१
अमेरिका
में हिंदी शिक्षण की लहर
कितना
पीछे कितना आगे
-डॉ. सुरेन्द्र गंभीर
अमेरिका में हिन्दी-शिक्षणमें एक नई लहर आई है। ६
फ़रवरी २००६ को अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने
नेशनलसिक्योरिटी लैंगवेज इनिशियेटिव नाम की एक
भाषा-नीति की घोषणा की थी। इस नई नीति के तहत सरकारी
विद्यालयों के विदेशी भाषा शिक्षण कार्यक्रम में दस नई
भाषाएँ क्रमशः जोड़नेके लिये सरकारी समर्थन देने के
लिये सरकार ने अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट की है। इन
भाषाओं में हिन्दी भी एक है।
अन्य भाषाएँ
थीं – चीनी, अरबी, उर्दू, फ़ारसी, तुर्की, पुर्तगाली, स्वाहिली,
रूसी और दरी। स्टारटॉक के नाम से यह कार्यक्रम २००७ में चीनी
और अरबी से शुरू हुआ। २००८ में हिन्दी, उर्दू और फ़ारसी जोड़ी
गईं। २००९ में तुर्की और स्वाहिली जुड़ीं और फिर दो साल बाद दरी
और रूसी को भी इस सूची में सम्मिलित कर लिया गया। स्टारटॉक का
विस्तार बहुत प्रभावशाली रहा है। २००७ में चीनी और अरबी के ३४
कार्यक्रम संपन्न हुए। २००८ में तीन भाषाएँ और जुड़ने के बाद यह
संख्या ८१ जा पहुँची और फिर अन्य भाषाओं के समावेश के साथ
कार्यक्रमों की यह संख्या क्रमशः ११६, १३४ से गुज़रती हुई २०११
में १५६ तक आ पहुँची है । संख्या के साथ साथ यह भी बहुत
प्रभावशाली तथ्य है कि अमेरिका के ५० प्रदेशों में से ४६
प्रदेशों में स्टारटॉक के कार्यक्रम संपन्न हुए हैं। स्टारटॉक
में हिन्दी की स्थिति में भी हर वर्ष प्रगति हुई है। इसके
आँकड़े आगेप्रस्तुत किये जाएँगे। इनमें हिन्दी, चीनी और
पुर्तगाली भारत, चीन ओर ब्राज़ील की सुधरती हुई आर्थिक स्थिति
को ध्यान में रखकर सम्मिलित की गई हैं और अन्य भाषाएँ अन्य
कारणों के साथ साथ विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि
से जोड़ी गईं। आर्थिक दृष्टि से उभरते देशों से निकट भविष्य में
व्यापारिक संबंधों को मज़बूत करने के लिये वहाँ की भाषा और
संस्कृति के जानकार अगली पीढ़ी में तैयार करने की यह दूरदृष्टि
है।
अमेरिका में आजकल हिन्दी जानने का महत्व धीरे धीरे बढ़ रहा है।
इसका श्रेय जहाँ एक तरफ़ भारत मूल की उन अनेक संस्थाओं को है जो
भारतीय मूल के युवा-वर्ग के लिये बड़े नियमित ढंग से हिन्दी के
स्कूल अलग-अलग प्रदेशों में चला रही हैं वहाँ अमरीकी सरकार को
भी इसका श्रेय जाता है जिसने अपनी भाषा-नीति को स्पष्ट करते
हुए हिन्दी को सरकारी स्कूलों के विदेशी-भाषाकार्यक्रम में एक
विकल्प के रूप में रखने की घोषणा की है। ग़ैर-सरकारी स्वयंसेवी
संस्थाएँ भाषा के साथ साथ भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों
का ज्ञान बच्चों को देती हैं। सरकारी तंत्र के तहत चलने वाले
हिन्दी कार्यक्रमों में भाषा के साथ उसकी अभिन्न सहचरी
संस्कृति के भौतिक और वैचारिक पक्षों को समझने-समझाने की
अनिवार्यता पर भी बल है। भाषा-संबंधी शोध पर आधारित इस सरकारी
सोच का दृढ़ मत है कि भाषा और संस्कृति में अटूट संबंध है और
भाषा को समझने और उसका सटीक प्रयोग करने के लिये उससे जुड़ी
सांस्कृतिक मान्यताओं का ज्ञान महत्वपूर्ण है। उसी प्रकार
स्थानीय संस्कृति को समझने के लिये भी स्थानीय भाषा ही सशक्त
माध्यम है। इस प्रकार भाषा और संस्कृतिमें अन्योन्याश्रित
संबंध होने के कारण एक का अस्तित्व दूसरे के बिना अकल्पनीय है।
अमेरिकन सरकार की इस नई नीति को कार्यान्वित करने के लिये २००७
में एक नए राष्ट्रीय कार्यक्रम की घोषणा हुई। राष्ट्रीय स्तर
का यह नया कार्यक्रम स्टारटॉक वाशिंगटन डी सी के पास स्थित
नेशनल फ़ॉरन लैंगवेज सैंटर का हिस्सा बना। स्टारटॉक के माध्यम
से सरकार से प्राप्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।
ग्रीष्मकालीन सत्र (मई से अगस्त) के दौरान उपर्युक्त भाषाओं
में युवा-वर्ग के लिये आयोजित इन भाषा-कार्यक्रमों को भरपूर
सहायता मुहय्या की जाती है। इन भाषा-कार्यक्रमों में समाज के
सभी वर्गों के युवाओं का स्वागत होता है परंतु कुछ भाषाओं में
हेरिटेज शिक्षार्थियों की संख्या अधिक रहती है। स्टारटॉक के
उच्च-स्तरीय प्रशासनिक अधिकारी स्वयं भाषा-शिक्षण क्षेत्र के
शोध और विधियों में बड़े निष्णात हैं। वे अन्य अमरीकी विद्वानों
के साथ मिलकर इन कार्यक्रमों की सफलता के लिये उपयुक्त
मार्गदर्शन करते हैं। हिन्दी में भी ये कार्यक्रम वर्षानुवर्ष
पनप रहे हैं। इनके बारे में कुछ आँकड़े इस लेख में आगे प्रस्तुत
किये जाएँगे।
सामाजिक स्तर पर अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ अमेरिका के युवा-जगत
के लिये हिन्दी भाषा और उससे संबंधित संस्कृति की कक्षाएँ चला
रही हैं। इस संस्थाओं में विशेष उल्लेखनीय संस्थाएँ हैं –
हिन्दी यू. एस. ए., बाल-विहार, यू एस हिन्दी एसोसिएशन, चिन्मय
मिशन, बाल गोकुलम्, अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति, विश्व हिन्दी
न्यास, विद्यालय। इन संस्थाओं में बड़े निस्स्वार्थ भाव से और
बड़ी लगन से काम करने वालों की कमी नहीं है। इसके अतिरिक्त २००९
में युवा हिन्दी संस्थान का निर्माण हुआ जिसके तत्वावधान में
२०१० में एटलांटा (जार्जिया प्रदेश) और २०११ में न्यू-अर्क
(डेलेवेयर प्रदेश) में युवाओं को हिन्दी भाषा और संस्कृति
सिखाने के लिये विशाल शिविरों का आयोजन किया गया। ये शिविर
दस-दस दिन तक चले। २०१२ में इसी प्रकार के एक विशाल शिविर का
आयोजन पेन्सिल्वेनिया में करने केलिये काम आरंभ हो चुका है।
स्वयंसेवी संस्थाओं के अतिरिक्त कुछ सरकारी विद्यालयों में भी
हिन्दी का औपचारिक शिक्षण शुरू हो चुका है। इस विषय में
टेक्सस, न्यू जर्सीऔर न्यूयार्क प्रदेश के कुछ स्कूलों में
हिन्दी औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम मेंसम्मिलित की जा चुकी है।
जहाँ तक
विश्वविद्यालयों का संबंध है – अमेरिका के लगभग १००
महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है।
लगभग ४ वर्ष पूर्व अमेरिका सरकार ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस
(ऑस्टन नगर) को हिन्दी की शिक्षा को अमेरिका में बढ़ाने के लिये
एक विशाल हिन्दी कार्यक्रम के लिये एक बहुत बड़ी राशि का अनुदान
दिया। यह हिन्दी उर्दू फ़्लैगशिप नामक कार्यक्रम विशेष रूप से
उल्लेखनीय है। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडियन स्टडीज़, जो लगभग
६० विश्वविद्यालयों की छत्र-संस्था है, विभिन्न भारतीय भाषाओं
के लिये पिछले लगभग ५० वर्षों से अमरीकी विद्यार्थियों के लिये
विशेष भाषा-कार्यक्रम भारत में चला रही है। इन कार्यक्रमों में
हिन्दी का कार्यक्रम जो जयपुर में चलता है सबसे बड़ा है। वहाँ
पूरे वर्ष भाषा-शिक्षण-विधियों के साथ आधुनिकतम तरीकों से
उच्च-स्तरीय और प्रशिक्षित शिक्षकों की देख-रख में हिन्दी
पढ़ाने की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त अमेरिका की सरकार ने
पिछले दो वर्षों से दो और नए कार्यक्रमों की घोषणा की है जिनके
अन्तर्गत कालेज और हाई स्कूल के विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ने
के लिये छात्रवृत्ति पर भारत भेजा जाता है। कुछ अमरीकी नागरिक
अपने पैसे से भी हिन्दी पढ़ने के लिये भारत जाते हैं। इस प्रकार
के विद्यार्थियों के लिये मसूरी में लैंगडोर का स्कूल एक
प्रतिष्ठित केन्द्र है। इसी वर्ष यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्विनया
में बिज़नेस की पढ़ाई के लिये जगत-विख्यात वार्टन स्कूल ने अपने
एम.बी.ए. के उन विद्यार्थियों के लिये व्यवसायिक हिन्दी का एक
विशेषपाठ्यक्रम शुरू किया हे जो भारत के बारे में विशेषज्ञता
प्राप्त करना चाहते हैं। वार्टनस्कूल को देख कर अन्य बिज़नेस
स्कूलों ने भी इस दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है।
इन सब तथ्यों से हिन्दी के बारे में उभरती हुई रुचि अनेकानेक
शैक्षिक केन्द्रों और सरकारी नीतियों में बड़े स्पष्ट रूप से
परिलक्षित हो रही है। भारत की अन्तःप्रांतीय राजभाषा के रूप
में और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर संख्या की दृष्टि से दूसरे (और
कुछ विद्वानों के अनुसार तीसरे) स्थान पर आसीन इस महत्वपूर्ण
भाषा के लिये अमेरिका जैसे विकसित देश में इस प्रकार का
विस्तार पाना बड़े गौरव की बात है। परंतु इस तथ्य परक मानचित्र
का एक दूसरा पक्ष है जो विचारणीय है। अमेरिका में हिन्दी इतना
आगे नहीं बढ़ पा रही जितना दूसरी भाषाएँ इस सकारात्मक वातावरण
का लाभ उठा रही हैं।
वर्तमान अमरीकी संदर्भ में भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की
स्थिति दुनिया की अन्य भाषाओं के सामने काफ़ी कमज़ोर नज़र आती है।
हम यहाँ हिन्दी की तुलना चीनी, जापानी और अरबी से करेंगे। सबसे
पहले देखते हैं कि चीनी और जापानी भाषाओं की तुलना में
विश्वविद्यालय के स्तर पर हिन्दी की क्या स्थिति है। मॉडर्न
लैंगवेज एसोसिएशन हर तीन से चार वर्ष में विश्वविद्यालय के
स्तर पर विभिन्न भाषाओं को पढ़ने वाले छात्रों के आँकड़े एकत्र
करती है। नीचे उपर्युक्तचार भाषाओं के आँकड़े दिए जा रहे हैं
जिनसे तुलनात्मक स्थिति स्वयं स्पष्ट हो जाती है।
|
वर्ष २००२ |
वर्ष
२००६ |
वर्ष
२००९ |
हिन्दी |
१८५७ |
२३३९ |
२८४६ |
चीनी |
३४२२७ |
५१६९५ |
६११७८ |
जापानी |
५२२५७ |
६६६३५ |
७३४५६ |
अरबी |
१०५८४ |
२३९९७ |
३५३९३ |
भारत की सब
भाषाओं की संख्या को भी इन आँकड़ों में जोड़ लें तो भी हम बहुत
ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाते। भारत की बारह और भाषाएँ जो अमेरिका
के अलग अलग केन्द्रों में पढ़ाई जाती है उनके पढ़नेवालों की
संख्या भी बहुत थोड़ी है। संस्कृत, पंजाबी, गुजराती, मराठी,
बंगाली, तमिल,तेलगु, कन्नड़, मलयालम, वैदिक संस्कृत, पाली और
उर्दू की कुल संख्या इस प्रकार है -
वर्ष २००२ |
वर्ष
२००६ |
वर्ष
२००९ |
९६४ |
१३०९ |
१५८४ |
इन आँकड़ों
में ७२ से ७५ प्रतिशत संस्कृत, पंजाबी और उर्दू के आँकड़े हैं।
संस्कृत की पढ़ाई धर्म, इतिहास आदि के शोध के कारण से है, उर्दू
की पढ़ाई राष्ट्रीय सुरक्षा कारणों से है और पंजाबी की पढ़ाई
स्थानीय सिख समुदाय के आर्थिक समर्थन के कारण से आगे बढ़ रही
है। बाकी भारतीय भाषाओं के छात्रों की संख्या बिल्कुल नगण्य
है। कहीं दो हैं तो कहीं चार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि
अमरीकी विद्यार्थियों के लिये चीनी, जापानी, अरबी आदि अनेक
भाषाओं की तुलना में भारत की भाषाएँ कम आकर्षक हैं।
आइए अब हम स्टारटॉक के आँकड़े देखें। स्टारटॉक में दो प्रकार के
कार्यक्रम हैं – एक भाषा पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये और
दूसरे भाषा-शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिये। जापानी भाषा
स्टारटॉककार्यक्रम का हिस्सा नहीं है इसलिये उसके आँकड़े यहाँ
शामिल नहीं हें।
छात्र-कार्यक्रमों की संख्या-
|
वर्ष २००७ |
वर्ष
२००८ |
वर्ष
२००९ |
वर्ष २०१० |
वर्ष २०११ |
हिन्दी |
- |
४ |
११ |
१२ |
१४ |
चीनी |
१८ |
३७ |
४५ |
५४ |
६३ |
अरबी |
८ |
१९ |
२६ |
२० |
२४ |
शिक्षक-प्रशिक्षण-कार्यक्रमोंकी संख्या-
|
वर्ष २००७ |
वर्ष
२००८ |
वर्ष
२००९ |
वर्ष २०१० |
वर्ष २०११ |
हिन्दी |
- |
४ |
५ |
५ |
१० |
चीनी |
३३ |
२७ |
३३ |
४४ |
४९ |
अरबी |
१३ |
१६ |
१८ |
१४ |
२१ |
उपर्युक्त जानकारी कार्यक्रमों की कुल संख्या के बारे में थी।
अब हम देखेंगे कि इन कार्यक्रमों में कितने कितने
शिक्षार्थियों ने भाग लिया – छात्र-कार्यक्रमों में भाग लेने
वाले छात्रों की कुल संख्या
|
वर्ष २००७ |
वर्ष
२००८ |
वर्ष
२००९ |
वर्ष २०१० |
वर्ष २०११ |
हिन्दी |
- |
५७ |
२५५ |
३८६ |
५८० |
चीनी |
६८१ |
२०७९ |
३१४३ |
४२४२ |
५७३७ |
अरबी |
१९३ |
४३१ |
८२० |
६३२ |
८०३ |
शिक्षक-प्रशिक्षण-कार्यक्रमोंमें भाग लेने वाले शिक्षार्थियों
की कुल संख्या
|
वर्ष २००७ |
वर्ष
२००८ |
वर्ष
२००९ |
वर्ष २०१० |
वर्ष २०११ |
हिन्दी |
- |
३५ |
४८ |
६० |
४७ |
चीनी |
२९२ |
७०२ |
७७६ |
९९१ |
९८६ |
अरबी |
१५६ |
२९३ |
३१७ |
२६३ |
३२३ |
कुल मिला कर
अन्य भाषाएँ हिन्दी से कई गुणा आगे हैं। उच्च शिक्षा केन्द्रों
में चीनी और जापानी भाषाओं को पढ़ने वाले छात्रों की बड़ी संख्या
के दो बड़े रहस्य हैं – एक तो यह कि अमेरिका स्थित उनके प्रवासी
समाजों में अपनी भाषा के प्रति बहुत उत्साह है और दूसरा बड़ा
कारण है उन देशों की सरकारों का सुनियोजित ढंग से अपनी भाषाओं
को आगे बढ़ाने के लिये बौद्धिक, भावनात्मक और आर्थिक समर्थन।
चीन की सरकार के शिक्षा मंत्रालय से पोषित एक संस्था है जिसका
अंग्रेज़ी नाम है ऑफ़िस ऑफ़ चाइनीज़ लैंगवेज इंटरनेशनल जो संक्षेप
में हानबान के नाम से जानी जाती है। इस संस्था का मिशन
स्टेटमेंट है चीनी भाषा और संस्कृति का अन्य देशों में
प्रचार-प्रसार और इस प्रकार इसका काम है दूसरे देशों में चीनी
भाषाकी पढ़ाई का संवर्धन। इसका बजट बहुत बड़ा है और इसके काम को
आगे बढ़ाने के लिये दुनिया के अनेक देशों में स्थानीय संस्थाओं
का जाल बिछा हुआ है। इस संस्थाओं में एक है कनफ़्यूशस
इंस्टीट्यूट जो अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों के परिसर
परविद्यमान है। भाषा की दृष्टि से यह संस्था स्कूलों और
कालेजों को चीनी भाषा के पाठ्यक्रम, पाठ्य सामग्री का संग्रहण
और प्रशिक्षित शिक्षकों की आपूर्ति में मदद करती है। इसके
इलावा न्यूयार्क में एशिया इंस्टीट्यूट मे चीनी भाषा की पढ़ाई
को आगे बढ़ाने के लिये एक विशेष विभाग है। इसी प्रकार अमेरिका
में कॉलेज बोर्ड नाम की एक ग़ैर-सरकारी स्वयंसेवी संस्था है जो
सामान्य से सब विद्यार्थियों को कॉलेज की पढ़ाई के लिये सहायता
प्रदान करती है। यहाँ चीनी भाषा को अमेरिका के शिक्षा-क्षेत्र
में फैलाने के लिये तीन विशिष्ट कार्यक्रमों का आयोजन होता है
और ये कार्यक्रम हैं – कनफ़्यूशसऔर चाईनीज़ प्रोग्राम, गेस्ट
टीचर प्रोग्राम और चाईनीज़ ब्रिज डेलिगेशन। इस कार्यक्रम के तहत
सैंकड़ों शिक्षक चीन से हर साल अमेरिका लाए जाते हैं। ये कुछ
बड़े बड़े उदाहरण हैं।
इसी प्रकार जापानी भाषा केसंवर्धन के लिये भी संस्था-गत
कार्यक्रमों का एक विस्तृत ब्यौरा पेश किया जा सकता है। इसकी
सबसे बड़ी संस्था है द जापान फ़ाऊँडेशन। इसके अधीन द जैपनीज़
लैंगवेज इंस्टीट्यूटएक विस्तृत विश्व-व्यापी कार्यक्रम है।
इसका बजट भी बहुत बड़ा है और जापानी संस्कृति और भाषा का
शैक्षिक क्षेत्रों में प्रचार-प्रसार इसका लक्ष्य है। अमेरिका
में इसकी दो बड़ी शाखाएँ हें – एक कैलीफ़ोर्निया प्रदेश के लॉस
एँजलिस नगर में और दूसरी न्यू यार्क में। दोनों शाखाएँ विविध
सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त जापानी भाषा-कार्यक्रमों
के प्रसार और उनके सशक्तीकरण में विशिष्ट सहायता और योगदान
प्रदान करती हैं। अब पिछले कई वर्षों से कोरिया भी इस दिशा में
बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है जिसके फलस्वरूप अमरीकन
विश्वविद्यालयों में कोरियन भाषा की पढ़ाई बहुत प्रगति कर रही
है (२००९ में कोरियन भाषा पढ़ने वालों की संख्या ८५११ थी)। इस
प्रकार के कार्यक्रम बहुत से दूसरे देश भी अपनी अपनी भाषाओं के
प्रचार-प्रसार के निमित्त चलाते हैं जिनमें फ़्रांस, जर्मनी,
ब्रिटेन आदि उल्लेखनीय नाम हैं। इन देशों की एलियंस फ़्रांसे,
गोइथे इंस्टीट्यूट, ब्रिटिश कौंसिल संस्थाएँ हैं जिनकी
गतिविधियों में भाषा का महत्वपूर्ण विषय रहता है।
इन सब देशों की तुलना में भारत अपनी भाषा के प्रति उदासीन है।
लड़खड़ाती अंग्रेज़ी के मोह ने भारतीय जन-मानस को जकड़ रखा है और
यही कारण लगता है कि भारतीय भाषाओं का शिक्षण-प्रशिक्षण भारत
में भी कमज़ोर है और दूसरे देशों में भी। भारत देश की आंतरिक
प्रगति के लिये और विश्व-मंचपर भारत के सम्मान्य स्थान के लिये
इसका निहितार्थ क्या है यह एक विचारणीय विषय हे।
इस लेख का समापन मैं एक व्यक्तिगत अनुभव से करूँगा। यह
व्यक्तिगत अनुभव स्व-भाषा के प्रति भारतीय और चीनी सोच की
स्थिति को एकदम स्पष्ट कर देगा। शायद दो साल पहले की बात है कि
अमेरिका के एक सरकारी स्कूल ने स्टारटॉक के लिये दो आवेदन-पत्र
एक साथ दिए थे – एक हिन्दी के लिये और एक चीनी के लिये। उनके
आवेदन-पत्रों की प्रस्तुति बहुत प्रभावी रही होगी जिसके कारण
स्टार टॉक के राष्ट्रीय कड़े मुकाबले में इस स्कूल के दोनों
आवेदन स्वीकृत हो गए। परिणाम पता लगने पर स्कूल के अधिकारियों
के हर्ष का पारावार न रहा। स्कूल में बड़े उत्साह और बड़े उल्लास
का वातावरण बनना शुरू हुआ। उन्होंने अपने उत्साह की अभिव्यक्ति
के रूप में भारतीय कौंसलावास और चीनी कौंसलावास को एक एक पत्र
भेजा जिसमें उन्होंने हिन्दी और चीनी केअपने नए ग्रीष्मकालीन
कार्यक्रमों का यह सुखद समाचार उनके साथ बाँटा। चीनी दूतावास
से कुछ दिनों में बधाई का जवाब आया और उस पत्र के साथ
कौंसलाधीश ने दस हज़ार डालर का चैक भी भेज दिया और कहा कि चीनी
भाषा के कार्यक्रम को और अच्छा बनाने के लिये कृपया आप इस धन
का उपयोग करें। स्कूल के अधिकारियों का उत्साह दुगना-चौगुना
हो गया। वे भारतीय कौंसलावास से भी बधाई के उत्तर की प्रतीक्षा
कर रहे थे लेकिन वहाँ से कोई उत्तर ही नहीं आया। जब यह घटना
हमें बताई गई तो हम उनके सामने कुछ शर्मिंदा भी हुए और अपने मन
ही मन में फूट फूट कर रोए भी।
१०
सितंबर
२०११ |