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साहित्यिक निबंध


अँधेरे में एक दिया तो बालो
-ओम निश्चल


दीवाली आती है तो रोशनियों के चंदोवे से पूरा क्षितिज जैसे तन-सा जाता है। मँहगाई के बावजूद लोग अपनी अपनी हैसियत से दीवाली के त्योहार को मनाते हैं। पर ऐसा करते हुए हम जिस अंधकार से मुक्त होने का उपक्रम करते हैं, वह बार बार पीछा नहीं छोड़ता। हम प्रकाश के वृत्त में रहकर भी अँधेरों में घिरे रहते हैं। गाँवों में घर-आँगन लिपे पुते नजर आते हैं किन्तु फिर भी वह क्या है जिसे राम की शक्तिपूजा में निराला कह गए हैं—है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार। रजनीश कहा करते थे, ‘अंधकार का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। जहाँ कहीं भी रोशनी होगी, अंधकार नहीं होगा।‘ अंधकार दरअसल प्रकाश की अनुपस्थिति है। पर सबके जीवन में उजाला कहाँ है। जिनके पास धन-दौलत है, वहीं उजाला है। वहीं द्युति की झिलमिलाहट है। बिल्कुल उसी सुभाषित की तरह—यस्यास्ति वित्तं स नर: कुलीन: स पंडित: स: श्रुतवान गुणज्ञ: । कुलीनता का जैसे धन-दौलत से गहरा रिश्ता है, उसी तरह से जिनके पास ऊर्जा के संसाधन हैं, उन्हीं के पास रोशनी के अजस्र स्रोत हैं।

अँधेरे और उजाले का संघर्ष सदियों पुराना है। अँधेरे और उजाले का अर्थ वही नही है जो दीखता है। अँधेरा यदि अज्ञान, भ्रष्टाचार और काली करतूतों का आश्रयदाता मान लिया गया है तो उजाला इससे मुक्ति का मार्ग है। हमारे ऋषियों ने ‘असदो मा सद गमय। तमसो मा ज्योतर्तिगमय’ –की अभ्यर्थना की थी। अँधेरे से उजाले की ओर हमारी यात्रा अनवरत जारी है। पर अँधेरा इतना सबल है कि वह मिटाए नही मिटता। हमारे यहाँ ‘अप्प‍ दीपो भव’ की कामना की गई है । यानी स्वयं अपना दीपक बनो। स्वयं को प्रकाशित करो। कभी छायावाद की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने लिखा था, ‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल/ प्रियतम का पथ आलोकित कर।‘ बच्चन ने आम आदमी का हौसला बुलंद करते हुए लिखा—‘है अँधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।‘ एक अन्य। गीत में उन्होंने लिखा था—‘दिखलाई देता कुछ कुछ मग/ जिस पर शंकित हो चलते पग/ दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है/ अंधकार बढ़ता जाता है।‘ यानी दिये के आजू-बाजू सब जगह अँधेरा दिखता है। आज उजाले के बावजूद अँधेरे की सत्तास निर्मूल नही हुई है। दीवाली के एक दिन के उजाले से क्या होना है। क्योंकि उसके बाद फिर वही अँधेरा। इसलिये उजाला भी अब हमारे लिये त्योहार की तरह है। रोजाना न सही, एक दिन ही सही।

एक वक्त था, कविता में दीपक, रोशनी के और उजाले के बिम्ब बहुतायत में मिलते थे। छायावादी और छायावादोत्तर कवियों ने 'दीपक' को बहुधा एक प्रतीक की तरह व्यवहृत किया है। एक दूसरे के यहाँ दीपाधारित बिम्ब और अंधकार-कालुष्य को मिटाने के संकल्प आवाजाही करते हैं। आज की कविता का विषय विस्तार तो प्रशस्त हुआ है पर उसमें खोजे से भी ऐसी कविताएँ कम मिलती हैं जिनमें दीपावली पर प्रत्यकक्ष-अप्रत्ययक्ष कुछ लिखा गया हो। पूछने का मन करता है आज के कवियों से कि क्या वे दीवाली नहीं मनाते, रंगों-रोशनियों से उनका वास्ता नही रहा? या त्योहारों का रंग फीका करने पर आमादा मँहगाई और आम आदमी की तंगहाली पर कुछ लिखने का मन नहीं करता। तो फिर वे क्यों नहीं लिखते। यह अवश्य है कि ज्यादातर कवि दीपावली पर लिखते हुए दीप और बत्ती से आगे नहीं जाते या एक साधारण-सा रूपक गढ़कर निश्चिंत हो लेते हैं जिसकी आवृत्ति बहुधा हुई है। तथापि, खँगालने पर रोशनी, उजाले, अँधेरे को लेकर
कविताओं में ऐसे अनेक बिम्बत बिखरे मिलते हैं जिनका हमारे जीवन की खुशहाली और बदहाली से रिश्ता बनता है। आइये देखें आज की हिंदी कविता में ये बिम्ब‍ किन किन अर्थों-रुपकों-प्रतीकों में व्यवहृत हुए हैं। वरिष्ठ कवि मलय कहते हैं: कविता उजेरे की नसेनी है। ‘अकाल में सारस’ में केदारनाथ सिंह की एक कविता ‘सूर्यास्त के बाद एक अंधेरी बस्ती से गुजरते हुए’ पर केंद्रित है। गोधूलि वेला से शुरू होकर दिये की लौ के जलते–प्रकम्पित होते स्वरूप को अवलोकित करती हुई कवि-दृष्टि गाँव में रात के सघन से सघनतर होते बिम्बों को दृश्ययमान करती है जहाँ ताकती हुई आँखों का अथाह सन्नाटा पसर चुका है। गाँवों की ज्यारदातर रातें आज भी ऐसी ही स्याह नजर आती हैं।

गजानन माधव मुक्तिबोध की एक सुप्रसिद्ध कविता है—'अँधेरे में।' हमारे समय के अंधकार को मुक्तिबोध ने लंबी कविता के विशद आशयों में समेटा है। उन्‍होंने एक कविता ‘पथ के दीपक’ भी लिखी है जो जरा सरल-सी है : 'मेरे पथ के दीपक पावन मेरा अंतर आलोकित कर/ यदि तू जलता बाहर उन्मथ/ अधिक प्रखर जल मेरे अंदर।' यह कविता पढ़ते हुए महादेवी वर्मा के गीत की याद हो आती है। एक और रचना में वे सुभाषित की भाषा में बोलते हैं—‘इस अंध तम-जाल पर रश्मि की बेल/ के स्वर्ण के फूल खिल जाएँ, लहराएँ/ मन की तिमिर राशि वन के कुसुम-हास में घुल, वनश्री विभा में बदल जाय।‘ उन्हीं के नक्शे-कदम पर चलते हुए वयोवृद्ध कवि नंद चतुर्वेदी ने ‘गा हमारी जिन्दंगी कुछ गा’ में यह शुभाशा व्यक्त की है:--
रोशनी की यह नदी बहती रहे, बहती रहे
नील जल सा काँपता मन का रहे आकाश
प्राण प्राणों से बँधें रस-रंग के नवपाश
यह तुम्हारी बाँसुरी की प्रेमभीगी ताल
फूल, सपनों की कथा कहती रहे, कहती रहे।

अज्ञेय ‘देहरी पर दिया’ कविता में लिखते हैं---
देहरी पर दिया/ बाँट गया प्रकाश
कुछ भीतर कुछ बाहर/
बँट गया हिया—कुछ गेही, कुछ यायावर
हवा का हल्का झोंका/ कुछ सिमट, कुछ बिखर गया
लौ काँप कर थिर हुई : मैं सिहर गया। (सदानीरा-।/१२७)

अज्ञेय ने इस प्रसंग को लेकर और भी कई कविताएँ लिखी हैं। ‘क्योंकर मुझे भुलाओगे’ कविता में वह कहते हैं—‘दीप बुझेगा पर दीपन की स्मृति को कहाँ बुझाओगे।
‘दिये, बाती और तेल का आधार खुद को बतलाते हुए वे कहते हैं—
मैं मिट्टी का दीपक/ मैं ही हूँ उसमें जलने का तेल
मै ही हूँ दीपक की बत्ती/ कैसा है यह विधि का खेल।

अज्ञेय इस पदावली में जैसे किसी जीवनदर्शन का संधान करते हैं। यहाँ भी अप्प दीपो भव की भावना ही उजागर हुई है। अंधकार कोई ऐसी चीज नही है कि इसे कोई सरकार मिटा दे। वह बेहतर बिजली उपलब्ध करा सकती है। अंधकार नही मिटा सकती। इसके लिये तो आदमी को खुद आगे आना होगा। एक कथा कही जाती है। एक वन में अंधकार पसरा था। दूर तक रास्ता नहीं सूझता था। एक यात्री इसी सोच में था कि वह आगे कैसे जाए। इतने में एक संत आए। उन्होंने उसके हाथ पर एक दिया रख कर कहा, इस दिये को लेकर चलते चलो, रास्ता सूझता जाएगा। पर वह शख्स बोला, रास्ता तो केवल पंद्रह फुट ही दिख रहा है, उसके आगे तो फिर अँधेरा ही अँधेरा है। संत ने कहा, लगता है तू आगे नही जाना चाहता इसलिये यह बहाना कर रहा है। उन्होंने कहा, जैसे जैसे तू चलेगा, वैसे आगे का मार्ग भी प्रशस्त होता चला जाएगा। पर चलना तो तुझे ही होगा। आज भी हर आदमी यही सोचता है, कोई और फकीर या पैगंबर आएगा, वही राह दिखाएगा। उसे कुछ न करना पड़े। दीया भी यहाँ एक प्रतीक है।

हमारे ज्ञानग्रंथ करोड़ों जलते हुए दीयों के समान हैं। वे जलती हुई मशाल हैं जिन्हें थाम कर हम आगे बढ़ सकते हैं। कविवर लीलाधर जगूड़ी कहते हैं, ‘यों तो प्रकृति और मनुष्य दोनों को अँधेरा और उजाला चाहिये, फिर भी अँधेरे की व्यापक सत्ता के विरुद्ध एक दीप जलाना क्रांति है।‘ अँधेरा और उजाला कहने के लिये एक दूसरे के विलोम हैं पर हैं एक सिक्के के दो पहलू ही। अंधकार से आच्छादित युग को प्रकाशित करने के लिये सदियों से मनुष्य को बड़ी जुगत भिड़ानी पड़ी है। हम उत्‍तरोत्तर अँधेरे से उजाले की ओर आए हैं। सच कहा जाए तो मनुष्य होने की यात्रा ही अंधेरे से उजाले की यात्रा है। हमने अग्नि के लिये, प्रकाश के लिये मानवीय उद्यम किये हैं, उनकी सतत अभ्यर्थना की । तब जाकर हमें उजाला प्राप्त हुआ है। गाँवों में जब चूल्हे हुआ करते थे तो आग को संरक्षित करते हुए उसे काफी दिनों तक जीवित रखा जाता रहा है। अग्नि का सूक्त है: 'ये शुभ्रा घोवर्पष:/सुक्षत्रासोऋषादश:/ मरुद्विभरग्निजरागहि।' अन्य बहुतेरे प्राकृतिक उपादानों की भाँति मरुत और अग्नि का आवाहन किया है हमारे ऋषियों ने।

इस वैज्ञानिक क्रांति के युग में भी सच पूछिये तो दीपावली की महिमा दिये से ही है, बिजली के लट्टुओं से नहीं। गोपाल सिंह नेपाली ने तो एक गीत में यह कल्पना की है—तन का दिया प्राण की बाती/दीपक जलता रहा रात भर। हमारी देह का दिया प्राण रूपी बत्ती से ही जल रहा है। जीवन के लिये प्राण का अस्तित्व आवश्याक है। पर कभी कभी ऐसा भी अनुभव होता है कि वह कोई और है जिसकी वजह से जीवन है। किसी कवि ने कहा है—तुम्हारे बिना जिन्दगी का दिया/ न जल पा रहा है/ न बुझ पा रहा है। नीरज ने लिखा- जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना/ अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए। बच्चों के प्रिय कवि द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी ने अनेक गीत दीपावली पर रचे हैं । उनका एक प्रिय गीत है: जलाते चलो तुम दिये स्नेह भर भर/कभी तो धरा का अंधेरा मिटेगा। एक कविता संग्रह ही उनका 'दीपक' शीर्षक से है।

दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़लों को एक नयी भाषा और संवेदना दी। यह जानते हुए कि ‘ये रोशनी है हकीकत में एक छल लोगो’---उन्हों ने पूरी दृढ़ता से आह्वान किया-
इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिन्गारी कहीं से ढूढ़ लाओ दोस्तो
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

नरेश सक्सेना ‘समुद्र पर हो रही है बारिश ‘ में रोशनी पर बात करते हुए उसके आदिम स्रोत तक पहुँचते हैं और चाहते हैं कि रोशनी में चीजों को देखने से पहले जरूरी है कि रोशनी को देखा जाए, क्योंकि कोयला भी उसका एक प्रिय घर है। वे कहते हैं, ‘जरूरी है अपने ही शरीर में बसे कोयले की याद।‘ अशोक वाजपेयी ‘दुख चिट्ठीरसा है’ में गाढ़े अँधेरे में उजाले की इबारत पढते हुए पाते हैं कि ‘हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है और न ही अंत:करण का कोई आलोक/ यह विचित्र समय है जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के / हमें गाढ़े अँधेरे में गुम भी कर रहा है और साथ ही उसमें जो हो रहा है/ वह दिखा रहा है।‘ लीलाधर मंडलोई को भी चौतरफ दीखती रोशनी बेहद नकली दिखती है। अनामिका ने 'वर्किंग विमेन्सी हॉस्टल की दीवाली' पर अपने संग्रह 'दूबधान' में एक शब्दचित्र खींचा है : जहाँ मेस बंद है, हास्टल खाली है, सिर्फ नेपाली दरबान के कमरे में एक मोमबत्ती जल रही है--दुबली विधवा जैसी लौ की गठरी लेकर कोने में गल रही उदास और एक अन्य कविता 'घूरा' अखबार की इस बासी हेडलाइन पढ़ते हुए खत्म होती है कि 'दीपावली की पूर्व संध्या पर बम फूटा फिर सरे बाजार।' पर इन आशंकाओं के बीच भी युवा कवयित्री वाजदा खान जरा-सी रोशनी को भी व्यर्थ नहीं जाने देतीं- 'जहाँ प्रकाशपुंज की सपनीली आभा है/ थोड़ा सा प्रकाश/ अपनी अंजुरी में भर कर लौट आती हूँ/अपने नीड़ पर फैला देती हूँ उसे।'

दीपावली के प्रकाश में हमें सब कुछ एकाएक प्रकाशित दीखता है किन्तु उस प्रकाश के पीछे अलक्षित अंधकार नहीं दिखायी देता। दार्शनिक कहते हैं जीव माया-मोह के अंधकार में पड़े होने के कारण परमात्मा के प्रकाश तक नहीं पहुँच पाता। जहाँ अंधकार का बोलबाला हो, वहाँ उजाले की सत्ता भी नि:सत्व प्रतीत होती है। एकांत श्रीवास्तव एक कविता में आग को अँधेरे से ज्यादा शक्तिशाली पाते हैं--- और उनके लेखे यह आग मनुष्य में है। किसी विचारक ने कहा है, ‘ईसा सौ बार पैदा हो, उससे क्या होता है यदि वह तुम्हारे भीतर पैदा न हो।‘ अर्थात मनुष्य में यह आग है तो दिखनी चाहिये। बकौल दुष्यंत ‘हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये।‘ आज की उपभोक्तावादी संस्कृति में जब ‘ऋणम् कृत्वा घृतम् पिबेत्’ का बोलबाला हो, कर्ज की अर्थव्यवस्था से देश की हालत चरमरा रही हो, भ्रष्टाचार, कदाचार, घोटालों, अपकृत्यों का दौर चल रहा हो, प्राकृतिक ऊर्जा और कमाई के प्राकृतिक संसाधनों को निजी कारपोरेट घरानों को उपहार में दिया जा रहा हो, आम आदमी की दीवाली बिजली के लट्टुओं से रोशन होने के बावजूद रोशन नहीं हो सकती। एक युवा कवि कर्ज की इस संस्कृति पर प्रहार करते हुए कहता है- ‘यहाँ जिन्दिगी अब टूटा हुआ ग्लास है/ जिससे रोशनी के परखच्चे छिटक छिटक कर उड़ रहे हैं/......जो बिक गए उजड़े घरों से कहते हैं/ईएमआई की किस्तों के पार कहीं रहते हैं सपने।‘(तुषार धवल, जूठे सपने)

‘हाशिये का गवाह’ में कुँवर नारायण कहते है कि शेयर सूचकांकों के लुढ़कने पर सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह यही कहती पाई जाती है कि ‘पुख्ता है हमारी अर्थव्यवस्था/ क्योंकि वह शेयरों पर नहीं/ उन पर निर्भर है जिनका कोई शेयर ही नही/हमारी शेयर-व्यवस्था में।‘ युवा कवि मोहनकुमार डेहरिया के इस कथन में शायद इसीलिये अफसोस की एक दूसरी बानगी दृष्टिगत होती है—‘कभी मेरा भी अपना कद था और थी एक जमीन/नहीं भुरभुरी जिसके नीचे की मिट्टी/क्या‍ करेगा कोई विश्वास/ एक विराट ज्योमति लील गयी मेरी नन्हीं लौ।‘ दूसरों की रोशनी का संसाधन बने मजदूरों की नियति भी अंधकारमय है। सिर पर रोशनी के लैंप पोस्ट धारण करने वाले ऐसे मजदूरों के जीवन में भी रोशनी आखिर कहाँ है, इसे युवा कवि संतोषकुमार चतुर्वेदी ने अपनी एक कविता में खँगाला है। ज्ञानेन्द्र पति इस ज्योतिपर्व के नेपथ्य में पटाखा उद्योग में जुते शिवाकाशी के बच्चों के हतभाग्य पर चिंता प्रकट करते हैं जो जीते जी माचिस की तीलियों में बदल रहे हैं---
बारूद में मिला हुआ अपनी जिन्दगी का बुरादा
शिवाकाशी के वे एक लाख बच्चे
एक लाख तीलियाँ हैं
एक लाख जिन्दगियाँ एक लाख तीलियाँ
काश कि माचिस की डिबिया में
बारूद की मुट्ठी में बंद तीलियाँ न होतीं वे
तो हम उन्हें अपने घोंसलों में शामिल कर लेते
चिड़ियों में शामिल कर लेते
यदि होते न मानव-बच्चे वे
पंख देते आकाश में उठा लाते
जब धरती पर उनके जीने की जगह नहीं
मरने की जगह ही बची है (संशयात्मा, पृष्ठ २४६)

कुल मिला कर अँधेरे और उजाले का यह द्वैत मनुष्य जीवन में सदियों से मौजूद है। विज्ञान के तमाम वरदानों के बावजूद आज भी हजारों गाँव रोशनी से कोसों दूर हैं। चौबीस घंटों में बीस-बीस घंटे बिजली नदारद रहती है। कभी गाँवों की कल्पना कितनी सुखद लगती थी। तब अभावों में भी गाँवों में हमारे होठों पे 'माँगी हुई हँसी तो नहीं' की आभा नजर आती थी। पर जबसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली का आविर्भाव हुआ, किसानों के हिस्से आने वाला किरासिन का तेल बाजारों की भेंट चढ़ता गया। रोशनी के नाम पर गाँवों का विद्युतीकरण अवश्य‍ किया गया किन्तु बिजली उत्पादन के स्रोत धीरे धीरे कम होते गए। लिहाजा वही ढाक के तीन पात। जब महानगरों व राजधानियों को छोड़कर बड़े शहरों में भी बिजली के हालात बदतर हों, ज्यादातर बत्तियाँ इन्वर्टर या जनरेटर की कृपा से ही झिलमिलाती हों तो गाँवों की कौन कहे। भले ही अभी भी दो तिहाई आबादी गाँवों में बसती हो, उसके जीवन यापन के संसाधनों में लगातार कटौती हुई है।

कुल मिला कर अँधेरे और उजाले का यह द्वैत मनुष्यम जीवन में सदियों से मौजूद है। विज्ञान के तमाम वरदानों के बावजूद आज भी हजारों गाँव रोशनी से कोसों
दूर हैं। चौबीस घंटों में बीस-बीस घंटे बिजली नदारद रहती है। कभी गाँवों की कल्पना कितनी सुखद लगती थी। तब अभावों में भी गाँवों में हमारे होठों पे 'माँगी हुई
हँसी तो नहीं' की आभा नजर आती थी। पर जबसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली का आविर्भाव हुआ, किसानों के हिस्से आने वाला किरासिन का तेल बाजारों की भेंट
चढ़ता गया। रोशनी के नाम पर गाँवों का विद्युतीकरण अवश्य‍ किया गया किन्तु बिजली उत्पादन के स्रोत धीरे धीरे कम होते गए। लिहाजा वही ढाक के तीन पात।
जब महानगरों व राजधानियों को छोड़कर बड़े शहरों में भी बिजली के हालात बदतर हों, ज्यादातर बत्तियाँ इन्वर्टर या जनरेटर की कृपा से ही झिलमिलाती हों तो
गाँवों की कौन कहे। भले ही अभी भी दो तिहाई आबादी गाँवों में बसती हो, उसके जीवन यापन के संसाधनों में लगातार कटौती हुई है।

शहर भी हमने ऐसे बसाए जहाँ जीवन की तमाम बुनियादी सुविधाएँ आकाश कुसुम जैसी हैं। ऐसे हालात से निबटने के लिये जब बिहार के कुछ विज्ञानप्रेमी नौजवानों ने धान की भूसी की हस्क पावर प्रणाली से गाँवों में ही बिजली बनाने की तरकीब खोजी तो उनकी तरफ मीडिया का ध्यान गया। ये नौजवान बायोमास गैसिफिकेशन तकनीक के इस्तेमाल से गाँव भर की जरूरत की बिजली पैदा करने में सक्षम हैं जिससे ६ घंटे तक दो सीएफएल बल्ब जलाए जा सकते हैं। पर इन प्रयत्नों को जब तक देशव्यापी नहीं बनाया जाता, समस्या से निजात नहीं मिलने वाली। आज जिस तरह ऊर्जा के स्रोतों का दोहन हो रहा है, धरती के प्राकृतिक स्रोत बहुत ज्यादा दिन नहीं टिकने वाले। लगातार जनरेटर और बैटरीचालित ऊर्जा भी कितने दिन चलेगी। बेशक ऐसे में कवि लीलाधर मंडलोई का यह कहना बहुत रास न आए कि ‘मैं कम उजाले में भी पढ़ लिख लेता हूँ/अपने दीगर काम मजे में निपटा लेता हूँ/ सिर्फ इतने जतन से / कल के लिये कुछ रोशनी बचा लेता हूँ।‘ किन्तु हम ऐसे प्रयासों को कमतर क्यों समझें। बूँद बूँद से घड़ा भरता है । बूँद-बूँद रोशनी बचाकर हम जीवन को थोड़ा आसान तो बना ही सकते हैं। अपने ही शब्दों में कहूँ तो :
चलो कि टूटे हुओं को जोड़ें
जमाने से रूठे हुओं को मोड़ें
अँधेरे में इक दिया तो बालें
हम आँधियों का गुरूर तोड़ें
धरा पे लिख दें हवा से कह दें
है मँहगी नफरत औ’ प्यार सस्ता।

१२ नवंबर २०१२

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