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साहित्यिक निबंध

जन्माष्टमी  के अवसर पर

राम वही हैं कृष्ण वही
-शिववचन चौबे
 


गीता के नवम् अध्याय तक आते-आते अर्जुन मोहभंग की स्थिति में प्रवेश करने लगता है। यह अध्याय गीता के पूर्वार्द्ध का अंतिम और दशम अध्याय उत्तरार्द्ध का प्रथम चरण है। पूर्वार्द्ध के अंत में राज योग (समर्पण- योग) और उत्तरार्द्ध के प्रारंभ में विभूति योग।

यदि वैदिक धर्म का सार वेदांत है, तो वेदांत रस ही राज विद्या है। इस विद्या का रस पीकर अर्जुन पूर्ण ज्ञान के राजपथ पर आ खड़ा हुआ है। अपनी विषाद-विमुक्ति की प्रक्रिया में वह कृष्ण से विभूति योग की जिज्ञासा व्यक्त करता है।
विस्तरेणात्मनों योगं विभूमिं च जर्नादन
भूयः कथय तुप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽतृम् -गीता १०/१८
अर्थात, हे जर्नादन ! अपनी योगशक्ति की विभूति विस्तार में कहिए। आपके अमृत-वचन सुनते हुए मैं अघाता नहीं।

प्रश्न सुंदर हो तो उत्तर भी रोचक होता है। श्रोता रसग्राही हो, तो वक्ता रस की वर्षा करता जाता है। सो, अर्जुन के प्रश्न से प्रसन्न जनार्दन अपने विभूति-चिंतन पर उतर आते हैं। गीता, महाभारत के मध्य में और नवम् अध्याय गीता के मध्य में है। ठीक इसी तरह अर्जुन के सारथी बने कृष्ण कुरूक्षेत्र के मध्य में खड़े हैं। अर्जुन का रथ जीवन के मध्य बिंदु पर खड़ा है, जहाँ से उसके दोनों छोर आदि और अंत स्पष्ट दिखते हैं। यही तो विशेषता है मध्य की। अर्जुन जो कुछ सुन रहा है, उसे देखने की क्षमता भगवान कृष्ण ने उसे दे दी है। सिद्धांत-पाठ के उपरांत प्रारंभ होती है प्रयोग की प्रक्रिया। भक्त दत्तचित्त, भगवान भाव - विभोर। शिष्य की सुपात्रता से प्रसन्न गुरु के ज्ञान की गंगोत्री निर्झरी बन जाती है। यहीं फूटती है कृष्ण की ज्ञान-गंगा की धारा-विभूति योग, जिसमें है भगवान कृष्ण के स्रोत - स्वरूप का चित्रण और व्याख्या।
पवनःपवतामस्मि
रामः शस्त्रभृतामहम् -गीता १०/३१
अर्थात, मैं पावनकर्ता में पवन और शस्त्रधारियों में राम हूँ।

स्वयं भगवान कृष्ण के मुखारबिंद से अपने राम-स्वरूप का आख्यान सुनकर भक्त-मन आल्हादित हो उठे और उसकी चिंतन-प्रक्रिया आल्हादित त्वरित हो जाए, तो आश्चर्य कैसा? जब राम ही कृष्ण और कृष्ण ही राम हैं, तब राम के एक रूप विशेष को ही चुनकर कृष्ण क्यों कहते हैं कि मैं शस्त्रधारियों में राम हूँ? क्या राम के अन्य रूपों से कृष्ण का साम्य नहीं है? क्या राम के पौरुष और पराक्रम के अतिरिक्त कोई सारूप्य राम और कृष्ण में नहीं हैं? प्रश्न विचारणीय है।

अपने जीवनकाल की जिस लीला-भूमि पर कृष्ण यह सत्य घोषित करते हैं, वहाँ वे स्वयं शस्त्र-हीन हैं। और भगवान कृष्ण की कोई बात, कोई रहस्य-उद्घाटन विशेष अर्थ का द्योतक होता है, वह अर्थहीन हो नहीं सकता। कोई भिक्षुक अपनी विपुल की संपदा चर्चा करे, कोई शस्त्रहीन अपने शस्त्रधारी रूप का बखान करे, तो जिज्ञासा और उत्सुकता स्वाभाविक कही जाएगी। क्यों न कृष्ण के कथ्य के आधार पर उनके संपूर्ण जीवन-काल और लीला-स्थलों में राम को ढूँढें। सच पूछें तो कृष्ण ने केवल एक बार विभूति-प्रकरण में स्वयं को राम का रूप बताया है। क्या यही मनोहारी एवं रोमांचकारी वचन है! महाभारत काल से आज तक न जाने कितने राम-भक्त कृष्ण की राममयता और रामत्व पर रीझते रहे हैं। कृष्ण ने अपने रामत्व का पट क्या खोला- भक्त और ज्ञानी आश्चर्यित एवं मुग्ध होते रहे हैं।

राम-कथा के मर्मज्ञ, राम-भक्त तुलसी तो काशी से पैदल ही चल पड़े थे-गोकुल की गलियों में अपने आराध्य राम को खोजने, कृष्ण में राम के दर्शन करने। बाबा ने उक्त मर्मस्पर्शी सूत्र देखा-पाया था क्या? बेशक, इसीलिए तो अयोध्या न जाकर इस बार उन गलियों में जा पहुँचे। कृष्ण के मोहक रूप में रामत्व के दर्शन की अभिलाषा! और देखिए न, मोहन के सजे-सँवरे रूप को देखते ही तुलसी का भक्त-मन अटपटापन प्रकट कर देता है, ‘मैं’तो अपने राम को खोज रहा हूँ-कृष्ण के राम-रूप को। बाबा वह राम-भक्त है, जो गंगा में बैठकर गंगाजल खोजता है-अत्यंत सजग और एकनिष्ठ भक्त। सो, कृष्ण में राम-दृष्टि की अंतर्जिज्ञासा का बालहठ-सा हठ कर लेते हैं, ’उनके हाथ विभूति-योग का वह सूत्र जो लग गया है।‘ कृष्ण के राम-मर्म से पूर्णतः अवगत तुलसी तनकर खड़े हो गये हैं, माथा नवाते ही नहीं, चतुर भक्त की चातुरी तो देखिए-
कहा कहैं छवि आपकी, भले बने हो नाथ
तुलसी मस्तक तब नवे, धनुष-बाण लो हाथ

तुलसी का तीर ठीक लक्ष्य पर चला था। आखिर, कृष्ण में राम या राम में कृष्ण की अलौकिक एकरूपता तभी संभव है, जब वे शस्त्रधारी हों। अन्य किसी रूप में एकरूपता का उल्लेख कृष्ण ने किया ही नहीं। तो, तुलसी पचड़े में क्यों पड़ते? भक्ति तर्क की नहीं, आस्था की वस्तु है, और कृष्ण के वचन से बढ़कर विश्वसनीय और कोई वाणी हो नहीं सकती। चतुर भक्त तुलसी वहीं अड़ गया-कृष्ण की ही वाणी से कृष्ण को गहकर विवश कर दिया। और तब कृष्ण पुलकित होकर राममय हो उठते हैं। होना भी क्या था? हाथों में धनुष धारण करते ही उनका रामत्व स्पष्ट दिखने लगा है। और, तुलसी नतमस्तक ! राम-भक्त कृष्ण का रामत्व निहारकर नत हो रहा है- यह शायद सबसे पहली बार घटित हुआ है। अस्तु, विभूति योग के कथ्य को तुलसी के प्रयोग ने कृष्ण में रामत्व का प्रत्यय और उसकी प्राप्ति की परंपरा स्थापित कर दी।

लीलाओं की रूप भिन्नता

अवस्था और काल-क्रम के अनुसार राम-कृष्ण की लीलाओं के रूप विभिन्न हैं, जिन्हें खंडों में उपरूप कहते हैं। शस्त्र धारण उन्हीं की एक इकाई है। शस्त्र धारण शस्त्र-नीति से और धर्माचरण धर्मनीति से संपन्न होता है। परंतु, इन दोनों नीतियों की मर्यादाएँ पृथक होकर भी तत्वतः अभिन्न हैं। शस्त्र-नीति वस्तुतः युद्ध-नीति और वीरधर्म है, और व्यापक शस्त्र-नीति का अभिन्न उप-अंग। तो, भगवान कृष्ण की वाणी का अर्थ है: राम और कृष्ण की रणनीति में अभेद है, परंतु एक ही धर्म के विभिन्न उपरूपों में उसकी संचालन-प्रक्रिया, व्यवहार के स्तर पर अलग-अलग दिखती है। यदि राम और कृष्ण की समस्त लीलाओं की क्रिया-शैली का अवलोकन-विवेचन करें, तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाएगा। भगवान के समस्त अवतारों में राम और कृष्ण की कलाएँ और लीलाएँ भारतीय जन-मानस को जितना प्रभावित करती हैं, उसकी मिसाल अन्यत्र अलभ्य है। ये दोनों अवतार नर-रूप में पूर्ण जीवन जी कर, जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। राम-कथा नीति-शास्त्र है , कृष्ण-कथा समाज-शास्त्र। संतो और सेवकों का परित्राण तथा दुष्टों का विनाश, ये दोनों ही करते हैं। दोनों के अवतार के कारण एक और अभिन्न है। हाँ, धर्म की रक्षा और अधर्म की विनाश-प्रक्रिया के मूल सिद्धांत में तत्वतः समता होने पर भी, दोनों की कार्य-संपादन-शैली लौकिक धरातल पर भिन्न अवश्य है।

सत्य-पथ और शुभ कर्मों की शपथ ही राम के जीवन में आगत समस्त संकटों का कारण है। एक ओर धर्ममय जीवन और दूसरी ओर धर्म-रक्षा के पथ में उभरते संकटों का सिलसिला वन-गमन से, जो शुरू हुआ तो राम के संपूर्ण जीवन पर छा गया।

पुत्र के रूप में बनवास, भाई के रूप में पादुका त्याग और पति के रूप में सीता-वियोग। राम के दुःखों का न ओर, न छोर। लेकिन वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही हैं, जो सत्य के पथ पर अटल रहते हैं- दुःख उन्हें हिला तक नहीं पाता। क्या सामान्य व्यक्ति के लिए राम का धर्म-पथ, आदर्श मार्ग दुष्कर नहीं है, क्योंकि उसे सामाजिक मान्यताओं और विविधताओं से जूझना ही पड़ता है। राम-भक्तों की यह विशेषता भी है और पीड़ा भी। राम-धर्म अपनी दुरुहता और कठिन मर्यादा के चलते जितना ही पावन है, उतना ही दुष्कर- इसमें संदेह नहीं। यह संख्यात्मक कम, गुणात्मक अधिक है सच, राम का समस्त जीवन धर्म-नीति का दुष्कर मार्ग है। अवश्य, वे सम्मानित जीवन जीते हैं। सत्य कटु भी होता है, कहें कि अधिकांशतः कटु ही होता है। समाज में सत्यशोधी अल्पसंख्य हों, तो आश्चर्य नहीं, लेकिन सत्य-शोधक कभी दुर्बल नहीं होता। उसके संकल्प और पुरुषार्थ ही उसका संबल होते हैं। उसके संकल्प का सत्य के सिवाय विकल्प नहीं। वह कठिनाइयों को, मानो आमंत्रण देता और अपने मार्ग पर अकेला पड़ता जाता है।

राम अपने हर रूप में धर्मार्थ किसी न किसी सुख की बलि देते जाते हैं। वही शस्त्रधारी राम युद्ध-क्षेत्र में हर खोया सुख और पूर्ण सम्मान जीतने में समर्थ हैं। ताड़का और विराच्य के वध से लेकर बाली और रावण के वध तक वे महान योद्धा एवं धर्मरक्षक के रूप में विख्यात हैं, तो परम यशस्वी एवं मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठित। अपमान का प्रतिशोधजी-भर लेने में सक्षम हैं राम- अपने पौरुष और बाहुबल से। प्रत्यक्ष हो जाता है यह सत्य कि युद्ध-क्षेत्र में राम न देवों की, न ही मानवों की सहायता की अपेक्षा करते हैं। शस्त्रधारी राम कभी भी युद्ध नहीं हारते, परंतु धर्माचारी राम प्राप्त और प्राप्य सुख हारते जाते हैं। राम-कथा का एक सत्य यह भी है कि राम युद्ध-नीति में संवेदना तथा भावुकता को अवकाश नहीं देते, भले ही ओट में छिपकर किसी (दुष्ट) का वध करना पड़े अथवा शत्रु का भेद पाने के लिए उसके सहोदर को शरणागति का अभेद्य कवच पहनाना पड़े।

सम्यक साम्य

कृष्ण राम के इसी शस्त्रधारी रूप और लीला से सम्यक् साम्य रखते हैं। त्रेता का पूर्वार्द्ध सतयुग के जितना निकट है द्वापर का उत्तरार्द्ध उतना ही कलियुग के। त्रेता के जनमानस पर सतयुग का संस्कार क्षीण नहीं हुआ था। किंतु ये बातें द्वापर तक बदल गयीं, तो जन-जन का संस्कार भी काफी बदल गया था। (द्वापर तो स्वयं संशय है ही) तो राम और कृष्ण की लीलाओं में कुछ मौलिक भेद होना आवश्यक तथा स्वाभाविक ही था। राम के संकट वन-गमन काल से शुरू होते हैं, पर कृष्ण को जन्म के पूर्व ही विपदाओं ने घेर रखा है। बंदीगृह में जन्में कृष्ण को शैशव में ही दाँव-पेंच की विभीषिकाओं से जूझना पड़ता है। यह भी कि वे बचपन से ही लोक-जीवन और जन-मानस के अत्यंत निकट हैं। दीन, हीन और असहाय, शोषित और पीड़ित समाज की मुख्य धारा से जन्मते ही जुड़ जाते हैं। कहना न होगा कि राम का नाता उक्त समाज से बाद में स्थापित होता है। कृष्ण-जन्म की परिस्थितियाँ रावण-काल से बदतर हो गयी थीं। कृष्ण को अनुभव अवश्य हुआ होगा कि राम की धर्म-नीति सामान्य जन-मानस के लिए दुर्बोध है, इसीलिए उसकी पुनर्व्याख्या तथा सामान्यीकरण अपेक्षित है।

राम ने तो तपसी, बनवासी और उदासी का जीवन जी कर ही धर्म की रक्षा प्रारंभ की थी। परंतु गृहस्थाश्रम मंन परिवार और समाज के दायित्वों का बोझ ढोते हुए सामान्य जन के लिए सत्य और धर्म का इतना दुरूह मर्यादित मार्ग हँसी-खेल नहीं है। कृष्ण जन-गण की कठिनाइयों का गहन अध्ययन उनके बीच रहकर बड़ी सूक्ष्मता से करते हैं। सामाजिक दाँव-पेंच के कुशल प्रणेता कृष्ण बहन सुभद्रा का हरण स्वयं कराते हैं। बाद में परिवार और समाज के लिए उस हरण के लाभ-हानि के अर्थ की सुखद व्याख्या कर देते हैं। उधर, अर्द्धांगिनी के हरण ने राम के जीवन को अस्त-व्यस्त करके रख दिया था। वे अपमान और क्षोभ से कातर हो उठे थे। उन्हें किंचित आशंका होने लगी कि लोग क्या-क्या कहेंगे। यही न कि जो पत्नी की रक्षा नहीं कर सका, वह समाज और राष्ट्र की कैसे कर पाएगा? राम विचलित से हो गये। और तब, उनका पौरुष अपमान का बदला लेने के लिए शस्त्र धारण करता है। रावण वध के उपरांत वे सीता से कहते हैं-
यत् कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां प्रमिर्जता
तत् कृतं रावणं हत्वा मयेदं मानकांक्षिणा -वाल्मीकि

अर्थात्, हे सीता, अपने अपमान का बदला लेने के लिए एक मनुष्य का जो कर्तव्य होता है, रावण को मारकर मैंने वही किया है। बिना इसके मेरा सम्मान पुनः प्राप्त नहीं हो पाता। अपने पौरुष और भुजबल से वह कार्य करके मैं प्रसन्न हूँ।

राम ईश्वर हैं, समर्थ हैं। किंतु एक सामान्य व्यक्ति? क्या बिना दाँव-पेंच अपने अपमान का बदला और वह भी बलवान शत्रु से ले सकता है? कृष्ण का जीवन-दर्शन और उनकी लीलाएँ यही रहस्य खोलती हैं उनकी चेतना और समस्त लीलाओं में एक साधारण गृहस्थ वर्तमान है। राम के जीवन के समस्त अनुभवों को कृष्ण समीकरण सहित समेटे हुए हैं। उनकी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक चेतना व्यावहारिक सूझबूझ के साथ लौकिकता के धरातल पर खड़ी है। जहाँ राम धर्म की रक्षा धर्म से, और सत्य की रक्षा केवल सत्य से करते हैं, वही कृष्ण आपद्धर्म से भी धर्म की तथा प्रतीयमान असत्य से सत्य की रक्षा करने को प्रस्तुत हैं। वे पापी को पेंच से और दुष्ट को दाँव से मारने में विश्वास करते हैं। वे हर पापी को मार कर मोक्ष नहीं देते। वे अपने विवेक से, व्यवहार-बुद्धि से पापियों तथा पुणात्माओं का छानबीन तथा छंटनी करते हैं। वे सत्य का व्यावहार्य सदुपयोग में कुशल हैं। कुरुक्षेत्र की समस्त विनाशलीला में कृष्ण निरस्त्र हैं। परंतु कर्ण और दुर्योधन से लेकर भीष्म और द्रोण तक के वध में वे कहाँ नहीं हैं? शस्त्र-विहीन कृष्ण ही तो महाभारत में अर्जुन का, वस्तुतः शस्त्र-संचालन करते हैं-

निमित्त मात्रं भव सव्यसाची

वे शांति-संदेश का पाठ युद्ध रोकने के लिए नहीं, युद्ध करने के लिए शुरू करते हैं। वे अन्यायी-अत्याचारी का हनन करके पूरा परिवेश बदलने तथा शांति स्थापित करने में विश्वास रखते हैं। पापी और अधर्मी की हत्या को वे पाप नहीं मानते। वे जनमत को भी तर्क की कसौटी पर साध-परख कर ही स्वीकारते हैं। उधर, राम सदा ही सरल, सहज और उदार हैं। सच तो यह है कि राम की युद्ध-नीति ही कृष्ण की जीवन-पद्धति है। राम सत्य और धर्म की रक्षा के लिए राज्य त्याग देते हैं, किंतु कृष्ण सत्य-धर्म की रक्षार्थ (कहें कि राज्य के हेतु) कौरवों के विनाश-सूत्र का संचालन एवं सारथी बन जाते हैं। अयोध्या का राज्य और ‘भरत सम भाई’ तथा हस्तिनापुर का राज्य और दुर्योधन-सा भाई अलग-अलग काल एवं परिस्थितियों को दर्शाते हैं। इन दोनों स्थलों पर राम और कृष्ण के निर्णय में साम्य नहीं हैं (यहाँ दोनों ही अस्त्र-शस्त्र से रहित रूप में हैं), इसीलिए यहाँ उनकी समानता स्वरूप-विशेष की प्रातीतिक मात्र है। हाँ, दोनों के जीवन के ये स्थल काल-भेद से भिन्न होकर भी भाव-दृष्टि से समान अवश्य हैं। राम तो राज्य-सुख त्याग कर वन-वन दुःख भोगते रहे, पर कृष्ण की छाया सुख भोगने का स्पष्ट आदेश देते हैं-
हतो वा प्राप्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः -गीता २/३७

निःसंदेह, राम और कृष्ण की एकरूपता उनकी युद्धनीति और शस्त्रधारी रूप में स्पष्टतः परिलक्षित होती है और स्पष्टतः यहीं कृष्ण का रामत्व। यहीं कृष्ण राममय हो जाते हैं। परंतु स्मरण रहे कि सत्य और धर्म से पृथक राम की कोई नीति नहीं है, और तर्कसंगत सामाजिक चेतना से विलग कृष्ण का कोई धर्म नहीं है। राम तो अधर्मी में भी धर्म-तत्व खोजने का प्रयास करते हैं, पर कृष्ण ख्यात धर्मों को भी तर्क की तुला पर तौलते हैं। वस्तुतः राम जिस नीति के सृजनकर्ता हैं कृष्ण उसके चतुर पालनकर्ता। दोनों एक ही धर्म के पूरक और पोषक हैं, अंतर केवल व्यवहार और प्रयोग के धरातल पर है। यदि राम का जीवन-दर्शन जन-मानस में साधुता और शीलता का कल्प तरु है, तो कृष्ण का दर्शन उस तरु का समुचित सिंचन करता है। राम-कथा धर्मनीति का बोध कराती है, तो कृष्ण-कथा धर्म संपादन की लौकिक रीति बताती है। कृष्ण का जन्म ही राम-धर्म के सामान्यीकरण के हेतु हुआ था। कृष्ण-नीति का संपूर्ण जीवन राम-नीति की प्रयोगशाला है। उन्होंने राम की नीति का साधारणीकरण किया है। वे राम का जीवन इतनी चतुराई से जीते हैं कि राम के भक्त कृष्णलीला के कलेवर में जीवन-संग्राम के सफल योद्धा बन जाते हैं।

यदि राम जन्म के बाद कृष्ण का अवतार न होता, तो राम-भक्तों को राम-नीति की इतनी सुंदर, ग्राह्य एवं व्यापक व्याख्या कभी नहीं मिल पाती। हम धर्ममय तो बने रहते, पर जीवन में सरसता का अभाव बना रहता, साथ ही जीवन-समर में जय-लाभ के लिए अनिवार्य गुण जुझारूपन कुंठित रह जाता। हम मोह-ग्रस्त अर्जुन हो जाते, और हमारे हाथों से गांडीव बार-बार गिर जाता- उसे उठाने का सामर्थ्य रह नहीं जाता। अवश्य, राम की महिमा अनूठी है, वंदनीय है। वे राजवंश में जन्म लेते हैं और पलते हैं, किंतु करते हैं पतितों का उद्धार। वे अपना सुख हार जाते हैं, युद्ध नहीं हारते। उनका शस्त्रधारी रूप और युद्ध-नीति के दाँव-पेंच ही कृष्ण के युद्ध-पूर्ण जीवन का मूलमंत्र हैं। इसीलिए वे रण भले ही छोड़ दें, परंतु सुख नहीं छोड़ते। और अर्जुन? वह रामधर्म का छात्र तथा प्रतिनिधि-पात्र है, जिसके गुरु हैं कृष्ण-युग-प्रवर्तक व्याख्याता। जीवन के कुरूक्षेत्र में अर्जुन का गांडीव ही कृष्ण-रूप राम की नीति है। अर्जुन का मोह ही राम-भक्तों की उलझन का प्रतीक है, और निरस्त्र कृष्ण ही राम की शस्त्रधारी प्रतिमूर्ति हैं। यही कृष्ण है राममय और यही है उनका रामत्व- रामः शस्त्रमृतामहम्।

२६ अगस्त २०१३

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