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बाल साहित्य में नवलेखन
डॉ.
चक्रधर नलिन
बाल
साहित्य की संरचना बच्चों के संसार को ज्ञान-विज्ञान
की अतुल संपदा से समृद्ध और प्रभामय करना है जिससे
उनकी कल्पनात्मक अभिवृत्तियों और संवेदनाओं का विकास
हो सके। प्राचीन काल के महान लेखकों ने अपनी कृतियों म
ऐसे प्रसंगों का उल्लेख किया जो बच्चों का पर्याप्त
मनोरंजन कर सकें तथा उनके भविष्य-पथ का मार्गदर्शक भी
बनें। बाल साहित्य को पृथक रूप से लेखन की विधिवत्
परम्परा का श्रीगणेश उन्नीसवीं सदी माना जाता है।
१९वीं, २०वीं तथा ५०वें दशक तक का रचित बाल साहित्य
उपदेश एवं संदेश प्रधान है जिसका परिणामगत निष्कर्ष ही
बच्चों में चरित्र्गत मूल्यों का विकास करता है। वर्ष
१९०० ई. से १९७५ के बीच का लिखित बाल साहित्य
विविधवर्णी, विविध विषयक, नवीनतम भावभूमि पर आधारित
रचने की ओर हमारे बाल साहित्यकारों का ध्यान हुआ।
नव बालगीत, नव शिशुगीत, नई शब्दावली, नये तेवर, शिल्प,
चमत्कारिता पूर्ण वसन कर पहली बार ‘पराग’ (मासिक),
‘मेला’, ‘बाल मेला’, ‘अमर उजाला’, ‘धर्मयुग’ (बच्चों
का पन्ना), ‘नवभारत टाइम्स’ आदि पत्र्-पत्रिकाओं में
दिखाई पडे।
कविता सभी साहित्य की धुरी और प्रतिनिधि है। इसलिए
हिन्दी बाल-काव्य में नव लेखन का सर्वाधिक प्रभाव
परिलक्षित होता है। कौतुकपूर्ण ऐसी रचनाएँ शनैः शनैः
सीधे बालमन का स्पर्श करती हैं। विषय-वस्तु का वैविध्य
व शिल्पगत सौंदर्य, नव लेखन को पर्याप्त प्रोत्साहित
करता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (१९२७-१९८३
पिवप्रराःबस्ती) हिन्दी नवकाव्य लेखन के सशक्त
हस्ताक्षर हैं। वह आधुनिक रंग, ढंग, गति और अंदाज देने
वाले कवियों में प्रमुख हैं। उनकी ‘बतूता का जूता’
रचना में नये शिल्पगत सौंदर्य और बाल सुलभ कौतुहल के
दर्शन होते हैं-
इब्न बतूता
पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में,
थोडी हवा नाक में घुस गई,
घुस गई थोडी कान में।
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्न बतूता
इसी बीच में निकल पडा
इनके पैरों का जूता।
उडत-उडत जूता उनका
जा पहुँचा जापान में,
इब्न बतूता खडे रह गए
मोची की दुकान में।
पं. सूर्यकुमार पांडेय अपनी बाल कविताओं में यथार्थ को
नयापन देते हैं। ‘एक पान का पत्ता’, ‘कक्का’, ‘माँ,
मैं भी सचिन बनूंगा’। नव लेखन की ओर इंगित करते हैं।
उनका सौंदर्य आदि बहुत गहरा है। उनकी ‘धूप’ रचना में
ताजगी तथा नवीनतम उपमानों की छटा देखते ही बनती है -
आकर बैठी दरवाजे पर, उछली, पहुँच गई छज्जे पर। वह
नन्हीं चिड़िया सी धूप। पल में आ जाती धरती पर, पल में
हो जाती छू-मंतर - जादू की पुडया सी धूप। लुढक रही
कमरे के अंदर, बैठी मस्ती सी बिस्तर पर। जापानी चिडया
सी धूप। फ आम से गालों वाली और सुनहरे बालों वाली -
लगती है बुढ़िया सी धूप।
श्री दामोदर अग्रवाल, सूर्यभानु गुप्त, डॉ. शेरजंग
गर्ग, बालस्वरूप राही, योगेन्द्र कुमार लल्ला,
कन्हैयालाल मत्त, प्रयाग शुक्ल, चन्द्रपाल सिंह यादव
मयंक, नारायण लाल परमार, शांति अग्रवाल, सरस्वती कुमार
दीपक, बालकृष्ण गर्ग, उमाकांत मालवीय, शकुंतला
सिरोठिया आदि ने अपने-अपने ढँग से एक से एक बढया
कविताएँ बालोचित भाषा शैली में रचनाएँ लिखीं। डॉ.
श्रीप्रसाद के नवगीत सांस्कृतिक चेतना और परिवेश की
उपज हैं। वे बहुशब्दों और वाक्यांशों की आवृत्ति से एक
विशिष्ट लय उत्पन्न करते हैं। उनकी कविताएँ चित्र्मय
और चरित्र्मय हैं -
हल्लम हल्लम हौदा हाथी चल्लम चल्लम ।
हम बैठे हाथी पर हाथी हल्लम हल्लम ।
लंबी-लंबी सूंड फटाफट फट्टर फट्टर ।
लम्बे लम्बे दांत खटाखट खट्टर खट्टर ।
भारी भारी सूंड झटकता झम्मम् झम्मम् ।
हल्लम हल्लम हौदा हाथी चल्लम चल्लम ।
इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कवियों ने भी हिंदी बाल कविता
की ध्वजा फहराई है, जिनमें प्रमुख हैं - चन्द्रदत्त
इंदु, विष्णुकांत पांडेय, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, डॉ.
श्रीमती उषा यादव, डॉ. राष्ट्रबंधु, हरेन्द्रनाथ
चट्टोपाध्याय, शिव कुमार गोयल, डॉ. रामजी मिश्र,
इंदिरा परमार, विनोद चंद्र पाण्डेय, बाबूलाल शर्मा
प्रेम, जगदीशचन्द्र शर्मा, रामकृष्ण शर्मा खद्दर,
सुमित्र कुमारी सिन्हा, डॉ. चक्रधर नलिन, शंभुनाथ शेष,
बेनीमाधव शर्मा, डॉ. चन्द्रप्रकाश वर्मा, किशोरीरमण
टंडन, डॉ. प्रभाकर माचवे, भारतभूषण अग्रवाल, रघुवीर
शरण मिश्र, डॉ. देवेन्द्रदत्त तिवारी, होरीलाल शर्मा,
तरुण भाई, लाला जगदलपुरी, कृष्णकांत तैलंग, विद्यावती
मिश्र, कृष्णकांत तैलंग, हंसकुमार तिवारी, लाला
जगदलपुरी, लक्ष्मीकांत वर्मा, कल्पनाथ सिंह, विनायक,
शिवशंकर मिश्र, चन्द्रशेखर मिश्र, लक्ष्मीकांत वर्मा,
राजानंद दोषी, चन्द्रसेन विराट, रामभरोसे गुप्त राकेश,
धर्मपाल शास्त्री, डॉ. शोभनाथलाल, प्रेमनारायण गौड,
कामिनी दीदी, रामावतार चेतन, डॉ. अजय जनमेजय,
भीष्मसिंह चौहान, वीरेन्द्र मिश्र, रामावतार त्यागी,
राधेश्याम प्रगल्भ, संतकुमार टंडन रसिक, भैरूंलाल गर्ग
आदि।
श्री विष्णुकांत पाण्डेय (१९३३ ई.) की निम्न पंक्तियों
के समतुल्य हिन्दी बालकाव्य के इतिहास में देखने को
नहीं मिलती हैं -
फोन उठाकर कुत्ता बोला -
सुनिए थानेदार,
घर में चोर घुसे हैं, बाहर
सोया पहरेदार ।
मेरे मालिक डर के मारे
छिप बैठे चुपचाप,
मुझको भी अब डर लगता है
जल्दी आएँ आप ।
डॉ. श्रीकृष्णचन्द्र तिवारी ‘राष्ट्रबंधु’ (१९३३ ई.)
की कविताओं में नवयुग का शंखनाद है। उन्होंने लोकगीतों
की शैली में नए शिल्प को अपनाया है। ‘कतंक थैया’,
‘टिली लिली’, ‘मामाजी’ आदि उनकी प्रतिनिधि काव्य
कृतियाँ हैं। श्री विनोदचन्द्र पांडेय विनोद (१९४०)
बाल साहित्य के शलाका पुरुष हैं जिनकी रचनाएँ
बाल-सौंदर्य से मंडित हैं। श्री भवानीप्रसाद मिश्र की
‘फागुन का गीत’ चन्द्रसेन विराट की ‘मुन्ना सीख रहा है
- चलना।’ जयप्रकाश भारती की ‘पगली मौसी’, कृष्ण शलभ की
‘छुट्टी नहीं मनाते’, ‘मूंगफली’, पद्मा चौगावकर की ‘घी
की मटकी’, ‘घंटा बोला’, हरिकृष्ण देवसरे की ‘कविवर
तोंदूराम’ तथा श्याम सिंह शशि की ‘उडा कबूतर’,
‘बालवर्ष’, ‘राकेट’ आदि इक्कीसवीं सदी की बहुमूल्य
कविताएँ हैं जिन्हें पढकर बच्चे चमत्कृत हो जाते हैं
तथा इनका शिल्प और रचना विधान बच्चों में नव स्फूर्ति
और नव उमंग उत्पन्न करते हैं।
सुप्रसिद्ध समीक्षक प्रकाश मनु ने अपने इतिहास ग्रंथ
में लिखा है कि चक्रधर नलिन और रामवचन सिंह ‘आनन्द’ ने
भी बच्चों के लिए निरंतर अपने ढंग की कविताएँ लिखकर
हिन्दी बाल साहित्य को गति दी है।
चक्रधर नलिन ने ‘सैर’ पर एक और कल्पनाशील कविता लिखी
है जिसमें अंतरिक्ष का मानो आँखों देखा चित्र्ण है।
‘‘पंख लगाए, जा रहे ग्रह तारों की ओर/हवा नहीं छू पा
रही, हँस कर मिलता है गगन/बादल, बिजली, रोशनी, सूरज,
चंदा ध्रुव मगन/धरती से ऊपर-ऊपर ग्रह, नक्षत्र् बुला
रहे/आकर्षण की डोर से पेंगे मधुर झुला रहे/ सौ-सौ सूरज
पा रहे, यहां न संध्या-भोर।’’
हिन्दी बालकाव्य को गतिवान बनाने की दिशा में
हरि मृदुल (१९६९ ई.), हरीश दुबे (१९६०), हरीश निगम
(१९५५), हरिश्चन्द्र (१९५०), होरीलाल शर्मा (१९१३),
साजिद खान (१९७६), सरिता शर्मा (१९६४), सुमन विस्सा
(१९६३), सुधीर सक्सेना सुधि (१९५६), सूरजपाल (१९५५),
सफदर हाशमी (१९५४), संतोष कुंवर (१९५२), सुरेश विमल
(१९५०), सूर्यभानु गुप्त, सरोजनी प्रीतम (१९३९), सुरेश
सपन (१९४७), सावित्री परमार (१९३८), सरोजिनी अग्रवाल
(१९३८), श्रीकांत जोशी (१९३०), शिवचरण चौहान (१९६१),
शंभुनाथ तिवारी (१९६२), श्याम सुशील (१९५७), शैलेश
पंडित (१९५५), शिव गौड (१९५५), रमेशचन्द्र पंत (१९५४),
रवीन्द्र शलभ (१९४६), रमेशचन्द्र शाह (१९३७) आदि का
अवदान सदैव सराहनीय माना जायेगा।
इस कालखण्ड की अनेक बालकाव्य निधियों से बालकाव्य की
समृद्धि का परिचय मिलता है। ऐसी प्रमुख उल्लेख्य
पुस्तकों में ‘सफेद रसगुल्ले’ (डॉ. हरिकृष्ण देवसरे),
छपछैया (साजिद खान), बंदर जी की दुम (सूर्यकुमार
पाण्डेय), काना बाती (सुरेश विमल) बतूता का जूता,
भों-भों-खों-खों (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना), गौरव-गीत
(पं. सोहनलाल द्विवेदी), आ‘री कोयल (डॉ. श्रीप्रसाद),
पक्षी उतरे फुर, फुर, फुर (शेरजंग गर्ग), कारे मेघा
पानी दे (शकुन्तला सिरोठिया), जादूगर बादल (विनोद
भृंग), मच्छर मामा समझ गया हूं (लक्ष्मीशंकर वाजपेयी),
दूब के मोती (अज्ञात), कुकडूँ कूँ (रामेश्वर दयाल
दुबे), दादी अम्मा मुझे बताओ (बालस्वरूप राही), मटर के
दाने (निरंकार देव सेवक), नानी का गांव (आर.पी.
सारस्वत) आदि हैं।
बाल साहित्य की गद्यधारा के अनेक उपविधानों में भी कम
प्रभावशाली लेखन नहीं हुआ। उपन्यास लेखन में अमृतलाल
नागर (बजरंगी नौरंगी), बजरंगी पहलवान, बजरंगी स्मगलरों
के पंजे से लेकर राकेश चक्र (कंजूस गोन्तालू) तक लगभग
ढाई-तीन सौ स्तरीय बाल उपन्यास प्रकाश में आए हैं
जिनमें बाल समस्याओं से लेकर उनके परिवेश, शिक्षा,
भाषा, सामाजिक दशा, ग्रामीण एवं शहरी वातावरण पर अनेक
उपन्यास रचे गये हैं। जयप्रकाश भारती का भारत-पाक भूमि
पर युद्धाधारित उपन्यास ‘नमक का कर्ज’, दलित शोषित
समस्या पर ‘बर्फ की गुडया’ अपने समय की महत्त्वपूर्ण
कृतियाँ हैं।
‘नन्हा बलिदानी’ (जगदीश व्योम), ‘एक था छोटा सिपाही’
(विमला शर्मा), ‘पेड नहीं काट रहे हैं’ (देवेन्द्र
कुमार), ‘बहादुर लडका’ (शिवसागर मिश्र), ‘माँ का आंचल’
(शांति भटनागर), ‘खोखला सिक्का’ (अवतार सिंह), ‘कुंदन’
(अमरनाथ शुक्ल), ‘बालसेना’ (भगवती शरण मिश्र) इस युग
के श्रेष्ठ उपन्यास हैं।
राधेश्याम प्रगल्भ (शाही हकीम), मनोहर वर्मा (हम सब एक
हैं तथा सात अन्य), शंकर सुल्तानपुरी (मामा खैरातीलाल,
मिट्टी की राजकुमारी तथा ग्यारह अन्य), विभा देवसरे
(शनि लोक), राजकुमार जैन (नकली चांद), डॉ. हरिकृष्ण
देवसरे (आल्हा-ऊदल, डाकू का बेटा, चटपट चंदू आदि) आदि
ने मानवतावादी समतामूलक बाल उपन्यास लिखे हैं जिनसे
बच्चे प्रेरित हुए बिना नहीं रहेंगे।
शैक्षिक परिवेश पर लिखे गए उपन्यासों में रमेश थानवी
का ‘घडयों की हडताल’, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना का
‘स्वप्नलोक’, ‘काफिले का सूरज’, ‘बच्चों की वापसी’
प्रमुख है। इसके अतिरिक्त डॉ. उषा यादव ने भी कई
उपन्यास लिखे हैं, यथा ‘सोना की आँखें’, ‘पारस पत्थर’
(बाल मनोविज्ञान पर), ‘नन्हा दधीच’, ‘लाखों में एक’
(लडकियों के गुणों पर आधारित), ‘सबक’ (पालतू कुत्ते की
वफादारी) आदि।
इक्कीसवीं शताब्दी विज्ञान और प्रोद्योगिकी की सदी है।
इस कालखण्ड के प्रमुख एवं श्रेष्ठ ‘चरखी का बेटा’
(विनायक), ‘घना जंगल काम’ (हरिकृष्ण देवसरे), ‘अल्लू’
(साजिद खान), ‘चीन का चिडयाघर’, ‘एक था ठुनठुनिया’
(प्रकाश मनु), ‘चंदू-नंदू की हैरानी वाली हरकतें’,
(प्रदीप पंत), ‘नाहर सिंह के कारखाने’, ‘घर था
चिड़ियाघर’ (क्षमा शर्मा), ‘होनहार’ (प्रेम
चन्द्रगुप्त विशाल), ‘अपने हाथ सफलता है’ (राजा
चौरसिया), ‘कंजूस गोन्तालू’ (राकेश चक्र), ‘मिशन
आजादी’ (जाकिर अली रजनीश), ‘काजू और किशमिश’ (श्रीमती
रतन शर्मा), ‘माधवी कन्नगी’ (चित्र मुद्गल), ‘दूसरा
पीठ’ (क्षमा शर्मा), ‘भाग्य का खेल’ (शंकर बाम) आदि
संग्रहणीय कृतियाँ हैं।
आनन्द प्रकाश जैन, भूपनारायण दीक्षित, नरेन्द्र कोहली,
ठाकुर दत्त, धर्मवीर, कनक आदि के उपन्यास सचमुच मील का
पत्थर हैं। कंजूस गोन्तालू और मिशन आजादी इस युग की
श्रेष्ठ औपन्यासिक उपलब्धियाँ हैं।
बाल कहानियाँ तथा बाल जीवनियों के क्षेत्र् में
इक्कीसवीं सदी मुख्य केन्द्र बिंदु रही है।
गुणाकर मुले, शुकदेव प्रसाद, प्रकाश मनु, ललित
शुक्ल, जयप्रकाश भारती, डॉ. चक्रधर नलिन, लाल बहादुर
सिंह चौहान, व्यथित हृदय, डॉ. श्याम सिंह शशि, गोविन्द
नारायण मिश्र, डॉ. राष्ट्रबंधु, रत्नप्रकाश शील, कमलेश
शंकर, उमाकांत मालवीय, प्रेमनारायण गौड, ललित नारायण
उपाध्याय, रामस्वरूप दुबे, रमाकांत श्रीवास्तव आदि
द्वारा रचित जीवनियाँ पठनीय हैं। ‘भारत की वीरांगनाएँ’
(उषा बाला), ‘भारत की संत महिलाएँ’, ‘हमारे समाज
सुधारक’ (विभा देवसरे), ‘ऐसे थे चाचा नेहरू’ (स्नेह
अग्रवाल), ‘आदर्श जीवनियाँ’, ‘विश्व-विभूतियाँ’
(चक्रधर नलिन), ‘१८५७ की वीरांगनाएँ’ (स्नेहलता) आदि
प्रेरक जीवनियाँ हैं।
कहानी लेखन के क्षेत्र् में वर्ष १९५० बडा शुभ वर्ष
माना जाता है। इस कालखण्ड में बाल कहानी के अनेक रूप
सामने आते हैं। उदाहरण स्वरूप उद्देश्य प्रधान बाल
कहानियाँ, पशु-पक्षी सम्बन्धी बाल कहानियाँ, ऐतिहासिक
कहानियाँ, साहसिक कहानियाँ, वैज्ञानिक बाल कहानियाँ,
पौराणिक एवं वैदिक, उपनिषदीय बाल कहानियाँ, सामाजिक,
समसामयिक बाल कहानियाँ, हास्य विनोदपरक बाल कहानियाँ,
जातक कथाएँ, परीकथा तथा लोककथा परक बाल कहानियाँ, गीत
कथा आदि।
वर्ष १९९० के पश्चात् बाल कहानियों के दर्जनों संकलन
तथा संग्रह प्रकाश में आए। बाल कहानियों के अनेक संकलन
छपे जिनमें बालिकाओं की श्रेष्ठ कहानियाँ (डॉ. नागेश
पाण्डेय संजय), हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ (डॉ.
उषा यादव, डॉ. राजकिशोर सिंह), इक्यावन ऐतिहासिक बाल
कहानियाँ (२००१ : रामशंकर), रोचक एवं चरित्र् निर्माण
सम्बन्धी कहानियाँ (डॉ. दर्शन सिंह आशट), इक्कीसवीं
सदी की बाल कहानियाँ (जाकिर अली रजनीश), प्रतिनिधि
कहानियाँ (मनोहर वर्मा) अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से बाल कथाओं के अनेक
संग्रह छपे, जिनमें ‘हाजिर जवाब’ (डॉ. जाकिर अली
रजनीश), ‘समय के सवाल’ (प्रेमपाल शर्मा), ‘१२
प्रतिनिधि बाल कहानियाँ’ (मिथिलेश्वर), ‘साहसिक
कहानियाँ’ (डॉ. चक्रधर नलिन), ‘तलाश’ (जयप्रकाश),
‘इक्यावन कहानियाँ’ (स्वयं प्रकाश), ‘तारीफ के पुल’
(विनोद नारायण चौबे), ‘यथासमय’ (शरद जोशी), ‘अस्पताल
में लोकतंत्र्’ (विनोद शंकर चौबे), ‘फ्लोरेंस
नाइटेंगिल’ (डॉ. श्रीप्रसाद), ‘बालोत्सव’ (रामनिरंजन
शर्मा ठिमाऊ), ‘सुनें कहानी’ (दर्शन सिंह आशट), ‘मामा
का गांव’ (शकुन शर्मा), ‘माँ’, ‘माँ का उपहार’, ‘सुमन
माला भाग १-२’ (डॉ. शकुन्तला सिरोठिया), ‘फौजी का
बेटा’ (चमन अखिलेश), ‘सबसे सुन्दर लडकी’, ‘८३
कहानियाँ’ (विष्णु प्रभाकर), ‘भुलक्कड पापा’ (प्रकाश
मनु) आदि-आदि उल्लेखनीय अति उपयोगी और महत्त्वपूर्ण
हैं।
स्वप्निल वर्ष २००६ में रमाशंकर के संपादन में
प्रकाशित अन्तरिक्ष का लोक/विज्ञान बाल कथाएँ। ३१ परी
कथाएँ। मनोवैज्ञानिक बाल कहानियाँ बच्चों के लिए
महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं। डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय,
शुकदेव प्रसाद, गुणाकर भुले, चक्रधर नलिन, गोरखनाथ,
घमण्डीलाल अग्रवाल, आदि ने विज्ञानाधारित प्रचुर बाल
साहित्य की रचना की है।
२१वीं सदी, बाल साहित्य की समृद्धि की सदी है। इसके
प्रारम्भिक वर्षों में कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें
प्रकाशित हुई जिनमें श्रीकृष्ण शलभ की ‘बचपन एक
समुन्दर’, (६६ से अधिक नवगीतों का संकलन), श्रीमती
शकुन्तला कालरा द्वारा प्राप्त हिन्दी के प्रमुख
साहित्यकारों की साक्षात्कार कृति ‘हिन्दी बाल साहित्य
विमर्श’ तथा देवपुत्र् मासिक के यशस्वी संपादक श्री
कृष्ण कुमार अष्ठाना द्वारा देवपुत्र् बाल मासिक के
श्रेष्ठ सम्पादकीय आलेखों का संग्रह ‘खिलते फूलों से’
तथा ६ साहित्यकारों के संस्मरण (रमाशंकर) ‘देश प्रेम
के गीत’ (घमण्डीलाल अग्रवाल) आदि उल्लेखनीय उपलब्धियाँ
हैं।
मूलचन्द अजमेरा के ‘ग्राम्य जीवन : एक रेखांकन’ २४
चित्रें की झांकी बच्चों को अतीत-दर्शन में सफल सिद्ध
होगी।
प्रकाश मनु हिन्दी बाल साहित्य को स्थायित्व प्रदान
करने में पूरी शक्ति से लगे हैं। ‘बाल साहित्य का
इतिहास’ तथा ‘हिन्दी बाल कविता का इतिहास’ लिखकर अपना
स्थान सुनिश्चित करने वाले डॉ. चन्द्रप्रकाश मनुजी
अनुशंसा के पात्र हैं।
बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र् में एक बडा काम डॉ.
नागेश पांडेय संजय ने ‘बाल साहित्य के प्रतिमान’ दो सौ
चालीस पृष्ठ का समीक्षा महाभाष्य लिखकर किया है। इसके
पूर्व १९५२ में ज्योत्सना द्विवेदी का ‘हिन्दी किशोर
साहित्य’, देवेन्द्रदत्त तिवारी की कृति ‘बाल साहित्य
की मान्यताएँ एवं आदर्श’, श्री निरंकार देव सेवक ‘बाल
गीत साहित्य’, मस्तराम कपूर उर्मिल का ‘हिन्दी बाल
साहित्य : एक अध्ययन’, ‘हिन्दी बाल साहित्य का
विवेचनात्मक अध्ययन’, जयप्रकाश भारती की ‘बाल साहित्य
स्वर्ण युग की ओर’, ‘बाल साहित्य : २१वीं सदी’ समीक्षा
क्षेत्र् की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं।
पुस्तक-समीक्षा मूल्यांकन के अतिरिक्त बाल साहित्य,
साहित्यकार, सम्बन्धित समस्याओं पर निरन्तर लिखने वाले
विद्वान लेखकों में डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, डॉ.
श्रीप्रसाद, डॉ. नागेश पाण्डेय, डॉ. सुरेन्द्र विक्रम,
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, डॉ. चक्रधर नलिन, डॉ. सुनीता,
डॉ. राष्ट्रबंधु, डॉ. शकुन्तला कालरा, डॉ. भैरूंलाल
गर्ग, विनोद चन्द्र पाण्डेय ‘विनोद’, अखिलेश, श्री
चमन, डॉ. प्रकाश मनु, डॉ. ओम प्रकाश सिंघल, डॉ.रत्नलाल
शर्मा, डॉ. उषा यादव, डॉ. बानो सरताज, डॉ. श्याम सिंह
शशि आदि प्रमुख रूप से उल्लेख्य हैं।
१९
नवंबर २०१२ |