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साहित्यिक निबंध


मोहन राकेश की कहानियों में महिला पात्र -पेतैर शागि


मोहन राकेश की हिंदी साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही है कविता के अतिरिक्त उन्होंने प्राय: सभी विधाओं में रचनाओं का सृजन किया है नाटकों, उपन्यासों और अनेक कहानियों के साथ साथ उन्होंने यात्रावृत्तांत, निबंध भी लिखे थे तथा संस्कृत और अंग्रेजी से अनुवाद किया है, जैसे मृच्छकटिक और अभिज्ञानशाकुन्तल का। मात्र तैंतीस साल की आयु में ‘आषाढ़ का एक दिन‘ के लिये साहित्य अकादमी का नाट्य लेखन पुरस्कार जीतने वाले मोहन राकेश ने कुल चार नाटक और कुछ एकांकी लिखे हैं, जो अपने दृष्टिकोण और व्यंजना के कारण प्रगतिशील माने जाते हैं । आज भी खेले जाने वाले इन नाटकों ने हिंदी रंगमंच को अनचाहे पुरातन प्रयोगों से मुक्त कर दिया।

रूप एवं शैली के साथ प्रयोग का युग

रूप एवं शैली के साथ प्रयोग करने की परंपरा हिंदी साहित्य में पुरानी, लेकिन यह कविता से ही संबंधित रही। इसका कारम यह माना जा सकती है कि गद्य के आधुनिक काल से पहले प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं था। आधुनिक काल के आरम्भ के साथ जब लल्लू लाल, सदल मिश्र और इंशा अल्लाह खान प्रचुर गद्य लेखन से हिंदी को समृद्ध कर रहे थे उस समय कविताओं के विकास में कुछ समय लग रहा था क्यों कि कवियों में ब्रज भाषा की पुरानी मान्यता और स्थिति के प्रति अभी भी मोह छूटा नहीं था।

कविता जहाँ ब्रज और अवधी में उलझी थी, गद्य खड़ी बोली के आधार पर तेजी से आगे बढ़ रहा रहा था। १९ वीं शती के उत्तरार्ध व २०वीं शुरुआत के रचनाकार स्वतंत्रता आंदोलन के साथ जुड कर साहित्य में राष्ट्रीयता की एक नई धारी बना रहे थे। इस स्थिति के बाद साहित्य में नया दौर तब शुरू हुआ जब जनता का सम्बन्ध साहित्य के साथ तेजी से बढ़ा, यही वह दौर था जब लेखकों की रुचि भी पाठकों की एक नयी श्रेणी- आम आदमी की ओर मुड़ी, इसका स्रोत भारत में हो रहे तात्कालिक परिवर्तनों को भी माना जा सकता है वैश्विक बदलाव भी इसी के अनुकूल थे। अँग्रेजी के अलावा रुसी साहित्य का भारतीय लेखकों और चिंतकों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। आदर्शवाद से यथार्थवाद में हुए इस परिवर्तन को प्रेमचंद की कहानियों में देखा जाता है। इसके साथ ही उपदेशात्मकता की हल्की गूँज भी इस काल के साहित्य में पाई जाती है।

नई कहानी का जन्म

इन बातों के आधार पर राकेश जी की साहित्य सम्बन्ध समझना ज्यादा आसान है। उनके करीबी दोस्तों कमलेश्वर, मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव के साथ उन्होंने एक ऐसी शैली को प्रयोग में लाने की चेष्टा की जो उस समय तक भारतीय साहित्य की दुनिया में उपस्थित ही नहीं थी, जिसे बाद में नई कहानी के रूप में जाना गया। समस्त नयी कहानी आंदोलन में मुख्य जोर पात्रों की मनोवैज्ञानिक दशा तथा मानसिक एवं आतंरिक संसार को परखने की ओर था । १९७२ की सम्पूर्ण कहानियों की भूमिका में मोहन राकेश ने यह विचार व्यक्त किये, ‘’व्यक्ति समाज की विडंबनाओं का और समाज व्यक्ति की यंत्रणाओं आइना है।’’ वे एकांत में नहीं रहते थे इसलिए उनके सन्देश और जीवन की घटनाओं में तालमेल है। नए आलोचक किसी रचनाकार की कृति को आँकने के लिये लेखक के जीवन एवं तत्वों पर विशेष ध्यान देते हैं परन्तु मोहन राकेश चाहते थे कि उनके पाठक उनके पात्रों में अपने चिंतन और अपनी चिंताओं से परिचित हों।

मोहन राकेश के चरित्रों की पृष्ठभूमि

उनका जन्म मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ लेकिन उन्हें आर्थिक संकटों से भी गुजरना पड़ा, इस कारण वे निम्न या निम्नमध्यम वर्ग की समस्याओं के प्रति अधिक सचेत रहे। अपने जीवन काल में प्रकाशित चौवन कहानियों में उन्होंने सामाजिक विषमता का प्रदर्शन कम ही किया है। शायद ही कोई कहानी सामाजिक अंतर दिखाने के लिए लिखी गयी हो। केवल लेखक के मध्यमवर्गीय होने के नाते ही उनके साहित्य को मध्यमवर्गीय पुकारना ठीक नहीं, न ही उनके पाठक समुदाय के नाते जो अधिकतर मध्यमवर्ग का ही है। विषय चयन के आधार पर इसे मध्यमवर्गीय कहा जा सकता हैं क्यों कि कथानक के विषय ऐसे हैं जिन पर किसी अमध्यमवर्गीय लेखक की दृष्टि से शायद ही पड़े।

मोहन राकेश स्त्री चरित्रों में बहुत विविधता है। उनके लेखन में स्थिर वास्तुओं के मनोहर वर्णन मिलते हैं, उनका प्रकाश तथा ध्वनि का प्रयोग दिलचस्प है। इसी प्रकार उनकी कथन-तकनीक की भी अपनी अलग विशेषता है, प्रायः अन्य पुरुष में दिए जा रहे कथन के बावजूद ऐसा लगता है जैसे हम संसार को किसी पात्र की आँखों से ही देखते हों। उनके द्वारा रचे गए अकेले व्यक्ति की कुंठा तथा शहरी या ग्रामीण परिवेश का निरूपण भी अपने आप में विशेष है। उनके स्त्री पात्रों को ठीक से समझने के लिये उनके जीवन परिचय को जान लेना भी आवश्यक है।


मोहन राकेश का जीवन

मोहन राकेश और उनके स्त्री पात्रों पर उनके अपने जीवन का प्रभाव देखा जा सकता है। उन्होंने ८ जनवरी १९२५ को अमृतसर के एक बुद्धिजीवी परिवार में जन्म लिया था वकील पिता के असमय देहांत के बाद परिवार की देखभाल करने का बोझ राकेश के कन्धों पर आ गया माँ की अथक सहायता के कारण वे लाहौर विश्वविद्यालय से हिंदी और अंग्रेजी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। भारत के विभाजन के समय अपने शहर लाहौर छोड़ने तथा बहन की असमय मृत्यु का उन पर गहरी प्रभाव पड़ा। उन्होंने भारत के विभिन्न शहरों में अपना जीवन बिताया जैसे दिल्ली, पंजाब के अमृतसर, जालंधर, पठानकोट और हिमांचल प्रदेश के कुल्लू, मनाली, तत्ता पानी, डलहौजी शिमला और मुंबई में। इस दौरान उन्होंने हिंदी के अध्यापक का कार्य भी किया, लेकिन लगातार अपनी रचनाओं के पारिश्रमिक से जीवन यापन का प्रयत्न करते रहे ।

उन्होंने तीन विवाह किये थे। पहली पत्नी शीला से एक पुत्र नवनीत का जन्म हुआ लेकिन १९५७ में तलाक के बाद माँ उसे अपने साथ ले गयी। उनकी कहानी ‘’एकऔर जिंदगी ‘’ इसी दुखद प्रसंग पर आधारित है। कुछ अंतराल के बाद उन्होंने पुष्पा के साथ दूसरी शादी की लेकिन यह विवाह मूल रूप से परिवार की अपेक्षा और मित्रों की प्रेरणा से हुआ था, और ज्यादा देर तक नहीं टिक पाया। इसके असफल होने बावजूद पुष्पा ने तलाक देने की कभी स्वीकृति नहीं दी। कुछ सालों बाद जब उनकी आयु लगभग ४० वर्ष की थी एक युवती अनिता से उनकी भेंट हुई और उन्होंने ने गान्धर्व विवाह कर लिया। इसका पता जब रिश्तेदारों को लग गया तो वो मुंबई जाने को मजबूर हो गये। उनके दो बच्चे हुए, पूर्वा और शालीन। मोहन राकेश के लिए लेखन और दोस्तों का दायरा पहली जरूरत थे। पारिवार को वे दूसरे स्थान पर रखते थे। उनकी सामाजिक तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि के विषय में उनकी ‘’आत्मकथा परिवेश‘’ उनकी डायरी, अनिता और कमलेश्वर के संस्मरण (चंद सतरें और मेरा हमदम मेरा दोस्त ), उनकी टिप्पणियों और उनकी रचनाओं से जाना जा सकता है।

युवा स्त्री चरित्रों की कहानियाँ

उनकी अनेक कहानियों में महिला पात्रों का चित्रण विस्तार से हुआ है। अगर उनकी वे १२ कहानियाँ न देखें जो उनके दिल के दौरे से हुए निधन के बाद प्रकाशित हुईं, तो चौवन कहानियों में से १३ ऐसी हैं जिनमे मुख्य पात्र महिला है और सात ऐसी जिनमें महिला पात्र मुख्य तो नहीं पर फिर भी उसका चरित्र महत्वपूर्ण है।

मोहन राकेश के प्रथम कहानी संग्रह में मरुस्थल, उर्मिल जीवन तथा सीमाएँ नामक कहानियाँ बालिकाओं –किशोरियों के पारंपरिक परिवेश की समस्याएँ सामने लाती हैं । मरुस्थल की नायिका इंदु एक बच्ची है जिसे बचपन से राजपरिवार की माता एवं नर्तक परिवार के पिता के बीच फैले द्वंद्व के बीच पलना एवं बड़ा होना पड़ता है। यद्यपि वह अपनी माँ के साथ जाना चाहती है जो मुंबई के एक नालायक होटल वाले साथ भाग जाती है, पिता उसे जाने से रोक लेता है। इन घटनाओं को हम बच्ची की आँखों से देखते हैं। मोहन राकेश के कहानी कहने का यह तरीका और कहानियों में भी नज़र आता है। 'उर्मिल जीवन' और 'सीमाएँ' ऐसी ही दो और कहानियाँ हैं। 'उर्मिल जीवन' में बीर की शादी उसकी बहन की मृत्यु पर जबरन उसके जीजा से करवा दी जाती है। इस कहानी में सुहागरात के दिन नायिका की भावनाएँ और अनुभव का संवेदनात्मक वर्णन हैं। 'सीमाएँ' की उमा हीनता की ग्रंथि से ग्रस्त है और पुरुषों के साथ उसका ज्यादा अनुभव नहीं हुआ है। रात की आरती के समय मंदिर में एक लड़के से मिलती है, और मंदिर से बाहर निकालने पर अपनी गर्दन उसी जगह पर छूती है, जहाँ उस लडके –किसी भी लडके- का पहली बार स्पर्श महसूस किया। वह जान जाती है कि हार गायब हो गया है। ये कहानियाँ सामाजिक समस्याओं को महिलाओं के सन्दर्भ में दिखाती है लेकिन संकटों से अकेली लड़ते हुए नहीं दिखातीं। ध्यान दिया जाए कि ये कहानियाँ उनके विवाह से बहुत पहले प्रकाशित हुई थीं।

१९५७ में 'नए बादल' संग्रह के साथ उनकी कहानियों में एक नयी ध्वनि सुनाई देती है ‘उसकी रोटी ‘छोटे से गाँव के परम्परागत परिवेश में जालंदर और नकोदर के बीच कहीं घटित होती है, जहाँ औरतें पति की उपेक्षा सहती कभी कदा अन्य पुरुषों की छेड़छाड़ का शिकार बन जिंदगी गुजारती है। नायिका बालो का ड्राइवर पति जीवन का आनंद लेते हुए अपनी उस पत्नी का शोषण करता जाता है जो उसके लिए अनावश्यक ताज़ी रोटी का इंतजाम करती जाती है। राकेश न केवल कोई घटनाक्रम हमारे सामने लाते हैं, जैसे ठाकुर का कुआँ में बल्कि दुनिया की बातें सिर्फ सीमित रूप से समझती बालो की आँखों से ये घटनाएँ हमें दिखाते हुए मूल संवेदना के बिलकुल निकट ले आते हैं जिससे अनेक न कही गई बातें भी हमारी समझ में आ जाती हैं। ’भूखे‘ और ‘अपरिचित‘ का विषय मोहन राकेश की लोकगत छवि से अधिक मिलता है, इनमें पात्र एवं परिवेश पारंपरिक नहीं है।

‘’अपरिचित’ एक ट्रेन सफर पर आधारित है। कथा वाचक ठिठुरती रात में ट्रेन का सफ़र कर रहा है, नवजात शिशु संभालती हुई एक स्त्री उसकी हमसफर है। दोनों की बातचीत औपचारिक रूप से धीरे धीरे शुरू होती है। आगे चलकर मालूम होता कि वह औरत अपने पति से मिलने जा रही है, जो अभी विद्यार्थी ही है और बच्चे का लालन पालन स्त्री के स्वयं ही करना पड़ता है। कथा वाचक जब झपकी लेता है तब रात के कोहरे में वह स्त्री बिना विदा लिये ओझल हो जाती है । ‘भूखे ‘का विषय बहुत ही अजीब एवं अनूठा है। यह कहानी एक अंग्रेज महिला और उसके बालक की है। इस महिला ने एक भारतीय चित्रकार से शादी की थी। उन्होंने मुंबई में बसने और मात्र पति की कला पर निर्भर होने का प्रयत्न किया लेकिन पति क्षय रोग का शिकार हो जाता है और उपचार पाने के लिए शिमला जाना पड़ता हैं। यहाँ थोड़े समय के अनंतर पति की मृत्यु हो जाती है। अब पत्नी पति के अधूरे चित्र बेचने लग जाती है जो होटलवालों की सद्भावना से वहीं आयोजित एक प्रदर्शनी में लगाए गए है। इस कहानी में यह काल्पनिक औरत अंग्रेज बतायी जाने पर भी किसी भारतीय धर्मपत्नी से कम नहीं है।

जटिल महिला चरित्रों वाली कहानियाँ

इसके पश्चात मोहन राकेश की कहानियाँ अधिक विस्तृत और जटिल स्त्री चरित्रों को प्रदर्शित करती हैं। उनकी कहानी आर्द्रा एक मात्र ऐसी कहानी है जिसमे माँ का विस्तृत चरित्र मिलता है। मोहन राकेश ने अपनी डायरी में माँ को अन्नपूर्णा कहकर संबोधित किया है, उनकी यह कहानी भी माँ के त्याग और बलिदान की कहानी है। अपने दोनो ही बेटों की उदासीनता का शिकार यह माँ एक से दूसरे बेटे के घर भटकती हुई, बिना किसी अपेक्षा के दोनो को स्नेह और सहयोग प्रदान करती रहती है। ’रोज़गार‘, ’आखिरी सामान’,’फौलाद का आकाश’, ‘खाली’, ‘सुहागिने’ और ‘मिस पाल’ सभी चरित्र बिना कोई अपेक्षा किये दुनिया को वात्सल्य बाँटने वाले चरित्रों की कहानियाँ हैं।

मिस पाल कहानी का नायिका अविवाहित महिला हैं। यह स्थिति भारत में आजकल भी कम ही देखने को मिलती है फिर ५० के दशक की कल्पना की जा सकती है। साँवले रंग की कुछ स्थूल इस महिला को उसके सहकर्मी हर पल चिढ़ाते रहते हैं। उनसे परेशान और निराश होकर नायिका अपनी दिल्ली की नौकरी छोड़ एक छोटे से पहाड़ी शहर रायसन में जा बसती है। कहानी मिसपाल के एक पूर्व सहकर्मी द्वारा कही गई है, जो अकेला मिस पल के साथ अच्छा रिश्ता रखता था और कभी कभी उसके घर पर भी जाया करता था जहाँ वह अपने पालतू कुत्ते पिंकी के साथ रहती थी। संयोग से वे दोनो रायसन में मिल जाते हैं और रणबीर एक रात रुकने का फैसला करता है। उसे धीरे धीरे मालूम पड़ता है कि मिस पाल की ज़िंदगी पहले से ज्यादा खुश नहीं है, बल्कि और अकेली है। पिंकी का देहांत हो चुका है और एकांत में चित्र बनाने और सितार बजाने में भी उसकी रूचि नहीं रही है। उसका अव्यवस्थित रहन सहन उसकी आतंरिक अस्थिरता और गरीबी की तस्वीर प्रस्तुत कर देते हैं। त्यागपत्र देने के बाद भी सहकर्मियों की अपने प्रति हो रही गपशप के विषय में रूचि फिर भी बनी हुई है। कहानी में बिना बताए यह स्पष्ट हो जाता है कि नायिका की इस अस्थिरता का स्रोत बिना प्रेम के बीता बचपन है।

मोहन राकेश हर बार अपनी कहानियाँ किसी उद्धरण या उपदेश से समाप्त नहीं करते। लेकिन इस कहानी में अंतिम दृश्य मिस पाल की निराशा दिखाने में बड़ा प्रभावशाली है। रणबीर के निकालने पर मिस पाल उसके लिए बस की टिकट खरीदती है इतने में स्कूल के बच्चों का झुण्ड उसकी मरदाना सूरत की ओर इशारा करके हँस देता है। वह यह नज़रंदाज़ करने की चेष्टा करती है और रणबीर से कहती है कि ये बच्चे कितने प्यारे हैं। उसकी लिपस्टिक पुँछ जाती है, कमीज के बाजू के सिवान फटने को हैं। उसके दयनीय रूप के समान उसका जीवन भी दयनीय है। कहानी के अंत मिस पाल सारा विरोध और प्रतिकार छोड़कर अपना प्रारब्ध स्वीकार कर लेती है।


मोहन राकेश पर की कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों का मनोवैज्ञानिक चित्रण मिलता है। ‘क्वार्टर’, ‘गुनाह बेलज्ज़त’, ‘एक और जिदंगी’ या ‘सेफ्टी पिन’ कहानियों में इन संबंधों को स्पष्टता से चित्रित किया गया है लेकिन ये कहानियाँ किसी एक महिला पर केंद्रित नहीं है। शायद इनमें कुछ यथार्थ जीवन में आई महिलाओं का रेखा चित्र देखा जा सकता है।
मोहन राकेश ने लगभग ३० साल की अवधि में चौवन से अधिक कहानियाँ नहीं लिखीं लेकिन वे उन्हें पहली बार प्रकाशित होने तक बार बार संशोधित करते रहे, कई बार प्रकाशित होने के बाद भी उन्होंने इनमें महत्त्वपूर्ण परिविर्तन किये। शायद इसलिए उनकी कहानियों ने हिंदी साहित्य में महिला पात्रों को एक नई पहचान दी है

 २ अप्रैल २०१२

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