है, धन को
तो त्यागकर सुख मिलता है, संत रविदास जी कहते हैं कि
गुरु की शिक्षा है कि कोई व्यक्ति अगर सुख चाहता हो तो
धन को न जोड़े।
’रविदास’ प्रेम नहिं छिप सकई, लाख छिपाए कोय। प्रेम न
मुख खोलै कभउँ, नैन देत हैं रोय।
संत रविदास जी कहते हैं कि प्रेम कभी भी छिप नहीं
सेता, चाहे कोई लाख उपायों से छुपाने का प्रयास करे।
प्रेम तो कभी मुँह से बोल कर प्रकट नहीं होता परन्तु
आँखें ही रो कर प्रेम को प्रकट कर देती है।
ऐसा चाहौ राज मैं, जहाँ मिलै सबन को अन्न। छोट बड़ो सभ
सम बसैं, ’रविदास’ रहैं प्रसन्न।
मैं एकसा राज्य चाहता हूँ जहाँ सभी को अन्न प्राप्त
हो, संत रविदास जी कहते हैं कि ऐसे राज्य में छोटे-बड़े
कोई न हों सब समान हों और सदैव प्रसन्न रहें।
१६ मई
२०११ |