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भाषा, मुहावरे और शतरंज
-डॉ. परमानंद पांचाल
बहुधा सुन ने को मिलता है कि यदि उसने तनिक भी
बुर्दबारी से काम लिया होता तो यह नौबत न आती। उससे
अवश्य किसी की शह है, नहीं तो वह ऐसी चाल न चलता, उसकी
बिसात ही क्या हो मुझे मात दे। आखिर वह बाजी मार ही
गया। वह भी किसी मोहरा बन गया है, आदि-आदि।
अधिकांश मुहावरे और लोकोक्तियाँ अपने कलेवर में एक
युगीन संस्कृति के विकास को छिपाए रहते हैं, जो पीढ़ी
दर पीढ़ी हमें विरासत में मिलते रहते हैं, जिसका प्रयोग हम
सर्वमान्य सत्य के रूप में करते हैं। समय गुजर जाता है
किंतु मुहावरे अतीत की अनुभूतियों को परोक्ष रूप में
व्यक्त करते रहते हैं।
खेल का जन्म
भारत में-
शतरंज के इतिहास पर ध्यान देने से पता चलता है कि यह एक
प्राचीन और विश्वव्यापी खेल है जिसके आविष्कार का श्रेय भारत
को ही है। इस खेल की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह निश्चित रूप
से नहीं कहा जा सकता। एक विंवदंती है कि इस खेल का आविष्कार
लंका के राजा रावण की रानी मंदोदरी ने इस उद्देश्य से किया था
कि उसका पति रावण अपना सारा समय युद्ध में व्यतीत न कर सके। एक
पौराणिक मत यह भी है कि रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी ने इस
खेल
का प्रारंभ का था।
भारतीय साहित्य में सर्व प्रथम इसका उल्लेख सातवीं शती के सुबंधु
रचित वासवदत्ता नामक संस्कृत ग्रंथ में मिलता है। बाण भट्ट
रचित हर्ष चरित्र में भी चतुरंग नाम से इस खेल का उल्लेख किया
गया है। इससे स्पष्ट है कि यह एक राजसी खेल था, प्राचीनकाल में
इसे चतुरंग अर्थात सेना का खेल कहा जाता था। चतुरंग में चार
अंग होते थे- पैदल, अश्वारोही, रथ और गज। इसीलिये इस खेल के
नियम बहुत कुछ युद्ध जैसी प्रथा पर आधारित हैं। फारसी भाषा में
इसका प्रयोग शतरंग नाम से हुआ जो विकृत अरबी में शतरंज हो गया।
मुगल काल में भारत में इसका विशेष प्रचलन रहा। शाही
परिवारों, नवाबों और मनसबदारों तथा सैनिकों में यह खूब
लोकप्रिय हुआ। फलतः जनसाधारण के लिये भी वह मनोरंजन का साधन
बना। इसी कारण से इसका प्रभाव भारतीय जन जीवनन और भाषा पर भी
पड़ा।
काले सफेद मोहरे-
शतरंज के खेल में विभिन्न आकृतियों के दो रंगों के लकड़ी आदि
के मोहरे होते हैं, एक काले और दूसरे सफेद, जो संख्या में
१६-१६ होते थे। एक पक्ष के १६ मोहरे अर्थात एक बदशाह, एक फर्जी
(वजीर), दो रुख (हाथी), दो ऊँट (फीले), दो घोड़े और आठ प्यादे
होते हैं। सारा खेल इन्हीं मोहरों की चाल पर निर्भर करता है।
मोहरें चूँकि बेबस होते हैं इसलिये इनका चालक कोई और होता है।
इसीलिये हमारी भाषा में किसी का मोहरा बनना मुहावरा हो गया।
कपड़े के जिस चौकोर टुकड़े पर शतरंज खेली जाती है उसे बिसात
कहते हैं। इसी शब्द से बिसात होना मुहावरा आया, जैसे- उसकी
बिसात क्या है जो इतना बड़ा काम करता है। उर्दू के प्रसिद्ध
कवि जौक ने एक शेर में इस शब्द को लेकर बड़ा अच्छा रूपक बाँधा
है-
कम होंगे इस बिसात पे मुझ जैसे बदकुमार
जो चाल हम चले, सो निहायत बुरी चले
सामान्य रूप से काम आने वाली छोटी मोटी चीजों को कपड़े बिछाकर
बेचनेवाले को इसीलिये बिसाती कहते हैं।
विभिन्न रंग की सूत की दरी को शतरंजी कहा जाता है जो बहुधा
शादियों और अन्य उतस्वों बिछायी जाती है। इसकी व्यतुपत्ति भी
शतरंज खेल से हुई है। ऐसी दरी पहले शतरंज के खेल में प्रयुक्त
होती थी। बाद में सामान्य रंग-बिरंगी बड़ी दरियाँ भी शतरंजी
कहलाने लगीं।
अर्थ अलग अलग-
शतरंज का एक बार का खेल बाजी कहलाता है। इससे अनेक मुहावरों और
शब्दों तो जन्म मिला है जैसे बाजी मारना (वियजी होना), बाजी
लगाना (शर्त लगाना), बाजीगर, बाजिंद (चालाक, खिलाड़ी), बाजीचह
(खिलौना) आदि। मिर्जा गालिब ने भी कहा था-
बाजी चहे इतफाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शबो रोज तमाशा मेरे आगे
चाल चलना (तरकीब निकालना) चाल में आना (धोखे में आना), चाल पट
पड़ना (युक्ति विफल होना), भी इसी खेल से उद्भूत महावरे हैं,
जिनका सर्वत्र प्रयोग होता है। बुर्दवार का अर्थ है सहनशीलता,
गंभीरता। यह शब्द बुर्द से बना है। जिसका अर्थ शरतरंज की वह
बाजी है, जिसमें आधी मात मानी जाती है और हारनेवाले के पास
बादशाह के सिवाय कोई मोहरा नहीं रहता।
शातिर शब्द
का उद्गम भी इसी खेल से हुआ है। जिसका अर्थ चालाक और कांइयाँ
है। मूल रूप से शतरंज के दक्ष खिलाड़ी को शातिर कहा जाता था।
इसी प्रकार कुछ और शब्द जैसे जूद (चोट), रुख, एराब आदि भी इसी
खेल से संबंधित हैं।
शतरंज में प्यादा सीधा चलता है और फर्जी टेढ़ा भी चल सकता है।
इसीलिये रहीम ने तत्कालीन समाज में शायद पदोन्नति पर होने वाली
ऐंठ को व्यक्त करते हुए कहा था-
प्यादे से फर्जी भयो टेढ़ो टेढ़ो जाय
इस प्रकार हिंदी भाषा और उसके बोलने वालों के जन जीवन पर
शंतरंज के खेल की अमिट छाप विद्यमान है।
१४ मई
२०१२ |